गुरुवार, 26 नवंबर 2009

अंग्रेजी से भिड़ी सी दिखती है हिन्दी

मुझे हर वक्त अपनी भाषा हिन्दी अंग्रेजी से भिड़ी हुई , जूझती हुई दिखती है। अच्छा हो कि यह मेरा व्यक्तिगत भ्रम हो।
यूरोप ने अपना सांस्कृतिक साम्राज्य तो अंग्रेजी के माध्यम से आज तक कायम रखा है। इस वजह से, दूसरी भाषा के विषय में तो मैं दावे नहीं कह सकता पर, हिन्दी इतनी व्यापक और गहरी संस्कृति रखते हुए भी मानो अंग्रेजी का मुंह जोहती रहती है । यह मेरी अल्पमति में सर्वथा दुर्भाग्य पूर्ण है।
इसकी जिम्मेदारी अनुवादकों और अनुवाद-बाज़ारों की है।
अनुवाद का तात्पर्य का दुहराने से है। अनुगमन करने से है।
भारत की संविधान ने किसी कारणवश हिन्दी को राष्ट्रभाषा तो मान लिया किंतु मैंने या आप सबने भी देखा होगा कि यह हमेशा द्वितीय श्रेणी का आदाब पाती रही।
मसलन, संविधान अंग्रेजी में लिखी जाती है और बाद में , इसका अनुवाद करवा जाता है हिन्दी और अन्य भाषा में।
अभी पिछले दो दशकों से एक मुहावरा वैश्वीकरण अथवा उत्तर-आधुनिकता हमारे हिन्दुस्तानियों में जितना मशहूर है शायद यूरोपवासियों में न हो किंतु इसका वास्तविक सन्दर्भ कहाँ है ! अंग्रेजी में। और आपको जानना है तो अंग्रेजी में इसका मौलिक पाठ मिलेगा नहीं तो हिन्दी सुधीश पचौरी द्वारा किया गया अनुवाद, जिसे वे मौलिक होने के दावे साथ परोसते है।
इसका यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि मैं या इस तरह की बात करने वाला अंग्रेजी-विरोधी है। मैं आप सुधि-विद्वानों से पूछता हूँ कि क्या दोस्ती करने का मतलब गुलामी करना ही होता है।
भारत में किसी भी भारतीय भाषा के अख़बार से बहुत अधिक प्रतिष्ठित अंग्रेजी का अख़बार है।
कोई रचनाकार जब अच्छी रचना लेकर प्रकट होता है, आलोचक यह पता लगाने की जुगत में लग जाता है कि इस लेखक ने किस अंग्रेजी लेखक का मजमून मारा है।
फिल्मों तक की स्थिति यही है।
क्या यही नियति है ?
हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि हमारी हिन्दी एक दोयम दर्जे की भाषा है ।
न जाने क्यूँ , मानने का मन नहीं होता।

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

मेरा समय : मेरे विचार

मैं उस समाज का प्राणी हूँ - जहाँ स्त्रियों के मुकाबले पुरुषों में हिट है स्त्रीवाद।

बहुत सोचा कि आखिर ऐसा क्यों है ?

तो मैंने पाया कि आज भी समाज पर , उसके रिवाज़ और रवायत पर मर्दों का ही कब्ज़ा है। वे कुछ स्त्रियों से अपने बृहत् मनोरंजन का इंतजाम करवाते है ।

यदि ऐसा है तो सवाल उठता है कि वे पुरूष इस तरह की कुत्सित मानसिकता से ऐसे घिनौने षड़यंत्र क्यों करते हैं ?

ऐसा सिर्फ़ इसलिए , क्योंकि इस तरह की ऐय्याशी में न्यूनतम जोखिम है ।

आज़ादी की आकांक्षा तो शाश्वत स्वप्न है मानव-मात्र का , इसलिए स्त्रियों में भी है और यह स्वाभाविक तथा नैसर्गिक है ।

बड़े और बुद्धिमान सौदागर चीजों का नहीं , सपनों का ही कारोबार करते हैं ।

आपके सपने को पूरा करने का आश्वासन देकर आपका वजूद आपसे ले लेते हैं और स्वप्न को साकार करने के लिए स्वेच्छा से अपने आपको सौंप देते हैं।

यह एक ही ऐसा व्यवसाय है जिसमे सबको सिर्फ़ फायदा ही होता है, नुकसान किसी को नहीं होता ।

बाज़ार को जब यह समझ में आया , वह आपको स्वप्न का लालच देकर आपको बन्दर बना दिया और ख़ुद बना मदारी, वह बजता है डमरू और हम उसके इशारों पर थिरकना समसामयिक होने जैसा जरुरी समझते हैं व

थिरकते हैं।

याद कीजिए फैशन परेड को, जिसमे स्त्री प्रायः और कभी कभी पुरूष भी रोबोट की तरह चलते है, जरुरत और निर्देश के अनुसार घूमते और हाथ हिलाते हैं।

वे सिर्फ़ एक देह की तरह होते हैं, मालूम देता है कि उस शरीर में मन या आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होगी।

लेकिन उस बे-रूह कारनामों को करने वाले हमारे समय में काफी महत्त्वपूर्ण हस्ती हैं।

इस तरह रोबोट की कैट-वाक करना हमारे कई हम-वक्तों का ख्वाब होगा ।

यह मेरा समय है,

मैं अपने समय से शर्मिंदा नहीं हूँ , मैं अपने समय को समझना चाहता हूँ।

यह भी सच है कि स्त्रियों को बेपर्दा कर कुछ मर्द इसका लुत्फ़ लेते हैं । इसमे कुछ आज़ाद-ख्याल खवातीन इन खिलाड़ियों के खेल का शिकार भी होती हैं। फिर भी, आज़ाद होने की जिद बहुत हद तक आज़ादी दिला चुकी है। यह जिद बनी रहे, इंसा-अल्लाह , बरकत होगी जरूर

यह हमारा समय है, जब ज्यादा संघर्ष सांस्कृतिक हो गई है। बस इसीसे सावधान रहने की, जहाँ तक हो सके, जरुरत है।

यही हमारा समय है, और ऐसे ही अजीब मेरे विचार हैं।

सोमवार, 9 नवंबर 2009

माफ़ी-नामा (कविता)

मेरी हालत ठीक नहीं है

मैंने कोई अक्षम्य अपराध कर लिया है तुम्हारे प्रति

मुझे अवश्य मिलना चाहिए दंड

किंतु मत करो मेरा त्याग

मुझे रहने दो अपने इर्द-गिर्द

मैं करता हूँ वादा , पकड़के अपने दोनों कान

कि नहीं होगी मुझसे भूल से भी कोई वैसी चूक

जो तुम्हें नागवार गुजरे

तुम्हें पाकर

हो गया था मैं दम्भी कुछ अधिक

और कर बैठा था प्रयोग अपनी शक्ति

तुम्हारे विरुद्ध

नहीं समझ में आता है इसका कोई निदान

नहीं सूझता है दो कदम चलने का भी रास्ता

बेदम और लाचार

जीने का कर रहा हूँ जी-तोड़ प्रयत्न

इसी उम्मीद से

कि शायद होगा तुम्हारा बड़ा ह्रदय

और मर सको तुम माफ़ मुझे

जाहिर सी है बात

कि मैं खो चुका हूँ

तुमसे बात तक करने का अधिकार

नहीं है मालूम कोई पता-ठिकाना भी

कि लिख भेजूं , दो पांति का माफीनामा ही

तभी तो लिख रहा हूँ कविता

कि कोई सहृदय पहुँचा मेरे आंसू के दाग

कि करे शायद चर्चा मेरी कविताओं के मजमून का

नहीं जाएगा कुछ भी माफ़ी देने में तुम्हारा

लेकिन मिल जाएगा मुझे मेरा जीवन वापस

बस ! नहीं लिखी जा पा रही कविता पूरी

यह अधूरी कविता शायद मेरा माफीनामा है

अगर तुम कर लो कुबूल तो

वैसे मैंने गलती माफ़ी के काबिल नहीं ।

शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

टीवी चैनलों पर जजों की वैकेंसी

सभी टीवी चैनलों की ओर से जजों की नियुक्ति हेतु पैरवी -पत्र आमंत्रित किए जाते हैं। इन जजों का कार्य चैनलों पर होने वाले ' रियलिटी शो ' में उपस्थित रहना है और संचालकों के पूछे जाने पर कुछ भी उल्टा-सीधा बड़ी ही संजीदगी के साथ बोलना है। बोलते हुए यह अवश्य ध्यान रखें कि यह वक्तव्य आपका निजी है। यद्यपि आपके सारे डायलोग निर्माताओं द्वारा लिखकर दिए जाएँगे तथापि इसमें स्वाभाविकता लाना आपकी जिम्मेदारी होगी।
जजों के पद के लिए अनिवार्य योग्यता इस प्रकार है:
१) प्रत्येक पैरवी-पत्र भेजने वालों को इतना मशहूर होना चाहिए जिसे सिलेब्रिटी कहा जा सके। उदहारण के लिए ध्यान दें, कोई भी राहुल महाजन से कम लोकप्रिय न हो।
२) उसके पास और कोई काम न हो। उदहारण के लिए, रिजेक्टेड हीरो-हिरोइन, संगीतकार-गीतकार, निर्देशक-निर्माता वगैरह ।
३) गेस्ट जजों की नियुक्ति भी साथ-साथ चलती रहेगी, जिन्हें एक एकाध एपिसोड के लिए ही रखा जा सकेगा , इसमें काम-काजी लोग भी नियुक्त हो सकते हैं।

