शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

कविता पढना ... कविता लिखने से ज्यादा मुश्किल है !

कविता और कवि में फर्क होता है। यह बेसुरी बात मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि अधिकांश लोग यह बात बिसरा चुके हैं। बल्कि बहुधा लोग यह मानते ही नहीं होंगे कि कविता का अपना वजूद होता है.... उसकी उपस्थिति का अपना एक अर्थ, एक उद्देश्य होता है। यह मान लिया जाता है कि अमुक कवि का एक स्टेटमेंट है... अटपटे गद्य में लिखा एक बयान है बस। ऐसा सिर्फ कविता पर 'वाह-वाह' करने वाले कर रहे होते तो बात कुछ और होती... कई कवियों से बात हुई... उनकी प्रति-प्रतिक्रिया देखी ..... तो अनुभव से बड़ा ही निराश हुआ... कवियों तक ने यह कह दिया ... अरे रवीन्द्र जी.... या दास भाई... जो मन में आया लिख दिया ... हम उतना नहीं सोचते। फिर भी उन्होंने कविता(?) लिख दी - यह बात काबिले-गौर है.....
जब इस तरह के मर्म-घातक अनुभव हुए तो कविता के प्रति सामाजिक रवैये में हुए क्षरण का कुछ-कुछ कारण समझ में आने लगा। कविता लिखने वालों से आप बात करके देखें.... तो पता चलेगा कि वो कविता पढ़ते नहीं... हाँ कुछ कवियों को पढ़ते हैं... और उनसे कविता पर बात करने की कोशिश कीजिये... तो सबसे पहले टालने की कोशिश करेंगे... बहुत जोर देने पर "कोई एक" चमकदार पंक्ति के आसपास कविता को फिक्स करने की या उसी पंक्ति में रिड्यूस करने की जुगत करते हैं।
कविता को किसी खास चमकदार पंक्ति में फिक्स करने या उसीमें रिड्यूस करने की चतुराई अनाड़ी ही नहीं ... होशियार आलोचक भी करते हैं... यह पाठ की प्राविधि सी बन गई है ... इस लिए जो फटाफट कवि हैं या जबरदस्ती के कवि हैं ... कविता के नाम पर कुछ अटपटा गद्य ... किन्तु बीच- बीच में एक - दो बहुप्रचलित सिद्धांतों के अनुकूल चमकदार पंक्ति डाल देते हैं... उनके अपने समीक्षक - आलोचक उसी भरोसे कविता को महान समयविद्ध रचना साबित कर देते हैं।
लेकिन कविता है तो कविता है... कभी आपने कहीं सुना- पढ़ा है कि किसी बेतरतीब और अटपटे गद्य को देखकर कविता-विशेषज्ञ ने कहा हो कि यह कविता नहीं है... इस का तात्पर्य यह है कि कविता लिखना बहुत सुगम है... और कविता पढना एक नासमझी .... लेकिन कुछ लोग कवि को पढ़ते हैं... वाह-वाह करते हैं... इसका आधार लिंग-क्षेत्र-जाति प्रभृत कुछ प्रिय कारण होते हैं।
दीगर बात है कि यह बात सब पर लागू नहीं होती ....

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

भाषा सुधार के रास्ते

"आपने उसे लिखने को कहा ?

जो न हमारी जाति का है , न धर्म का

पढ़ा है मैंने उसके लिखे को

न बातों का कोई सिलसिला है

न सिद्धांत का निर्णय निरपेक्ष..."

पांच साल की लंबी जुगत के बाद

जब बन पाया था संगठन में प्रवेश

नए सदस्य ने पहली करवाई कुछ ऐसे की.

यह अग्नि-परीक्षा की प्रथा है

चुगली नहीं ... प्रणाली है

पुराने सम्बन्ध के टूटने का प्रमाण

नया सम्बन्ध है.

हंस-पाद के जरिये अटक जाना

वाक्यों के बीच में

आसन्न पदों को विलगाकर

और हो जाना अपना .. दोनों का

जीवन में भाषा सुधार कार्य के माध्यम से

किसी झमेले में

या संगठन में घुसने का

आसान और सर्वथा-सिद्ध उपाय है...

रविवार, 10 अप्रैल 2011

गुमराह हो चला है हमारा समय

पिछले कई दिनों से अन्ना हजारे नामक एक बहुत शक्तिशाली वायरस हमारे लोकतंत्र और समाज के प्रोग्राम में घुस आया है। ऐसा नहीं है कि इसका एंटी-वायरस हमारे प्रोग्राम में नहीं है...... बल्कि है। फिर भी मैं अपने समकालीन बौद्धिकों की मानसिकता पर विचार करता हूँ, तो लगता है कितने क्लीब और नपुंसक समय में जी रहे हैं हम।
जहाँ , जिस देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था इतनी सुचारू रूप से चल रही है.... इतने क्षेत्रीय पार्टियाँ ... क्षेत्रीय नेतागण .... अपने क्षेत्र और समुदाय के मनोविज्ञान को लेकर ऊपर उभर रहे हैं... वैसे माहौल में ऐसा आन्दोलन , जो भ्रष्टाचार जैसे सामान्य और लोकप्रिय मसले को लेकर जनभावनाओं से खिलवाड़ करने को प्रकट होता है... जिसका न तो कोई उद्देश्य है और न कोई दिशा।
राजनैतिक असंतोष से कभी ... किसी ज़माने में एक और आन्दोलन खड़ा हुआ था ... उस आन्दोलन की प्रकृति लोकतान्त्रिक थी और उस आन्दोलन ने सरकार की चूलें हिला दी थी... वह आन्दोलन था... जय प्रकाश नारायण द्वारा आहूत १९७४ का आन्दोलन। याद होगा... ।
हमारा समय मध्यवर्ग के वर्चस्व का समय है... मध्यवर्ग स्वभाव से परजीवी और परावलम्बी होता है... इसे अपनी उन्नति उतनी ख़ुशी नहीं होती जितना दुःख दूसरों की उन्नति से होता है। इसे यह समझ में नहीं आया कि लालू प्रसाद... मुलायम सिंह... मायावती....वगैरह राजनैतिक पटल पर कैसे और क्यों अवतरित हो गए... इन्हें बाल ठाकरे के होने पर ऐतराज नहीं है... नरेन्द्र मोदी के होने पर आश्चर्य नहीं है...
हमारा समय विद्रूप और कुत्सित हो चला है... टीवी वालों को क्या दोष दें ... वे तो क्रिकेट .... फ़िल्मी परेड .... वगैरह किसी भी तमाशे को "प्रायोजक" के मिल जाने पर बेचने को तैयार रहते हैं... इनका तो धंधा है... मुझे इनसे कोई शिकायत नहीं...
बस थोड़ी सी शिकायत अपने पढ़े-लिखे बौद्धिक साथियों से है... जो लोकतंत्र के राजमार्ग को छोड़कर ... इस सँकरी अनशन की ब्लैकमेल वाली गली के अनुसरण को प्रवृत्त हुए .... बस।