शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

धन्यवाद ! सोमनाथ दा, धन्यवाद !

बड़ी रहत हुई सुनकर कि कम्युनिज्म किसी की मोनोपोली नहीं है। हर बौद्धिक प्रवर्ग में इन लंबरदारों का कुछ अधिक ही दबदबा रहता है । ये लम्बरदार ही तो तय करते रहे है कि कौन कम्युनिस्ट है , कौन नहीं । दुनिया माने या न माने ये अपने को प्रगतिशीलता का नियामक मानते ही रहे हैं । ऐसा जलवा आपको विश्वविद्यालयों में आसानी से दिख सकता है ।
क्या यह सच है सोमनाथ दा कि सचमुच कम्युनिज्म किसी की बपौती नहीं है ?
अगर ऐसा है तो कई श्रेष्ठ कुलों में उत्पन्न कम्युनिस्ट , जो अपने घरों का काम राष्ट्र का काम कहकर करवाते रहे है , कैसे करवा पाएँगे ? मसलन , जब किसी सीनियर कामरेड की बेटी शादी होती है , बहुत सारे नए भरती हुए कामरेडों को शादी में मेहनत कर के साबित करना पड़ता है कि उनकी पार्टी के प्रति कितनी निष्ठां है !
अगर लम्बरदार उस नए रंगरूट की मेहनत और लगन से प्रभावित हुए तो ठीक , वरना ऐसा इम्तिहान उसे फिर देना पड़ता है।
नए रंगरूट में भी कुछ चालू होते हैं- जो सीधे लम्बरदार के जी को खुश कर देते हैं । तरीका वही आदिम और शाश्वत -सुरा और सुंदरी ।
जो इस कला में माहिर है - उसकी तरक्की का ग्राफ सीधे ऊपर की और जाता है ।

ऐसा इसलिए सम्भव होता रहा है क्योंकि --
लंबरदारी-प्रथा गंभीर रूप से इसपर काबिज़ रहा है
कम्युनिज्म चंद कुलीनता के नकली विरोधी कुलीनों की रखैल बन कर रह रही है
आदरणीय सोमनाथ चटर्जी के बोलवचन से थोडी राहत तो मिली है कि कम्युनिज्म किसी की मोनोपोली नहीं ,
अब शायद,
कोई शरीफ आदमी भी कम्युनिस्ट होने का मन बनाए ।

संस्कृति और अर्थशास्त्र

वे बहुत नासमझ नहीं हैं
वे अब जग चुके हैं
अब उन्हें और अधिक दबाया नहीं जा सकता
भारतीय समाज पुरुषवादी और ब्राह्मणवादी है
वगैरह वगैरह ...............
आइए, पहले पहचानते है
फिर जानते हैं
फिर उसका निदान खोजते हैं महावैद्य गौतम बुद्ध की तरह
जैसे दुःख है - उसका कारण है - उसका निदान यानि समाधान है -और अंत में समाधान के उपाय ?
सावधान !
बुद्ध पुरूष तो थे
पर क्या वे ब्राह्मणवादी तो नहीं थे
नहीं , नहीं , वे ब्राह्मणवादी कैसे हो सकते है !
डॉ आंबेडकर ने उन्हें अपना आदर्श माना है
बुद्ध तो ब्राह्मणवादी हो ही नहीं सकते ।
तो ब्राह्मणवादी और पुरुषवादी इकट्ठे कौन है ?
मनु और कौन ?
इतना भी नही जानते ?
समस्या इतनी बड़ी है कि लोगों को सिर्फ़ अत्याचार ही दीखता है।
यह अत्याचार को समझने की समझ, इसे अत्याचार कहने का साहस जिस स्रोत से मिला , उसका तो कहीं ज़िक्र ही नहीं ।
यह संस्कृति का अर्थशास्त्र है कि उपकारियों का ध्यान न करो।
बस , रोओ , चीखो, हाय-तौबा मचाओ कि नारी जन्म, दलित के घर जन्म , पुरुषवादी-ब्राह्मणवादी वर्चस्व का षडयंत्र है।
ऐसा नहीं है , भाइयो और बहनों,
वे जो फैशन-चैनल पर कैट -वाक करने वाले भाई लोग है उन्हें बस आपके देह-यष्टि से ही प्रेम है, वे आपसे भी बड़े लिंगवादी है ।
पर हाँ , उनका लिंग-निर्णय थोड़ा सेक्युलर किस्म का होता है।
यह संस्कृति का नया और आकर्षक अर्थशास्त्र है .

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

सौंदर्य और अश्लीलता

बड़ा ही भयानक विवाद है सौंदर्य और अश्लीलता का । बहुधा आप देख सकते हैं सुंदर को अश्लील कहा जाता हुआ। और ये कहने वाले लोग कौन हैं ? इसकी पहचान भी आवश्यक है। आपने कभी उन्हें देखा है !
उनकी आँखे रक्त-पिपासु होती है।
साँसे बदबूदार होती है।
वे वस्तुतः अश्लीलताप्रेमी होते हैं।