ध्यान दें :-
जिसकी पैरवी इस प्रोग्राम के लिए नहीं सुनी गई , वह धैर्य न खोएं । आम लोग को बेवकूफ बनाने के लिए बहुत सारे प्रतिभाशाली लोग मेहनत कर रहे हैं। जैसे ही कोई दूसरा रियलिटी-शो का आयोजन होगा, आपको ही मौका दिया जाएगा।
पैरवी-पत्र भेजने की कोई भी अन्तिम तिथि नहीं है। आप संपर्क में रहे , आपको भी जज बनने का मौका अवश्य दिया जाएगा। अपना पैरवी=पत्र कृपया इस पते पर भेजें।
मुर्दों का टीला,
आई-बाबा रोड,
कब्रिस्तान , बुम्बई- 999००४

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

पति,पत्नी और वो : एक अमानुषिक मनोरंजन

एन डी टी वि मनोरंजन पर एक रियलिटी शो शुरू हुआ है। इसमे कुछ पुरूष हैं , कुछ स्त्रियाँ हैं और कुछ शिशु हैं। इन शोहरतजादा और शोहरतजादियों को युगल यानि पति-पत्नी की भूमिका दी गई है। ये लोग टीवी और फिल्मों के पिटे मुहरें हैं। इन्हें बच्चे पालने का तजुर्बा नहीं है, मनोरंजन का पक्ष यह है कि ये दिए गए बच्चों को पालते हुए दिखकर ये दर्शकों का मनोरंजन करेंगे और उक्त चैनल का टी आर पी बढायेंगे।
आइये , अब थोडी सी चर्चा इस वास्तविक तमाशे से जुड़े लोगों की नियत को परखें।
सबसे पहले उस माँ-बाप की नीयत को जानें जिन्होंने अपने बच्चे इस तमाशे के लिए दिए हैं। उन्हें जानवर कहना , मेरी समझ से जानवरों की तौहीन है। वे नौनिहाल, दुधमुंहे शिशु अपने माँ-बाप को पैसा कमा कर देंगे। तय है कि वे बच्चे अमिताभ बच्चन बनने का ख्वाब नहीं देखते होंगे। लेकिन माँ-बाप उनके द्वारा कमाए गए पैसे को गिन कर आनंदित तो अवश्य होते होंगे।
कोई किसी बच्चे से भीख मंगवाता है, श्रम करवाता है तो बहुत से लोग उन कृत्यों का विरोध और निंदा करने को सामने आते हैं। इन नौनिहालों का जब टी आर पी बढ़वाने में इस्तेमाल किया जा रहा है तो वे लोग किस गुफा में छिप गए है।
जब अपराधियों और आतंकवादियों को यातना दी जाती है तो मानवाधिकार वाले अपना झंडा उठा कर फटाफट पहुँच जाते हैं कि अमानुषिक यातना न दिए जाएँ तो अभी जब निकम्मे सेलिब्रिटी के हाथों अबोल शिशुओं का तमाशा बनाया जा रहा और सारे संसार के लोग टीवी पर बैठकर तमाशा देख रहा है -ऐसे में कहाँ हैं मानवाधिकार के कार्यकर्ता ?
कहाँ हैं वे लोग जो पशु के साथ दुर्व्यवहार होने पर आसमान सर पे उठा लेते हैं वे इन शिशुओं को चीखने चिल्लाने के लिए भेजे गए बच्चों के लिए क्यों नहीं कुछ करते?
सरकार इस तरह के नृशंस ' रियलिटी शो' के खिलाफ क्यों नहीं कोई कानून बना रही।
हे प्रभो! मनुष्य पैसा बनाने के लिए और कितना अधोपतित होगा ?
हे ईश्वर! किसी को भेजो या तुम ही किसी रूप में आओ और इन दुधमुहे नौनिहालों को इन भेड़ियों से बचाओ।
मनोरंजन के लिए मनुष्य इतना अमानुषिक हो सकता है- कभी सोचा न था।

सोमवार, 31 अगस्त 2009

अनगढ़ कथा कहूँ केहि भांती


हर वास्तविकता को रोचक बना कर प्रस्तुत किया जाय यह सम्भव नहीं है किंतु हमारे प्रिय और जागरूक श्रोता और पाठक बिना रोचकता के कुछ भी सुनने -पढने को तैयार नहीं होते। इन्हें चाहिए कुछ मजेदार , कुछ चटपटा।
मसलन, किसी के दुःख-तकलीफ को चटखरा बना कर रखा जाय तो थोड़ा सा रस मिलता है। कभी हास्य-रस तो कभी करुण-रस।
किसी की जिन्दगी में कुछ बुरा होता है तो हम साहित्यिक लोग अधिक ही उत्साहित दिखाई देते है , जाने क्यों ?
लेकिन मित्रो !
वास्तविकता बड़ी बेडौल और अनगढ़ होती है जो बहुधा रोचक और रस-दार नहीं होती है। आत्मकथात्मक आलेख प्रायः वैसा ही होता है।
नमस्कार

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

मैं किसी को चिट्ठी लिखना चाहता हूँ

मैं ब्लॉग क्यों लिखता हूँ ?
मुझे किसी को चिट्ठी लिखना बड़ा ही भाता है। किसी की चिट्ठी आती थी तो मैं उसे दो बार तीन बार पढता था फिर चैन से , पानी पी-पीकर लम्बी , कई-कई पृष्ठों की चिट्ठियां लिखा करता था। लेकिन यह बात है मेरे बचपन की। ( यकीन कीजिए मैं भी बच्चा था ) लेकिन बुरा हो मुआ इस फोन और मोबाइल का । चिट्ठी की , प्रिय जनों की चिट्ठी की तो मौत ही हो गई , समझिए। बस , कभी कभी सरकारी , कागज वगैरह आते रहते हैं। ऐसे में जब ब्लॉग से परिचित हुआ तो कुछ राहत सी हुई।
पूरा संतोष फिर नहीं हुआ ?
कैसी बातें करते हैं जी आप ! आप को पता ही नहीं कि आप चिट्ठी लिख किसे रहे हैं तो क्या आपको लिखने का संतोष मिलेगा। हमारे ज्यादे ब्लॉग प्रेमी भाई-लोग हलकी फुल्की निरर्थक बकवास सुनना -सुनाना पसंद करते है। उन्हें चाहिए चुटकुले , गोसिप , चुगली... वगैरह वगैरह ।
तो फिर ?
तो फिर , जब भी मैं कुछ लिख रहा होता हूँ तो मेरे मन में 'कोई तुम ' अवश्य रहता है। बिना तुम की उपस्थिति के कोई भी सार्थक रचना हो ही नहीं सकती है । हार्दिक धन्यवाद ओ मेरे तुम ! सभी पोस्ट तुम्हें ही समर्पित ।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

मिडिया, फिल्मी-लोग और हम

साफ-साफ कहना तो थोड़ा मुश्किल है कि असलियत क्या है ? फिर भी चारों ओर एक तरह के चारित्रिक स्खलन की गंध तो आ रही है। अब, चूँकि मिडिया से कमोबेश सभी रूबरू हो जाता है इसलिए पहला ठीकरा उसी के सर फोड़ा जाता है। और फिर देखा जाए तो बात बेबुनियाद भी नहीं है।
अब शाहरुख़ खान वाली बात को लीजिए। वह कौन है ? एक नाचने - गाने वाला नचनिया , जो इसके बदले कुछ अधिक पैसा लेता है। कोई एतराज़ ? वह इतना जरूरी कैसे हो जाता है कि उससे राष्ट्रिय अस्मिता जुड़ जाती है ।
सप्लीमेंट में जिसका फोटो छापना उचित है - वह मुख्य पृष्ठ पर छप जाता है ? उसे किसी विदेशी हवाई अड्डे पर पूछ - ताछ हो ही गई तो इसमे कौन सा पहाड़ टूट पड़ा ?
रस्ते पर नाचते गाते बच्चे आपको भिखारी नज़र आते हैं और उसका स्तर आप सामान्य आदमी से नीचे रखते है , लेकिन ये नचनिये आपको राष्ट्रिय- अस्मिता के प्रतिनिधि और पुरोधा नज़र आते हैं , क्यों?
ये न नेता हैं , न चिन्तक और न ही विद्वान् - ये हैं नाचने गाने वाले ऐसे छोटे लोग जिनकी नज़र में पैसा के आलावा कुछ मायने नहीं रखता है। इन्हें राष्ट्र की प्रतिष्ठा या अस्मिता से जोड़ कर न देखा जाय क्योंकि काले-धंधे वाले लोगों से इनकी साठ-गांठ होने की अफवाह भी धड़ल्ले से उडा करती है।
मुझे एतराज़ है - इस तरह के लोगों को राष्ट्र-पुरूष कहे जाने से । किसी को इनके प्रति बहुत अधिक श्रद्धा है तो
इनकी तस्वीरें बाप की फोटो की जगह लगायें ।
मिडिया के लोगो से पूछा जाता है कि भाई ! आप लोग इस तरह के घटिया को इतना क्यों दिखाते हैं ? उन्हें .....
वे जवाब देते हैं- औडिएंस ऐसा ही कुछ देखना चाहती है, हम क्या करें, हमें मुनाफा चाहिए।
लोगों से पूछिये तो कहेंगे कि अरे मत पूछिये अब तो परिवार के साथ टीवी देखना मुश्किल हो गया है , पता नहीं क्या दिखाते रहते है !
खैर! सचाई जानना न तो आसान है , न जरूरी - जरूरी है संस्कृति समीक्षा , कि आखिर इस पतन ( परिवर्तन ) की जड़ कहाँ है ?
कुछ गड़बड़ तो है, जिसे शायद ठीक नहीं किया जा सकता।

