सोमवार, 31 अगस्त 2009

अनगढ़ कथा कहूँ केहि भांती


हर वास्तविकता को रोचक बना कर प्रस्तुत किया जाय यह सम्भव नहीं है किंतु हमारे प्रिय और जागरूक श्रोता और पाठक बिना रोचकता के कुछ भी सुनने -पढने को तैयार नहीं होते। इन्हें चाहिए कुछ मजेदार , कुछ चटपटा।
मसलन, किसी के दुःख-तकलीफ को चटखरा बना कर रखा जाय तो थोड़ा सा रस मिलता है। कभी हास्य-रस तो कभी करुण-रस।
किसी की जिन्दगी में कुछ बुरा होता है तो हम साहित्यिक लोग अधिक ही उत्साहित दिखाई देते है , जाने क्यों ?
लेकिन मित्रो !
वास्तविकता बड़ी बेडौल और अनगढ़ होती है जो बहुधा रोचक और रस-दार नहीं होती है। आत्मकथात्मक आलेख प्रायः वैसा ही होता है।
नमस्कार

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

मैं किसी को चिट्ठी लिखना चाहता हूँ

मैं ब्लॉग क्यों लिखता हूँ ?
मुझे किसी को चिट्ठी लिखना बड़ा ही भाता है। किसी की चिट्ठी आती थी तो मैं उसे दो बार तीन बार पढता था फिर चैन से , पानी पी-पीकर लम्बी , कई-कई पृष्ठों की चिट्ठियां लिखा करता था। लेकिन यह बात है मेरे बचपन की। ( यकीन कीजिए मैं भी बच्चा था ) लेकिन बुरा हो मुआ इस फोन और मोबाइल का । चिट्ठी की , प्रिय जनों की चिट्ठी की तो मौत ही हो गई , समझिए। बस , कभी कभी सरकारी , कागज वगैरह आते रहते हैं। ऐसे में जब ब्लॉग से परिचित हुआ तो कुछ राहत सी हुई।
पूरा संतोष फिर नहीं हुआ ?
कैसी बातें करते हैं जी आप ! आप को पता ही नहीं कि आप चिट्ठी लिख किसे रहे हैं तो क्या आपको लिखने का संतोष मिलेगा। हमारे ज्यादे ब्लॉग प्रेमी भाई-लोग हलकी फुल्की निरर्थक बकवास सुनना -सुनाना पसंद करते है। उन्हें चाहिए चुटकुले , गोसिप , चुगली... वगैरह वगैरह ।
तो फिर ?
तो फिर , जब भी मैं कुछ लिख रहा होता हूँ तो मेरे मन में 'कोई तुम ' अवश्य रहता है। बिना तुम की उपस्थिति के कोई भी सार्थक रचना हो ही नहीं सकती है । हार्दिक धन्यवाद ओ मेरे तुम ! सभी पोस्ट तुम्हें ही समर्पित ।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