बुधवार, 5 अगस्त 2009

'रियलिटी शो ' की रियलिटी(सच्चाई)

इन दिनों बहुत सारे हिन्दी चैनलों पर ढेर सारे " रियलिटी शो" प्रसारित हो रहे हैं, हो चुके हैं। इनमे कौन बनेगा करोड़पति , इंडियन आइडल , बिग बॉस , ख़तरों के खिलाड़ी, राखी का स्वयंवर वगैरह हैं। इसकी रियलिटी पर चर्चा अभी थोडी देर बाद करेंगे पर यह एक इसी की सच्चाई है कि इसे देखने को शहरी मध्य-वर्ग का बड़ा जत्था जन लगाये रहता है। इसी सच्चाई के बल पर इन्हें विज्ञापन मिलते हैं और इन्हीं विज्ञापनों के बल पर यानि पैसे बनने के लिए चैनल और निर्माता इस तरह के शो याने तमाशा बनते और दिखाते हैं। इनमे कोई मैसेज नहीं होता , कोई सामाजिक सरोकार नहीं होता - शुद्ध तमाशा होता है। लेकिन ये कार्यक्रम टीआर पी रेटिंग से बहार नहीं होता - उसी का मोहताज होता है। इन सबके बावजूद इस तरह के तमाशों का दर्शक " परम असंतुष्ट महान भारतीय मध्य-वर्ग " ही होता है जो अपनी वर्तमान स्थिति से गहरे तक प्रताडित होता है। इन दर्शकों के असंतोष कई तरह के होते है, मसलन , कोई अपने दाम्पत्य से असंतुष्ट है, कोई वित्तीय स्थिति से, तो किसी को लगता है कि उसकी प्रतिभा को पहचाना नहीं गया । सबब अलग-अलग होते हैं - मर्ज़ कोई एक है, असंतोष। यहाँ मेरा कहना है कि रियलिटी शो को देखने से कहीं अधिक रोचक और मज़ेदार है रियलिटी शो को देखने वालों को देखना । मौका मिले तो कभी गौर से इन्हें भी अवश्य देखें, विश्वास दिलाता हूँ मज़ा ज़रूर आएगा । दर्शक पहले -दूसरे एपिसोड में अपना निर्णय बनता है और उसीको देखता हुआ पूरा सीरिज बिला नागा देख जाता है । उसकी जीत में अपनी जीत देखता है और उसकी हर में भ्रष्टाचार देखता है। अब थोडी चर्चा 'शो' की रियलिटी की , षडयंत्र की करते हैं।



इसके विजेता को बहुधा एक-दो करोड़ , पचास लाख जैसी बड़ी रकम देने की बात की जाती है। जो भी जीतेगा उसे मालामाल कर दिया जाएगा । अर्थात यह एक तरह की प्रतियोगिता है जिसमें किसी एक को जितना है । उस एक की जीत में पूरा "हिंदुस्तान" ( उनके कहे अनुसार ) शामिल होता है। और सचमुच हिन्दुस्तानी चिरकुटों का बहुत बड़ा जत्था भूखे पेट, खाना खाकर या खाना खाते हुए भिड़ा रहता है। हमने देखा है कि रियलिटी शो सामान्यतः दो तरह के हैं: एक जिसमे एक या दो -तीन सेलेब्रिटी होते हैं जो ख़ुद जीतने या हारने के लिए नहीं आए होते हैं बल्कि जीत हार विवाद से बचाने ( सही मायने में विवाद पैदा करने ) के लिए आए होते हैं और कुछ अन्य आम-आदमी , जो प्रतिभागी होते हैं। दूसरे तरह के शो में कुछ बूढे और परित्यक्त से सेलिब्रिटी होते हैं जो वहां जाकर फिर से चर्चा में आने की जुगत करते हैं।



जिन शो में कथित आम-आदमी शामिल नहीं होता , वे तुलनात्मक रूप से कम हिट होता है। लेकिन जिसमे आम-आदमी को महान बनाने का नारा होता है वह अधिक लोकप्रिय होता है। कौन बनेगा करोड़पति, इंडियन आइडल , सा-रे-गा-मा-पा, वगैरह इसी तरह के शो थे / हैं। राखी का स्वयंवर भी कुछ इसी तरह का था , किंतु इसमें राखी सावंत की अपनी कमाई हुई प्रसिद्धि भी शामिल थी।



इस तरह के रियलिटी शो हर आम शहरी को स्टार बनाने का वादा करता है , इस लुभावने सपने से दिग्भ्रमित करता है और लोग खुली आंखों ऐसे सपने देखते हैं। शो में चुने जाने की उम्मीद में आए लाखों बेवकूफों की भीड़ को अक्सर दिखाया जाता रहता है। जो आने का मौका जीतता है, वह जग जीतता है । उसके बाप,माँ, पति, पत्नी, बहन , भाई वगैरह को आप शो के दौरान कैमरों में देख सकते है - रामानंद सागर के सीरियल के बंदरों की तरह उनकी आंकें चमकती रहती है। ये रिश्तेदार कौन होते हैं? शो में भाग लेने वालों के आम आदमी होने का सबूत होते हैं। रोना , हँसना , हँसी-मजाक इसके मसाले होते हैं। और एक बार ' भयानक-विवाद ' को अंजाम दिलाया जाता है ताकि प्रमाणिकता की ग़लत फहमी बनी रहे। इस तरह के सीरियलों में जजों का भी अपना ही एक अलग जायका होता है। ये लो केमिस्ट्री की बातें बहुत करते हैं ।
संक्षेप में , इस तरह के रियलिटी-शो , इसके निर्माता और जज -- भाग्य-विधाता बनने का षडयंत्र रच रहे हैं और सपने की दुनिया में जीने वाले खासो-आम शहरी ख़ुद को , अपने बच्चों को उन विधाताओं के हवाले कर रहे हैं, उनके हाथ की कठपुतलियां बना रहे हैं। दोष शो बनने वालों का है या जजों का है या चैनल का या आपका और हमारा है।
हमें याद रखना होगा कि वे बाज़ार में खड़े हैं मुनाफा कमाना उनका एक मात्र ध्येय है। एक बदसूरत सी लड़की के स्वयंवर का तमाशा कई करोड़ का व्यवसाय कर जाता है और आप इलेश और मानस में तुलना करते रह जाते हैं।


गुरुवार, 30 जुलाई 2009

अर्चना वर्मा ने अशोक चक्रधर को विदूषक कहा और सही कहा

दिल्ली हिन्दी-अकादमी के मद्देनज़र इन दिनों अख़बारबाजी बड़ा ही मज़ेदार रहा। कोई बयान दे रहा है तो कोई इस्तीफा दे रहा है और तो कोई अपने पिछले बयान का सही मतलब बता रहा है।
दूध का धुला कोई नही है, यह तो जगजाहिर है।
फिर भी अशोक चक्रधर को अकादमी का उपाध्यक्ष ( क्योंकि मुख्यमंत्री पदेन अध्यक्ष होता है) बनाया जाना मुझ जैसे बहुत लोगों को अजीब लगा । इसका कारण साफ है । चक्रधर जी कवि नही, हास्यकवि है। साहित्यिक लोग उसे साहित्यकार नही मानते। हाँ! इतना तो तय है कि टीवी पर वैसे ही जोकरों को कवि कहा-माना जाता है।
इस बात से मुझे तब कोफ्त होती है जब कुछ चू..... किस्म के लोग अपने को कविता का श्रोता बताते हुए टीवी कार्यक्रमों का हवाला देते हैं जहाँ कुछ भांड अपने-अपने करतब दिखाकर आए हुए अर्ध-शिक्षित किरानी टाइप लोगों का मनोरंजन करते है। अशोक चक्रधर उन्हीं भांडों का मुखिया है।
तय है कि इस्तीफे का कारण कुछ और होगा । लेकिन अर्चना वर्मा के द्वारा श्री अशोक जी चक्रधर को विदूषक कहा जाना बड़ा ही वाजिब और मौजूं लगा।
यदि दिल्ली हिन्दी अकादमी को " हास्य-कवि सम्मलेन " में तब्दील करने की दूरगामी योजना यदि सरकार की नही है तो सचमुच इन फूहड़ जोकरों से हिन्दी-अकादमियों को अवश्य बचाया जाना चाहिए।
अंत में, अर्चना वर्मा का मैं विशेष धन्यवाद करता हूँ जो उन्होंने सही व्यक्ति के लिए उचित उपनाम सुझाया। हालाकि विदूषक नाटक में कम महत्त्वपूर्ण होता है ऐसा नहीं है , तो उसको नायकत्व नहीं दिया जा सकता।

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

मैं और मेरी पहचान

मेरी पहचान मेरी संस्कृति से होती है ?
या मेरी संस्कृति की पहचान मुझसे होती है ?

ये दो छोटे-छोटे मौलिक प्रश्न मुझे बेहद परेशान करते हैं। मैं जब स्वयं को पहचानने का यत्न करता हूँ तो मुझे कुछ आध्यात्मिक यानि कुछ अन्दर की यात्रा करनी पड़ती है। दूसरे शब्दों में, मुझे अपनी चेतना का मुआयना करना पड़ता है। यहाँ दिक्कत यह आती है कि उसी चेतना से उसी चेतना को देखना पड़ता है। यानि दृश्य और द्रष्टा एक। यह कैसे होगा! कुछ दिक्कत है।

दूसरा विकल्प है कि मैं कहूँ कि मैं अपनी चेतना से संचालित कार्यों का मुआयना अपनी चेतना द्वारा करता हूँ। स्वयं को पाने का स्थान है - अपने चेतन कार्य। आप स्वयं को जानना चाहते हैं तो अपने चेतन कार्य में स्वयं को खोजें। चेतन कार्य यानि वे कार्य जिनमे आपका संकल्प बिना किसी दबाव के शामिल है। अस्तु!
आप या कोई मुझसे पूछे कि मैं कौन हूँ । तो मुझे क्या उत्तर देना चाहिए ?

मैं बहुधा इस प्रश्न के उत्तर में
कभी अपना नाम बताता हूँ
कभी अपना पेशा बताता हूँ
कभी घर का पता तो कभी उस आदमी का नाम जिसने मुझे भेजा होता है,
इस तरह से मेरा काम चल निकलता है, कुछ ऐसे जैसे सामने वाले व्यक्ति को मेरे बारे में पूरी जानकारी मिल गई हो।
अभी -आजकल बायोडाटा का जमाना है । हम ख़ुद को एक या एक से अधिक पृष्ठ का बायो-डाटा के माध्यम से दूसरे को जनाते है ।
किंतु मुझे वे लोग बड़े क्रेजी और होशियार मालूम होते है जो प्यार करते है और एक दूसरे को आंखों - आंखों में ही जान लेते है।

अंत में , मुझे लगता है कि मेरा परिचय अथवा मेरी पहचान दूसरो की जरूरत और मर्जी पर अधिक निर्भर है । हालाँकि हम इसे बदलने की पूरी कोशिश करते है और थोड़े बहुत सफल भी होते हैं।

बुधवार, 1 जुलाई 2009

कालिदास का सौंदर्य-सम्बन्धी ऊहापोह

कालिदास के विश्व-प्रसिद्ध नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम के दूसरे अंक में नायक दुष्यंत अपने मित्र को अपने ह्रदय-सम्राज्ञी शकुन्तला के सौन्दर्य के विषय में कुछ बता रहा है। यह नाटकीय स्थिति है। वास्तविक स्थिति कुछ और है और वह है कि स्वयं कालिदास सौन्दर्य-चिंतन कर रहे हैं। उनके मन में प्रश्न है कि सबसे सुंदर कौन है ? और वह सबसे सुंदर कहे जाने का अधिकारी कैसे है? इन्हीं प्रश्नों से जूझता हुआ यह श्लोक है। इसमें शायद इस उलझन को सुलझाने का प्रयास भी है। श्लोक कुछ इस तरह है :
चित्रे निवेश्य परिकल्पितसत्त्वयोगा ,
रूपोच्चयेन मनसा विधिना कृता नु ।
स्त्री -रत्न- सृष्टिरपरा भाति मे सा
धातुर्विभुत्वं अनुचिन्त्य वपुश्च तस्याः ।। प्रति
इसका भाव कुछ इस तरह है :
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने शकुन्तला की सृष्टि करने से पहले पूरे मनोयोग से रूप का खजाना लेकर पहले तो उसका चित्र बनाया होगा। चित्र में भूल सुधार की गुंजायश होती है। खैर, दुष्यंत के मुख से कालिदास कहते है कि चित्र की सभी असम्पूर्णता को दूर कर फिर उसमे प्राण-प्रतिष्ठा की गई सुंदर सुंदर। स्त्री-रत्न के रूप में वह मुझको अद्वितीय प्रतीत हो रही है। विधाता ने अपनी सारी विभूति का प्रयोग करके उसके सुंदर शरीर की रचना की। नायक दुष्यंत कह रहे हैं कि शकुन्तला चित्र-लिखित की भांति सुंदर है। अर्थात सौन्दर्य का पैमाना चित्र है। चित्र स्वयं विधाता की रचना से भी श्रेष्ठ होता है।कवि कालिदास शकुन्तला को सबसे सुंदर स्त्रीरत्न के रूप में प्रस्तावित कर रहे हैं और शायद उन्हें सबसे सुंदर कह देने से संतोष नहीं हो रहा । स्थिति आसान नहीं है। इसलिए उन्होंने चित्र दृष्टान्त से बात कर रहे हैं।खैर , ये तो कालिदास का ऊहापोह रहा , आइए थोड़ा सा हम विचार करें।मैं आपसबसे एक सवाल करता हूँ।चित्र ( अनुकरण ) बेहतर होता है अथवा चित्र की वस्तु यानि जिसका चित्र बनाया गया ?सवाल बड़ा गंभीर है ।यदि आप लोगों को यह मसला विचार करने लायक लगे तो विमर्श जारी रहेगा (जिसकी उम्मीद बहुत कम है, लोग ब्लॉग पर सस्ती और हलकी बातें पसंद करते हैं , ऐसी पकाऊ और गहरी बातें नहीं, इसलिए ) इसकी सम्भावना कम है। तथापि मेरा निवेदन है कि आप विचार करें और मुझे भी अवगत कराएं।

शनिवार, 6 जून 2009

कविता, ओ कविता

हमारे ब्लॉग का नाम है कविता-समय , लेकिन हमने इस पर एक भी कविता नहीं रखी। लेकिन आज कविता को आपके सामने शर्मो-हया की दीवार तोड़ कर लाऊंगा ( वैसे आप मेरी कवितायें मेरे दुसरे ब्लॉग " अलक्षित" पर तो पढ़ते ही होंगे - आज पहली बार कविता आएगी ' कविता-समय' पर )

कविता , ओ कविता!
मुझे मालूम है कि तू न तो मेरी प्रेमिका है
न पत्नी या रखैल
माँ, बहन या बेटी .........
तू तो कुछ भी नहीं है मेरी
मुझे तो यहाँ तक भी नहीं पता है
कि तुझे मेरे होने का अहसास है भी या नहीं
फिर भी , मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता
कि तू क्या सोचती है मेरे बारे में
या कुछ सोचती भी है या नहीं
लेकिन जब कोई मनचला करता है शरारत तेरे साथ
मेरा जी जलता है
जब कोई गढ़ता है सिद्धांत
कि नहीं है जरुरत दुनिया को कविता की
तो जी करता है
बजाऊँ उसके कान के नीचे जोर का तमाचा
ओ कविता !
तेरे बगैर दुनिया में
आदमजात इन्सान रहेंगे
प्यार को अलगा पाएगा इन्सान
पशुवृत्ति सम्भोग से
शब्दों की सर्जनात्मिका शक्ति बची रह पायेगी तेरे बगैर
ओ मेरी कविता रानी!
बिना कविता के सारे आदमजाद हैवान नहीं हो जायेंगे
मैं नहीं करता इंकार
कि बदले हैं मायने इंसानियत के
बाजार ने बना दिया हर चीज को पण्य
तुम्हे भी दल्ले किस्म के हास्य-कवियों ने
बना दिया है सस्ता नचनिया
लोग खोजते हैं कविताओं में गुदगुदी और उत्तेजना
तो भी ओ कविता,
मैं करता भी हूँ
और दिलाता भी हूँ तुम्हे यकीन
कि प्यार और कविता का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता
चाहे सटोरिये, चटोरिये, पचोरिये -
लगा लें कितना भी जोर
मुझे अहसास है
कि जिस भी दिल में साँस लेती होगी इंसानियत
उस दिल में तुम्हारा कमरा होगा ज़रूर ।
कविता, ओ कविता !
एक बार ज़रा मुस्कुरा दो जी खोल कर ।

सोमवार, 1 जून 2009

माधोप्रसाद की छोटी सी दुनिया

अब आप लोगों के लिए माधोप्रसाद अपरिचित नही रहे। पढ़े-लिखे अच्छी नौकरी करने वाले और विचार से प्रगतिशील मनुष्य हैं । कुछ बातें , माधोप्रसाद के विषय में , स्पष्ट कर देना चाहता हूँ :
१) माधोप्रसाद सर्व-स्वीकृत मनुष्य हैं, यानि किसी को कोई शक-शुबहा नहीं है उनके आदमजाद होने पर।
२) माधोप्रसाद की एक पत्नी है ।
३) माधोप्रसाद का एक ससुर भी है, जो रिटायर्ड है। माधोप्रसाद के अनुसार , ससुरे के पास बहुत माल है। यह विश्वास माधोप्रसाद के लिए बेचैनी का सबब है।
४) माधोप्रसाद अपनी पत्नी को मुर्ख और खुबसूरत मानता है।
५) माधोप्रसाद का एक बाप भी है जो जीवित है ।
६) माधोप्रसाद के तीन और भाई हैं ।
७) जैसे माधोप्रसाद का बाप सचमुच माधोप्रसाद का बाप ही है, वैसे ही भाई भी इसके भाई ही हैं।
८) माधोप्रसाद अपने को बहुत होशियार समझता है ।
९) माधोप्रसाद अपनी होशियारी या चालाकी या कमीनापन या इस तरह का और कुछ भी .... सब तिकड़म -अपनी पत्नी, अपने ससुर, अपने बाप और अपने भाइयों पर ही आजमाता है ।
कहना न होगा , माधोप्रसाद अपने काम में पूरी तरह सफल है - तो भी माधोप्रसाद दिन-रात, सुबह-शाम, जब-तब अपने इन्हीं लोगों को उल्लू बना कर लूटने के सपने देखता है और योजनाएं बनाता है ।
यही माधोप्रसाद की छोटी सी , प्यारी सी दुनिया है। माधोप्रसाद अपनी उस दुनिया में खूब तरक्की कर रहा है। माधोप्रसाद को आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि उसके दोस्त मित्र उससे ईर्ष्या करते है ।
१०) माधोप्रसाद शर्म को कमजोरी मानता है , वह शर्म की दीवार को पार चुका है। बेशर्म होने को सफलता की कुंजी मानता है।