मिडिया, फिल्मी-लोग और हम

साफ-साफ कहना तो थोड़ा मुश्किल है कि असलियत क्या है ? फिर भी चारों ओर एक तरह के चारित्रिक स्खलन की गंध तो आ रही है। अब, चूँकि मिडिया से कमोबेश सभी रूबरू हो जाता है इसलिए पहला ठीकरा उसी के सर फोड़ा जाता है। और फिर देखा जाए तो बात बेबुनियाद भी नहीं है।
अब शाहरुख़ खान वाली बात को लीजिए। वह कौन है ? एक नाचने - गाने वाला नचनिया , जो इसके बदले कुछ अधिक पैसा लेता है। कोई एतराज़ ? वह इतना जरूरी कैसे हो जाता है कि उससे राष्ट्रिय अस्मिता जुड़ जाती है ।
सप्लीमेंट में जिसका फोटो छापना उचित है - वह मुख्य पृष्ठ पर छप जाता है ? उसे किसी विदेशी हवाई अड्डे पर पूछ - ताछ हो ही गई तो इसमे कौन सा पहाड़ टूट पड़ा ?
रस्ते पर नाचते गाते बच्चे आपको भिखारी नज़र आते हैं और उसका स्तर आप सामान्य आदमी से नीचे रखते है , लेकिन ये नचनिये आपको राष्ट्रिय- अस्मिता के प्रतिनिधि और पुरोधा नज़र आते हैं , क्यों?
ये न नेता हैं , न चिन्तक और न ही विद्वान् - ये हैं नाचने गाने वाले ऐसे छोटे लोग जिनकी नज़र में पैसा के आलावा कुछ मायने नहीं रखता है। इन्हें राष्ट्र की प्रतिष्ठा या अस्मिता से जोड़ कर न देखा जाय क्योंकि काले-धंधे वाले लोगों से इनकी साठ-गांठ होने की अफवाह भी धड़ल्ले से उडा करती है।
मुझे एतराज़ है - इस तरह के लोगों को राष्ट्र-पुरूष कहे जाने से । किसी को इनके प्रति बहुत अधिक श्रद्धा है तो
इनकी तस्वीरें बाप की फोटो की जगह लगायें ।
मिडिया के लोगो से पूछा जाता है कि भाई ! आप लोग इस तरह के घटिया को इतना क्यों दिखाते हैं ? उन्हें .....
वे जवाब देते हैं- औडिएंस ऐसा ही कुछ देखना चाहती है, हम क्या करें, हमें मुनाफा चाहिए।
लोगों से पूछिये तो कहेंगे कि अरे मत पूछिये अब तो परिवार के साथ टीवी देखना मुश्किल हो गया है , पता नहीं क्या दिखाते रहते है !
खैर! सचाई जानना न तो आसान है , न जरूरी - जरूरी है संस्कृति समीक्षा , कि आखिर इस पतन ( परिवर्तन ) की जड़ कहाँ है ?
कुछ गड़बड़ तो है, जिसे शायद ठीक नहीं किया जा सकता।

बुधवार, 5 अगस्त 2009

'रियलिटी शो ' की रियलिटी(सच्चाई)

इन दिनों बहुत सारे हिन्दी चैनलों पर ढेर सारे " रियलिटी शो" प्रसारित हो रहे हैं, हो चुके हैं। इनमे कौन बनेगा करोड़पति , इंडियन आइडल , बिग बॉस , ख़तरों के खिलाड़ी, राखी का स्वयंवर वगैरह हैं। इसकी रियलिटी पर चर्चा अभी थोडी देर बाद करेंगे पर यह एक इसी की सच्चाई है कि इसे देखने को शहरी मध्य-वर्ग का बड़ा जत्था जन लगाये रहता है। इसी सच्चाई के बल पर इन्हें विज्ञापन मिलते हैं और इन्हीं विज्ञापनों के बल पर यानि पैसे बनने के लिए चैनल और निर्माता इस तरह के शो याने तमाशा बनते और दिखाते हैं। इनमे कोई मैसेज नहीं होता , कोई सामाजिक सरोकार नहीं होता - शुद्ध तमाशा होता है। लेकिन ये कार्यक्रम टीआर पी रेटिंग से बहार नहीं होता - उसी का मोहताज होता है। इन सबके बावजूद इस तरह के तमाशों का दर्शक " परम असंतुष्ट महान भारतीय मध्य-वर्ग " ही होता है जो अपनी वर्तमान स्थिति से गहरे तक प्रताडित होता है। इन दर्शकों के असंतोष कई तरह के होते है, मसलन , कोई अपने दाम्पत्य से असंतुष्ट है, कोई वित्तीय स्थिति से, तो किसी को लगता है कि उसकी प्रतिभा को पहचाना नहीं गया । सबब अलग-अलग होते हैं - मर्ज़ कोई एक है, असंतोष। यहाँ मेरा कहना है कि रियलिटी शो को देखने से कहीं अधिक रोचक और मज़ेदार है रियलिटी शो को देखने वालों को देखना । मौका मिले तो कभी गौर से इन्हें भी अवश्य देखें, विश्वास दिलाता हूँ मज़ा ज़रूर आएगा । दर्शक पहले -दूसरे एपिसोड में अपना निर्णय बनता है और उसीको देखता हुआ पूरा सीरिज बिला नागा देख जाता है । उसकी जीत में अपनी जीत देखता है और उसकी हर में भ्रष्टाचार देखता है। अब थोडी चर्चा 'शो' की रियलिटी की , षडयंत्र की करते हैं।