गुरुवार, 21 मई 2009

अकेलापन से बचने के लिए चीखो, और जोर से चीखो

टेंशन सामान्यतः अकेलेपन का दुष्परिणाम है। अकेलापन कई तरह का होता है। सभी अकेलापनों में वह अकेलापन कि आप बहुत सारे अपनों के बीच रहते हैं लेकिन आपको सुनने वाला , आपको समझने वाला कोई नहीं है। इस तरह के भीड़ के अकेलापन से निजात पाने का रास्ता है कि आप सचमुच अकेले हो जाएँ।
हमारे समय का एक अजब ही दस्तूर है। सभी आपको अपनी बात बताना चाहते हैं। आपके पास ही, मानो, सबसे अधिक धैर्य है कि आप उनकी बात सुनेंगे भी और समझेंगे भी। हाय रे जमाना !
और वहां जहाँ सचमुच आप दो ही व्यक्ति यानि मियां-बीबी या पति-पत्नी रह रहे हैं और दो में से कोई एक अपने जीवन-साथी को नहीं सुन रहा या सुनकर भी नहीं समझ रहा। वहां तो स्थिति और अधिक दारुण है। उन दो अंतरंगों में किसी तीसरे ने (वह तीसरा चाहे कोई हो) प्रवेश किया तो अकेलापन और बढ़ता है, बढ़ता ही जाता है।
एक और प्लेटफोर्म है अकेलापन पैदा होने का- वह है आपका कार्यस्थल यानि ऑफिस । प्रतियोगिता ने इंसानों की नाक में दम कर रखा है। और प्रतियोगिता भी कैसी-कैसी ? आपने कभी सोचा न था जैसे, .......... अपने अपने अनुभवों से समझ लें ।
अकेलापन के और भी कई प्लेटफोर्म है ।
इसी तरह इस अकेलापन की कई और वज़हें भी हैं।
इस स्थिति की वज़ह से डिप्रेसन आदि भयानक बीमारी भी अपना घर आप में बना लेती है। फिर हम मनोचिकित्सकों की सेवा लेने पहुँचते हैं। पता ही होगा कि उनकी दुकान इन दिनों खूब फल-फूल रही है।
यहाँ मैं एक मशविरा देना चाहता हूँ , बिना मांगे ही।
१ ) अकेलापन जब अनिवार्य हो जाय तो उसे बेबसी नहीं शौक बना लेना चाहिए।
२ ) अन्दर की दुनिया बाहर की दुनिया से अधिक खुबसूरत होती है, यकीन मानिये ।
३ ) आखिरी रामबाण नुस्खा-
चीखो , जोर जोर से चीखो , आवाज़ में इतनी तासीर और तल्खी भर दो कि तमाम बलाओं से तुम्हारी रक्षा तुम्हारी ख़ुद की आवाज़ करे।

सोमवार, 18 मई 2009

जाति, धर्म और क्षेत्रवाद से राजनीति की मुक्ति के आसार

पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के नतीजों को देख कर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत की जनता उन थोथे भारतीय समाजवादियों से मुक्ति चाहती है जो सिर्फ़ जाति और धर्म जैसे भड़काऊ और संवेगात्मक मुद्दों के सहारे चुनाव जीत जाया करते रहे हैं। इस बार के चुनावी नतीजों में सर्वश्री रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, कुमारी मायावती की ( निजी ) पार्टियाँ तथा भारतीय जनता पार्टी की राजनितिक अवनति हुई है ।

ये नेता प्रारम्भ में कथित रूप से पिछडे और दलित जातियों और वर्गों की हिमायत करते हुए राजनीति में दाखिल हुए। उक्त विशेष जातियों और वर्गों की जनता ने इन्हें हाथों हाथ लिया भी। चुनावी विशेषज्ञों की भाषा में जाति और धर्म कुछ इस तरह शामिल हो गया कि भारतीय चुनाव का मतलब सिर्फ़ जातीय समीकरणों का संतुलन- असंतुलन है। स्थिति कुछ भयानक और अंतहीन सी प्रतीत होने लगी थी। मानों भारत में जाति के आलावा कोई और सत्य है ही नहीं।

अपना भला चाहना बुरा नहीं है। विशेष वर्ग की जनता अपने भले की चाह में इन नेताओं को उत्साह के साथ जिताती भी रही। उपर्युक्त सभी नेता उसी जाति-वादी समाजवाद की छत्रछाया में पनपे हैं। जाति के नाम पर मतवाली हुई पड़ी जनता के मतों से जीत-जीतकर ये नेता अपने मतदाताओं को ही बेवकूफ समझने लगे। इन्हें सत्ता के सुख का स्वाद लग गया। ये नेता लोग जनता को अपनी निजी संपत्ति समझने लगे।

चुनावी विश्लेषकों का कहना कि अमुक नेता को अमुक जाति का वोट मिलेगा- इन्हें सच लगने लगा। उन विशेष वर्गों के वोटर इन नेताओं के साथ इसलिए थे कि उन्हें उम्मीद थी कि ये नेता उनके वर्ग को भला चाहते हैं। लेकिन महान जातिवादी मतदाताओं को जब यह भान हुआ कि इन्हे हमारे उत्थान से नहीं , अपने उत्थान से ही मतलब है तब वाही भटकी हुई जनता चौंक कर जग उठी है।

दोस्तों! यह शुरुआत है। सन १९८९ में यह जातिवादी समाजवाद भारतीय राजनीति के आकाश पर दहकते हुए नक्षत्र की तरह उभरा - बीस वर्षों तक चमकता रहा । परिणाम ?

रामविलास पासवान का रिकार्ड वोट से जीतना और फिर हार?

गुरुवार, 14 मई 2009

माधोप्रसाद के चरित्र के विषय में

माधोप्रसाद कोई अनोखा अजूबा या अनदेखा सा आदमी नहीं है । आपने भी अवश्य देखा होगा उसे। आपको यकीन नहीं आता? चलिए , मैं आपको अभी मिलवाता हूँ।
दोस्तों ! दरअसल मैं आप लोगों की अनुमति और अनुशंसा चाहता हूँ। यदि आप लोगों की आज्ञा होगी तो मैं आप सबको माधोप्रसाद की बहुत सारी कहानियाँ सुनाना चाहूँगा। सिलसिलेवार, धारावाहिक की तरह।
इसका कारण बस इतना है कि माधोप्रसाद है ही इतना प्यारा कि आप भी जानेंगे तो आप भी उससे प्यार कर बैठेंगे । अरे! नज़र घुमा कर देखिये - आपके बगल में ही कोई माधोप्रसाद खड़ा होगा।
चौंकिए मत , मोधोप्रसाद किसी व्यक्ति का नहीं, प्रवृत्ति का नाम है।
तो फिर आप सब मुझे अनुमत करें तो मैं मधोपसाद की नई कहानी आपके नज़र करूँ!

शनिवार, 9 मई 2009

माधो प्रसाद के ससुर की कार

वैसे तो माधोप्रसाद दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी कोलेज के प्रोफेसर हैं । अच्छी खासी तनख्वाह है , प्रेम विवाह किया है सो वाइफ भी कमाऊ है । लेकिन उनके प्रेम विवाह का समाजशास्त्र तनिक अनोखा है।

जब प्रेम करने की प्रक्रिया में थे तो उन्होंने ढंग से पता किया -ससुरों के बारे में तो साफ हुआ कि ससुरे की बस को बेटियाँ ही बेटियाँ हैं लेकिन ससुरे ने ठीक ठाक दौलत इकट्ठी कार रखी है -मन ही मन मुस्कुराकर माधोप्रसाद ने प्रेम को परवान चढाया ।

ससुर पर दबाव बनाने के लिए पत्नी को उल्लू बना कर शादी के बाद भगाया ।

भाग्य का जुदा खेल -

बिना किसी उठा पटक के सब मामला शांत हो गया ।

छः -सात साल पुरानी मारुती-८०० पड़ी हुई थी ससुरजी के पास बिना काम की , सो उन्होंने माधोप्रसाद पर कृपा करते हुए गिफ्ट किया ।

लेकिन माधोप्रसाद ठहरे कम्युनिस्ट सो दोस्तों से बताया कि ससुर से ख़रीदा है। खैर , इस बात के तो कई साल हो चले यानि ४-५ साल ।
ससुर ने पिछले साल खरीदी थी आई टेन।
माधोप्रसाद की नींद साल भर उडी रही, मन बेचैन रहा कुछ जुगत सूझ ही नही रहा था कि किसतरह इस नए कार को हड़पे । वह बेचारी कार भी ससुरे के यहाँ इंटों पे खड़ी रहती, जालिम रिटायर्ड आदमी जाए तो कहाँ जाए ?
माधोप्रसाद को दिन को चैन, न रात को नींद ।
उसने अपनी उस मुर्ख पत्नी को और अधिक मुर्ख बनाने का षड़यंत्र किया। जाकर उसने अपने बाप से कहा कि कार इन्हे दे दो आप तो कहीं आते जाते हो नहीं
पिता ने बेटी की बेवकूफी को समझते हुए कहा कि बेटे, ये कार तो कल ही चोपडा को बेच डाला - अब तो बस एक रास्ता है कि माधोजी पैसे का इनजाम करें तो चोपडा को कार न देकर तुम लोगों को ही दे दूँ । पैसा और कार दोनों घर में ही रह जाएगा ।
अच्छे दिखने की मज़बूरी में माधोप्रसाद को ससुर की कार का वाजिव से अधिक दम देना पड़ा किश्तों में।
शुरू में माधो ने सोचा कि थोड़ा सा पैसा देता हूँ और बाद में देने के नाम पर कार हड़पता हूँ। लेकिन ससुरा तो ससुरा ही निकला, कहा- माधोजी आपमें और मुझमे कोई फर्क तो है नहीं , दिक्कत तो चोपडा है , उसे कैसे समझाऊंगा ।
कमीना माधोप्रसाद खेल तो सब समझता था ,पर बेचारा करे तो क्या करे!
बाज़ार-भाव से ज्यादा पैसा भी देना पड़ा ।
आसपास यही बात फैली कि माधोप्रसाद झूठ बोल रहा है - ससुर कभी पैसा लेगा।
वैसे माधोप्रसाद प्रोफेसर है और कम्युनिस्ट भी है , दहेज़ के सख्त खिलाफ हैं।

सोमवार, 4 मई 2009

खाना बनाना भारत में एक कला है (क्रमशः)

[तो अरुणा जी ने कहा, माफ़ नहीं करेंगे। हमने कहा यह भी खूब हुआ - सज़ा तो मिलेगी। आसान नहीं है कुछ भी पा लेना चाहे सज़ा या इनाम। धन्यवाद अरुणा जी , माफ़ न करने के लिए। बन्धु श्री अनिल ने कुछ बाउंसर पकड़े । किंतु माफ़ करें, मैंने ...... खैर छोड़िए! सभी उतने खतरनाक थोड़े ही होते हैं कि माफ़ ही न करे]

तो मैं बात कर रहा था कि भारत में खाना बनाना कला है तो खाना खाना उत्सव ।
आपने भारतीय गृहणियों को देखा है कभी गौर से । कभी उनके चेहरे का वह संतोष देखा जो उनके चेहरे पर दूसरे को खाना खिलते समय झलकता है । नहीं, नहीं , इस बात को महत्त्व देंगे तब तो खाना बनाना एक तपस्या जैसी स्थिति हो जाएगी। वैसे भी भारतीय पुरूष को जीवन भर संतुष्ट रखना एक बेचारी सुकुमारी नारी के लिए तपस्या से कोई कम थोड़े ही है। मैं फिर बहक गया न ! रस्ते में इतना सुंदर बगीचा दिख जाएगा तो कौन नहीं भटकेगा - सिर्फ़ वही नही जो देखने में अक्षम है।
मैं हर उस की चित्र बना लेना चाहता हूँ जो मुझे भाता है- लेकिन नहीं बना सकता । पता क्यों ? क्योंकि चित्र बनाना जनता ही नही।
आइए मुद्दे पर आते है ।
आप याद करें कि खाने की कितनी चीजों का नाम ध्यान में है ?
आप कितने विलक्षण मस्तिष्क वाले होंगे बहुत सारे आयटम का नाम सुना ही नही होगा । ये सारी बात मैं उनसे नहीं कर रहा जो किताबें पढ़कर खाना बना कर सास को खुश करने का षड़यंत्र करती हैं। अब तो दोपहर का खाना , खास कर शहर के उन्नत परिवारों में, उस रेस्टोरेंट से आता है तो रात के डिन्नर के ख़ुद ही वहां चले जाते है। खाना बनाना पिछडापन माना जाता है , मैं उन लोगो से कत्तई मखातिब नहीं हूँ। माफ़ करें या न भी करेंगे तो चलेगा- गालियाँ भी चलेंगी।
इतिहास के पन्नों में आप आराम से पढ़ सकते है , संस्कृत के ग्रंथों में खोज सकते हैं खाना बनाना एक कौशल था।
याद है कि भीम, हाँ,हाँ, वही पांडवों में नंबर दो -पाककला में बड़े ही प्रवीण थे।
मैं एक गाँव में पला बढ़ा हूँ इसलिए जानता हूँ -
शादी विवाह के मौके पर बहुत सारे ऐसे पकवान मेहमान यानि समधी को परोसा जाता है जो सिर्फ़ तभी दीखता है या कहना चाहिए दीखता था। दादी माँ अब मर चुकी है -कभी कभी टीवी सीरियल में जो दादी या बा दिखती है वो नकली होती है। अब कोई मेरी दादी जैसी दादी कहाँ है जो भारतीय खाना बनाने की कलात्मक संस्कृति को बचा-बचा कर गाँठ बाँध कर रखे।
तो भी आप भारत की आत्मा गाँव में जाकर इस कलात्मकता को जी सकते है- जो व्यावसायिकता से अभी भी अछूते है - इसलिए पवित्र भी है।
अन्नपूर्णा उसी कला की देवी का नाम है।
बुफे सिस्टम और अपने हाथों से परोस कर खिलाने में जो फर्क है - वही फर्क खाना बनाने को व्यवसाय और कला कहने में है।
[आज मैं माफ़ी नही मांग रहा, खुल कर और जी भर सज़ा के लिए हाज़िर हूँ। ]

शनिवार, 2 मई 2009

भारत में खाना बनाना एक कला है

आज के विश्व में भारत की कोई बड़ी ऊँची साख नहीं है। अगर ऐसा होता तो दुसरे देशों में जाकर लोग ग्रीन कार्ड के चक्कर में न पड़ते। कोई न कोई तो कमी होगी ही तभी तो भाई लोग पहले तो फोरेन जाने के लिए जी तोड़ कोशिश करते है बाद में वहां से इंडिया को मिस करते है। हाय रे दैव!
आज के समय की एक और खासियत है और वह है कला का व्यवसायीकरण।
लोगबाग कला का व्यापर कर रहे हैं लेकिन उम्मीद कटे हैं कि उन्हें सम्मान भी मिले !
ये कैसे होगा ?
अख़बारों में छपता है कि अमुक नचनिया का रेट अब एक करोड़ हो गया और उस नाचनेवाले का सम्मान बढ़ जाता है। क्यों?
इसका जवाब किसी के पास न होगा क्योंकि खैरख्वाही लेने वालो का व्याकरण कुछ अलग होता है।
न जाने , मैं भी क्या बकबक करने लगा ?
बात थी खाने की और मै देखने चला गया नाच और तमाशा।
तो मैं बात कर रहा था खाना बनाना भारत में एक कला है ।
हो सकता है कि आप ने कभी भारत का गाँव देखा हो।
वहां हर कम कराती हुई स्त्रियाँ गाना गाती है -धन कूटती हुई , गेहूं पिसती हुई, ............... कर रही होती है मेहनत और मना रही होती है उत्सव ।
विद्वान् लोग और प्रोफेशनल लोग कह सकते है- उत्सवधर्मिता पिछडापन और गरीबी की निशानी है ।
माफ़ कीजिए ,
खाना बनाना सचमुच एक कला है । कैसे? यह भी मैं जरुर बताऊंगा लेकिन कभी और ।
आज और अभी के लिए मुझे माफ़ किया इसके लिए धन्यवाद।

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

आकृति भाटिया के हत्यारे!