इसके विजेता को बहुधा एक-दो करोड़ , पचास लाख जैसी बड़ी रकम देने की बात की जाती है। जो भी जीतेगा उसे मालामाल कर दिया जाएगा । अर्थात यह एक तरह की प्रतियोगिता है जिसमें किसी एक को जितना है । उस एक की जीत में पूरा "हिंदुस्तान" ( उनके कहे अनुसार ) शामिल होता है। और सचमुच हिन्दुस्तानी चिरकुटों का बहुत बड़ा जत्था भूखे पेट, खाना खाकर या खाना खाते हुए भिड़ा रहता है। हमने देखा है कि रियलिटी शो सामान्यतः दो तरह के हैं: एक जिसमे एक या दो -तीन सेलेब्रिटी होते हैं जो ख़ुद जीतने या हारने के लिए नहीं आए होते हैं बल्कि जीत हार विवाद से बचाने ( सही मायने में विवाद पैदा करने ) के लिए आए होते हैं और कुछ अन्य आम-आदमी , जो प्रतिभागी होते हैं। दूसरे तरह के शो में कुछ बूढे और परित्यक्त से सेलिब्रिटी होते हैं जो वहां जाकर फिर से चर्चा में आने की जुगत करते हैं।



जिन शो में कथित आम-आदमी शामिल नहीं होता , वे तुलनात्मक रूप से कम हिट होता है। लेकिन जिसमे आम-आदमी को महान बनाने का नारा होता है वह अधिक लोकप्रिय होता है। कौन बनेगा करोड़पति, इंडियन आइडल , सा-रे-गा-मा-पा, वगैरह इसी तरह के शो थे / हैं। राखी का स्वयंवर भी कुछ इसी तरह का था , किंतु इसमें राखी सावंत की अपनी कमाई हुई प्रसिद्धि भी शामिल थी।



इस तरह के रियलिटी शो हर आम शहरी को स्टार बनाने का वादा करता है , इस लुभावने सपने से दिग्भ्रमित करता है और लोग खुली आंखों ऐसे सपने देखते हैं। शो में चुने जाने की उम्मीद में आए लाखों बेवकूफों की भीड़ को अक्सर दिखाया जाता रहता है। जो आने का मौका जीतता है, वह जग जीतता है । उसके बाप,माँ, पति, पत्नी, बहन , भाई वगैरह को आप शो के दौरान कैमरों में देख सकते है - रामानंद सागर के सीरियल के बंदरों की तरह उनकी आंकें चमकती रहती है। ये रिश्तेदार कौन होते हैं? शो में भाग लेने वालों के आम आदमी होने का सबूत होते हैं। रोना , हँसना , हँसी-मजाक इसके मसाले होते हैं। और एक बार ' भयानक-विवाद ' को अंजाम दिलाया जाता है ताकि प्रमाणिकता की ग़लत फहमी बनी रहे। इस तरह के सीरियलों में जजों का भी अपना ही एक अलग जायका होता है। ये लो केमिस्ट्री की बातें बहुत करते हैं ।
संक्षेप में , इस तरह के रियलिटी-शो , इसके निर्माता और जज -- भाग्य-विधाता बनने का षडयंत्र रच रहे हैं और सपने की दुनिया में जीने वाले खासो-आम शहरी ख़ुद को , अपने बच्चों को उन विधाताओं के हवाले कर रहे हैं, उनके हाथ की कठपुतलियां बना रहे हैं। दोष शो बनने वालों का है या जजों का है या चैनल का या आपका और हमारा है।
हमें याद रखना होगा कि वे बाज़ार में खड़े हैं मुनाफा कमाना उनका एक मात्र ध्येय है। एक बदसूरत सी लड़की के स्वयंवर का तमाशा कई करोड़ का व्यवसाय कर जाता है और आप इलेश और मानस में तुलना करते रह जाते हैं।