स्कूल ने आकृति भाटिया को मरने दिया।
अब, स्कूल को, प्रशासन को, प्रशासक को आप क्या सज़ा मुक़र्रर करते हैं?
क्या स्कूल में पढने भेजे बच्चे के स्वास्थ्य आदि की जिम्मेदारी (निगरानी ) क्या माँ-बाप रख सकते हैं?
उन स्कूलों को , जिनकी मासिक वसूली करोड़ों की है, वे बच्चों की सुरक्षा, उनके कल्याण बगैरह की कितनी चिंता रहती है?
आपके बच्चे भी इस तरह के स्कूलों में जाते होंगे, विचार कीजिए ।
तय है कि स्कूल के मालिकानों का हाथ लंबा और तगड़ा होगा -
नेता, जज , पुलिस और समाजसेवी-संस्थाएं सभी उनकी जेब में पड़े होंगे !
उनका कुछ नहीं बिगडेगा -
फिर आप और मै इस तरह के लोगों-स्वार्थी और नीच लोगों को निंदा के नमक से गला डालेंगे।
आइए हम सब मिलकर अपील करें-
आकृति के हत्यारों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिले

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

तंत्र: स्त्रीतंत्र बनाम पुरूषतंत्र -2

तो फिर, सबको पता ही होगा कि तंत्र एक साधना है।
साधना का तात्पर्य साधक की सिद्धि में होता है। इस तंत्र- साधना में पुरूष साधक पञ्च मकार से साधना करता है। पञ्च-मकार यानि मन्त्र, मुद्रा , मत्स्य , मांस और मैथुन । पहला चार मकार सामाजिक दृष्टि से आलोचनीय नहीं है अत एव उस पर विचार के लिए तंत्र वादियों को आमंत्रित किया जाय। हमारा आलोचन तो सिर्फ़ मैथुन पर होगा क्योंकि इसमे आधा और आधा विश्व अर्थात पुरी दुनिया समाहित है। दुसरे शब्दों में, स्त्री और पुरूष। पुरूष साधक और स्त्री साधना का उपकरण । समकालीन सन्दर्भ में इसे समझने के लिए आप फैशन की दुनिया को देख सकते है जहाँ दिखती तो है स्त्री लेकिन हिट होता है कोई पुरूष (कोई स्त्री होती भी है तो उसे शक्ति स्वरूप पुरूष का छद्म रूप समझ सकते हैं।)
जारी...............

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

तंत्र: स्त्रीतंत्र बनाम पुरूषतंत्र-1

भारत की सभ्यता और संस्कृति अत्यन्त प्राचीन है। इतनी पुरानी कि इतिहासकार आपस में मतभेद करते रहते हैं। पुरानी चीजों,पुरानी बातों के विषय में तरह तरह की कहानियाँ-किम्बदंतियाँ मशहूर हो जाया करती है। सो भारतीय संस्कृति के बारे में भी बहुत कुछ मशहूर है। इनमे कुछ रोचक हैं, कुछ आकर्षक तो कुछ मन को खट्टा कर देने वाला। जो जिस तरह का पथ बनाना चाहता है- इन धुंधलाए इतिहास के पन्नों से बना लेते है। बेचारा इतिहास है ही इतिहासकारों के इशारों पर नाचने वाला ज़र-खरीद गुलाम।
(बातें जारी हैं )

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

शर्म कैसे आती है

मुझे अभी के अभी बता दो- शर्म कैसे आती है?
शादी करके जैसे दुल्हन ससुराल आती है
या जैसे कोई ट्रांसफर होकर नए दफ्तर में आता है
या जैसे नींद आती है यो जैसे हँसी या रोना आता है !
बताओ न !
बताते क्यों नहीं ?
मुझे भी देखना है कि शर्म कैसे आती है?
क्या वह हवाई जहाज पर उड़ कर आती है!
शर्म देखने कैसी है?
सोनल बुआ की तरह या मिनल भाभी की तरह या प्रियंका मौसी की तरह।
हाँ, वैसी ही होगी शर्म भी
कितनी बातूनी है न सोनल बुआ , पर प्रियंका मौसी अच्छी हैं ।
अच्छा मम्मी ,
शर्म का आना लोगों को क्यों अच्छा नहीं लगता !
मुझे तो कोई कुछ बताता ही नहीं ।
अच्छा मम्मी,
दादाजी और दादीमाँ उसदिन बात कर रहे थे कि अब किसी को शर्म नहीं आती।
क्यों नहीं आती है शर्म , मम्मी!
मैं लेके आऊंगा शर्म को
पर कोई मुझे बताओ तो सही कि शर्म आती कैसे है ?

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

बाबा मटुकनाथ की प्रेम-पार्टी

बुजुर्गों ने कहा है - कुकर्मी का नाम या सुकर्मी का नाम।
तो मित्रो,
डॉ मटुकनाथ ने जैसे-तैसे नाम तो अर्जित कर ही लिया है। कैसे?
भई, जब मैं और आप उस व्यक्ति को जानते हैं- चाहे जिन कारणों से- यही तो प्रसिद्धि है। बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ? हुआ, सौ बार हुआ।
नाम हुआ था प्रेम के कारण-यह भी सनद रहे।
किसी ने मुंह पर कालिख पोत दी - श्रीमानजी धीर-गंभीर स्थित-प्रज्ञ की तरह अविचलित रहे थे, याद आया। कुछ लोगों को इसमे सहिष्णुता दिखी होगी तो कुछ लोगों को अहिंसा। पर मुझ जैसे चंद नासमझों को उसकी लाचारी और बेबसी दिखी, बस नज़र-नज़र का फेर है और क्या!
तो सुना कि भाईसाहेब, एक प्रेम-आधारित राजनैतिक पार्टी का गठन किया है पटना में।
डॉ साहिब प्रेम पर बल देना चाहते हैं। दुसरे शब्दों में , प्रेम पर आधारित समाज का निर्माण करना चाहते है। जो भी अपनी बसी बसाई गृहस्थी को उजाड़ कर अपनी बेटी आदि की उम्र की स्त्रियों से प्रेम करना चाहते हों,( क्षमा करें, बात सिर्फ़ पुरुषों को ध्यान में रखकर हो रही है, इसी तरह महिलाऐं भी अपना स्थान निर्धारित कर ले सकती हैं ) यह प्रेम पार्टी उनकी सामाजिक निंदा से रक्षा करते हुए , सुरक्षा की पूरी व्यवस्था करेगी।
तय है कि हम आप में से बहुत सारे लोग इस कुंठा के मारे बेचारे होंगे तो अब देर किस बात की चुपचाप बाबा मटुकनाथ की प्रेम पार्टी को अपना गुप्त समर्थन भेजें।
मैं व्यक्तिगत रूपसे परिवारवादी हूँ - ऐसे किसी कृत्यों की जोरदार शब्दों में भर्त्सना करता हूँ और लानत भेजता हूँ कि ऐसे लोग किसी भी व्यवस्थामूलक समाज के शरीर पर फोड़ा है जो कभी कभी ज्यादा आम या मिठाई खाने से हो जाता है ।
ऐसे लोग टेपचू होते है सिर्फ़ निंदा अपमान से नष्ट नहीं होते है।
और हम लोगों को इनका तमाशा देखने में मजा आता है।
तो आइये , इस टेपचू व्यक्तित्व वाले मटुकनाथ की प्रेम पार्टी का तमाशा देखें कि कितने स्वच्छंदता के पक्षपाती इस महत-उद्देश्य में अपना अमूल्य योगदान देते हैं।

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

हमारी राजनीति में हम कितने

मध्य-युग सराहनीय नहीं रहा क्योंकि वहां , उस समय ईश्वरवाद का बोलबाला था। ईश्वर इसलिए इतने महत्त्वपूर्ण हो चले थे क्योंकि सत्ता-सरकारें जनता से दूर और विमुख हो चली थीं। जनता की तो आदत है - अवचेतन में बैठी हुई जड़ता है कि बिना राजा के तो जी ही नहीं सकती । और जो राजा लोग थे उन्हें यह बात ही भुला गई थी कि जनता के प्रति उनकी कुछ जिम्मेदारी भी है । सो, जैसे-तैसे जनता ने अपना राजा ( अप्रत्यक्ष-राजा) भगवान को मान लिया। यह किसी को नहीं पता कि भगवान ने इन जनता को अपनी प्रजा मानी या नहीं। लेकिन जनता की आदत आज भी वही है। देखते होंगे, जब भाईसाहब या बहनजी के हाथ से बात निकलने लगती है तो तुरंत ईश्वरीय-न्याय की गुहार लगते हैं। पर, भला ऐसा क्यों?
बड़े-बड़े लोग आकर, या टीवी से या अख़बारों से हमें सिखा-बता रहे है कि आपका वोट कीमती है - इसका प्रयोग अवश्य करें। लेकिन इस बहुमूल्य वोट का इस्तेमाल हम किसके लिए करें?
इंदिरा गाँधी के दो पुत्र- श्री राहुल गाँधी और श्री वरुण गाँधी।
ये दोनों क्यों हमारे नेता हैं?
क्योंकि ये नेहरू-इंदिरा-संजय-राजीव के परिवार के हैं!
मैं चाहे जितना बकबक करूँ, इन्हें नेता तो मानना ही होगा ।
हम भारत के लोग शासन चालने में सचमुच सक्षम नहीं है।
उत्सव की तरह मैं भी किसी दुराचारी को दे आऊंगा अपना कीमती वोट ।
लेकिन इस सवाल से न अब आजाद हूँ ,न शायद तब ही छूट पाऊंगा कि राजनीति में मेरी कितनी भागीदारी है?
आज भी तो जनता ऊपर मेंह उठाये ईश्वरीय-न्याय का ही रास्ता देख रही है।
हे महान रोम के महान स्वतंत्र नागरिको!
आपको अपने वोट का कुछ अर्थ समझ में आता है?
फिर भी आपका निरर्थक वोट एक सार्थक सरकार बनने के अनिवार्य है।
यह बता पाना तो थोड़ा मुश्किल है कि हमारी राजनीति में हम कितने हैं , हम में तो राजनीति कूट-कूट कर भरी हुई है । हम राजनीति के उपादान है यानि कच्चा माल ।
अब तो आई बात समझ में -
आप शत-प्रतिशत राजनीति में ही हैं । बधाई! ! !

बुधवार, 1 अप्रैल 2009

हमारी सांस्कृतिक इच्छा

घीसू और माधो कफ़न के लिए इकट्ठे किए गए पैसों का कफ़न नहीं खरीदते हैं- बल्कि पूरी खाते हैं , दारू पीते हैं। हमारे ख्याल से उन्हें 'भूखे-बिलबिलाते' रहकर कफ़न खरीदना चाहिए था। किंतु उन दोनों भूखों ने ऐसा नहीं किया। क्यों नहीं किया ?
इसका सबसे सुविधाजनक जबाव है कि वे 'चरित्र-भ्रष्ट' हैं। उसे चरित्र-भ्रष्ट मानकर हम सुख पाते हैं। हमें अपनी मर्जी, अपनी संस्कृति(?), अपनी परम्पराएं, अपनी समझ, अपनी ज़रूरत - सबसे अधिक उचित और प्रिय लगती हैं।
'गोदान ' में होरी तिल-तिल कर मरता है - हमने उसकी मौत को सार्थक माना। हमने सहानुभूति जताई कि मरजाद के लिए अपना सबकुछ कुर्बान कर गया।
घीसू-माधो को भूखे रहकर 'नए वस्त्र रूपी कफ़न में लपेट कर ' अपनी पत्नी/बहु का अन्तिम संस्कार करना चाहिए। पेट में भूख से आग लगी है , किसी तरह से उसके पास पैसे आ गए उसने खा लिया।
सनद रहे, भूख इच्छा नहीं , अनिवार्य ज़रूरत है जबकि कफ़न मात्र एक सांस्कृतिक इच्छा

बुधवार, 25 मार्च 2009

करम-जलों खुशियाँ मनाओ

अरे करमजलो ! घी के दिए जलाओ, खुशियाँ मनाओ , नाचो-गाओ, ढोल-ताशे बजाओ ।
क्यों?
अरे भुखमारो! सुना नहीं , रतन टाटा साहेब नैनो कर लेकर आए है हम गरीबों के लिए।
सारा टीवी चैनल , सारा अख़बार , सब को देखा नही कैसे उछल रहे थे जैसे उनकी बहिनियाँ की शादी हो। यही एक कर भारत की तकदीर बदल देगी।
याद है, मारुती कर भी जनता कर होकर आई थी।
हें .... क्या फालतू बात लेकर बैठ गए?
नैनो कोई कर थोड़े है !ई तो हम गरीब का सपना है, जो देखो कि सच हो गया ।
नैनो में नैनो छाए ......
अपना बकवास बंद करो, जिसको रोटी नहीं मिलती उसके थोड़े है
इ तो इस्कूटर , मोटरसाइकिल में जो डरा करे उनके लिए।
वैसे इ टीवी के रिपोटर सब काहे इतना उछल रहे थे? कुछ समझ में नहीं आया ।
अरे बुडबक! रुपैया न दिया होगा ,
ई लोग नया जमाना के लोग हैं , इनको पैसा-रुपैया दो तो ये लोग तो माँ-बहिन को गली भी ऐसे ही दे दें।

गुरुवार, 12 मार्च 2009

स्त्री चेतना : स्त्रियों में कितनी?

आप टीवी देखते हैं ?
मुझे यकीन है , अगर आपके पास टीवी भी है और समय भी है तो आप टीवी ज़रूर देखते होंगे।
आप बाज़ार के बारे में जानते हैं ?
हाँ, हाँ, वही जहाँ आप बिकते हैं या कुछ खरीदते हुए ख़ुद को महसूस करते हैं ।
हर जगह आप स्त्रियों की बहुतायत देख सकते हैं
हर मौके पर स्त्री-शक्ति मौजूद है।
स्त्रियों की वजह से बिक्री पर फर्क पड़ता है -
इस बात को हम से बेहतर ढंग से स्त्रियाँ जानती है ?
मेरी जिज्ञासा है कि स्त्री-चेतना बाज़ार का कोई प्रायोजित प्रोपगंडा है
अथवा .........
तय है बाज़ार जेंडर-डिस्कोर्स से अतीत है
यानि बाज़ार स्त्री या पुरूष नहीं है
स्त्री-चेतना स्त्री के नज़रिए से सामाजिक संरचना को पुनर्परिभाषित करने का प्रयत्न करती है
स्त्री-चेतना मर्दवाद के यौन-शुचिता के नारे को चुनौती देती है


स्त्री-चेतना समाजनिष्ठ पुरूष का आश्रय छोड़ कर बाज़ार-निष्ठ पुरूष का आश्रय करने का परामर्श करती है ?

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

धन्यवाद ! सोमनाथ दा, धन्यवाद !

बड़ी रहत हुई सुनकर कि कम्युनिज्म किसी की मोनोपोली नहीं है। हर बौद्धिक प्रवर्ग में इन लंबरदारों का कुछ अधिक ही दबदबा रहता है । ये लम्बरदार ही तो तय करते रहे है कि कौन कम्युनिस्ट है , कौन नहीं । दुनिया माने या न माने ये अपने को प्रगतिशीलता का नियामक मानते ही रहे हैं । ऐसा जलवा आपको विश्वविद्यालयों में आसानी से दिख सकता है ।
क्या यह सच है सोमनाथ दा कि सचमुच कम्युनिज्म किसी की बपौती नहीं है ?
अगर ऐसा है तो कई श्रेष्ठ कुलों में उत्पन्न कम्युनिस्ट , जो अपने घरों का काम राष्ट्र का काम कहकर करवाते रहे है , कैसे करवा पाएँगे ? मसलन , जब किसी सीनियर कामरेड की बेटी शादी होती है , बहुत सारे नए भरती हुए कामरेडों को शादी में मेहनत कर के साबित करना पड़ता है कि उनकी पार्टी के प्रति कितनी निष्ठां है !
अगर लम्बरदार उस नए रंगरूट की मेहनत और लगन से प्रभावित हुए तो ठीक , वरना ऐसा इम्तिहान उसे फिर देना पड़ता है।
नए रंगरूट में भी कुछ चालू होते हैं- जो सीधे लम्बरदार के जी को खुश कर देते हैं । तरीका वही आदिम और शाश्वत -सुरा और सुंदरी ।
जो इस कला में माहिर है - उसकी तरक्की का ग्राफ सीधे ऊपर की और जाता है ।

ऐसा इसलिए सम्भव होता रहा है क्योंकि --
लंबरदारी-प्रथा गंभीर रूप से इसपर काबिज़ रहा है
कम्युनिज्म चंद कुलीनता के नकली विरोधी कुलीनों की रखैल बन कर रह रही है
आदरणीय सोमनाथ चटर्जी के बोलवचन से थोडी राहत तो मिली है कि कम्युनिज्म किसी की मोनोपोली नहीं ,
अब शायद,
कोई शरीफ आदमी भी कम्युनिस्ट होने का मन बनाए ।

संस्कृति और अर्थशास्त्र

वे बहुत नासमझ नहीं हैं
वे अब जग चुके हैं
अब उन्हें और अधिक दबाया नहीं जा सकता
भारतीय समाज पुरुषवादी और ब्राह्मणवादी है
वगैरह वगैरह ...............
आइए, पहले पहचानते है
फिर जानते हैं
फिर उसका निदान खोजते हैं महावैद्य गौतम बुद्ध की तरह
जैसे दुःख है - उसका कारण है - उसका निदान यानि समाधान है -और अंत में समाधान के उपाय ?
सावधान !
बुद्ध पुरूष तो थे
पर क्या वे ब्राह्मणवादी तो नहीं थे
नहीं , नहीं , वे ब्राह्मणवादी कैसे हो सकते है !
डॉ आंबेडकर ने उन्हें अपना आदर्श माना है
बुद्ध तो ब्राह्मणवादी हो ही नहीं सकते ।
तो ब्राह्मणवादी और पुरुषवादी इकट्ठे कौन है ?
मनु और कौन ?
इतना भी नही जानते ?
समस्या इतनी बड़ी है कि लोगों को सिर्फ़ अत्याचार ही दीखता है।
यह अत्याचार को समझने की समझ, इसे अत्याचार कहने का साहस जिस स्रोत से मिला , उसका तो कहीं ज़िक्र ही नहीं ।
यह संस्कृति का अर्थशास्त्र है कि उपकारियों का ध्यान न करो।
बस , रोओ , चीखो, हाय-तौबा मचाओ कि नारी जन्म, दलित के घर जन्म , पुरुषवादी-ब्राह्मणवादी वर्चस्व का षडयंत्र है।
ऐसा नहीं है , भाइयो और बहनों,
वे जो फैशन-चैनल पर कैट -वाक करने वाले भाई लोग है उन्हें बस आपके देह-यष्टि से ही प्रेम है, वे आपसे भी बड़े लिंगवादी है ।
पर हाँ , उनका लिंग-निर्णय थोड़ा सेक्युलर किस्म का होता है।
यह संस्कृति का नया और आकर्षक अर्थशास्त्र है .

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

सौंदर्य और अश्लीलता

बड़ा ही भयानक विवाद है सौंदर्य और अश्लीलता का । बहुधा आप देख सकते हैं सुंदर को अश्लील कहा जाता हुआ। और ये कहने वाले लोग कौन हैं ? इसकी पहचान भी आवश्यक है। आपने कभी उन्हें देखा है !
उनकी आँखे रक्त-पिपासु होती है।
साँसे बदबूदार होती है।
वे वस्तुतः अश्लीलताप्रेमी होते हैं।