रविवार, 10 अगस्त 2008

आपने कुछ नहीं कहा [दलित/स्त्री]

आपने कुछ नहीं कहा !
शायद आप कुछ नहीं कहना चाहते होंगे , या किसी अधिक जरुरी काम में फस गए होंगे ।
अब तो फुर्सत हो गई होगी , आइए, कुछ कठिन मुद्दों पर बात करें ।

" सत्य [आदर्श] और तथ्य [वास्तविकता] के द्वंद्व से साहित्य प्रभृत वैचारिक कलाओं का प्रादुर्भाव होता है। मेरा व्यक्ति-मन जब वास्तविकता से असंतुष्ट होता है , इसलिए असहमत होता है -फलतः इसकी प्रतिक्रिया में मेरा व्यक्ति-मन अनंत सिसृक्षाओं से भर जाता है। इस कोटि की प्रतिक्रिया , सहज प्रतिक्रिया न होकर विशिष्ट होती है।
यही सर्जना-विशिष्ट-प्रतिक्रिया 'कला' होती है। "

इससे असहमत होना मैं युक्ति-संगत नहीं मानता कि कला प्रतिक्रिया है , तथापि प्रतिक्रियाओं की एकाधिक सरनियां मानी जा सकती हैं - सहज और नियोजित । नियोजित प्रतिक्रिया भी स्पष्ट रूप से दो विरोधी श्रेणियों की होती हैं- सर्जनात्मक और विध्वंसात्मक
विध्वंसात्मक नियोजित प्रतिक्रिया ही आतंकवाद सरीखे मानव-विरोधी क्रिया-कलापों की जड़ है । इन प्रतिक्रियाओं की उद्भावना अहंकारी व्यक्तियों के दिशा-निर्देश में हुआ करता होगा । अंहकार के साथ सर्जना की यात्रा नहीं की जा सकती है ।
सर्जनात्मक प्रतिक्रिया , जो यदि बची रह जाती है तो साहित्य हो जाती है , का पहला बिन्दु है अंहकार का विसर्जन।
प्रसंगवश, मैं कुछ निवेदन करना चाहता हूँ -
अभी हमारी हिन्दी-दुनिया में कुछ नई पौध , षोडशी-जैसी आत्म-मुग्ध , पनपी हैं , अत्यधिक आकर्षक उन पौधों का नाम है-
स्त्रीवाद और दलितवाद ।
इन पौधों की भी विशेषता यही है के ये भी अंहकार की भाव-भूमि पर ही उगी हैं । जरा गौर से देखिये , इनके पास कहने को बहुत कुछ हैं , ढेर सारी शिकायतें हैं इनकी अपने प्रतिपक्ष से। किंतु , अंहकारमूलक प्रतिक्रियाओं की विशेषता यह होती है के इनके पास कोई विश्व-दृष्टि नहीं होती। इन प्रतिक्रियाकारियों को अपने प्रतिपक्ष को ग़लत बताने में, उसपर दोषारोपण करने में इन्हें ब्रह्मानंद की अनुभूति होती है।
संतों की कही हुई बात है -
अंहकार के वर्चस्व के कारन ही स्व-पर का भेद बढ़ता है।

सोमवार, 21 जुलाई 2008

क्या हम सचमुच बाज़ार में ही बैठे हैं?

हर वक्त नफा-नुकसान की बात !
क्या सचमुच हम बाज़ार में ही बैठे हैं ?
साहित्य एक सहयोगी-प्रयास है न कि कोई स्वायत्त और स्वच्छंद प्रलाप। कुछ पूर्व के तथा कुछ हमारे समय के साहित्य माफिया साहित्य की हद को कायदे से समझे बगैर बहुत ऊँचा-ऊँचा छोड़ने लगते हैं। भय्या ! वे तो होते हैं खिलाड़ी , सो फंसने पर आप तो निकल जाते हैं जाल से। फंस जाता है मासूम , जो उन शैतानों के बहकावे में आ जाता है ।
तो सवाल यह है कि इस भ्रामक और मायावी वाग्जाल से हम ख़ुद को और शैतान के मासूम वफादारों को छुडाएं कैसे !
है कोई रास्ता आप सुधीजनों के पास ।
या आप भी उनलोगों से ही इत्तफाक रखते है जो साहित्य के दायरे में सब कुछ को लेते हैं और फिर उन में से कुछ लोग चिल्लाते है बाज़ार बाज़ार, और कुछ लोग ह हकलाते है ब् बाज़ार ब् बाज़ार ।
जो सहज है, जो स्वाभाविक है वह प्राकृत है -
मानवीय प्रयास उसी के विरुद्ध है । जो आपकी नैसर्गिक वृत्तियों का हवाला देता है , जो आपको आपकी प्राकृतिक
तृष्णा जगाता है वह आपको जंगली बनाने का षडयत्र कर रहा है । ऐसे लोगो पर गहरी निगरानी रखिये ।
हाँ, एक बात और, मेरे और आपके अन्दर से आदिम वासना को जगाना कोई मुश्किल बात नहीं , लेकिन ताकीद करने का मुद्दा तो बस इतना है कि बाज़ार बाज़ार चिल्लाने वाले लोग आपकी भूख का इस्तेमाल आप ही के खिलाफ तो नहीं कर रहे । थोड़ा चिंतन करें , थोड़ा और विचार करें फिर बताएं कि क्या हम सचमुच बाज़ार में ही बैठे हैं अपनी-अपनी हैसियत के साथ। आपके गंभीर उत्तर की सतत प्रतीक्षा में,

रविवार, 20 जुलाई 2008

आओ भइए! विचार-विचार खेलते हैं

लोगों ने कहा " क्यों गोवर्धन उठाए हो भइया , हम कोई रामचंद्र शुक्ल तो हैं नहीं कि तय करेंगे कि कविता क्या है ? जो कविता नहीं होगी वो अपने आप नष्ट हो जाएगी और जो सचमुच कविता होगी तो बची रहेगी। "
यह आदेशात्मक जबाव सुनकर यकीन मानी मेरे तो हाथ पैर ठंडे पर गए कि अब हमारे दुर्भाग्य का निवारण कौन करेगा क्योकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपने उस लेख में तीन ही बार सुधर कर के जो कुछ दे पाए सो दे दिया और गोस्वामी जी को ही एक ठीक-ठिकाने का कवि मान कर स्वर्ग सिधार गए ।
तकलीफ दे गए आपको, उनको, हमको कि वे तो तीन सदी से लड़कर आने वाली कविता में सारे गुण देख गए और कह गए , जो पढ़नी हो कविता तो बबुआ रामचरितमानस पढौ और पढौ विनयपत्रिका
और फ़िर दिक्कत आई मेरे सामने जो हम पढ़ना चाहित हैं उदयप्रकाश की कवितवा और विनोद कुमार शुक्ल की कविता और चाहे एक बेनाम कवि रविन्द्र कुमार दासकी कविता तो कैसे तय करें कि इहौ छोट-बड़ लाइन में लिखल जो बातन हैं उहौ कवितवे है - काहे कि शुक्लजी तो अब रहे नहीं
आज-कल यानि कोई पिछले तिस-पैतीस साल हुए ,
अपनी हिन्दी की दुनिया के लोगों को विचार बहुत पसंद आने लगे हैं , जैसे स्त्रीवाद, दलितवाद,बाजारवाद , वगैरह।
आपने कविता कही और आपके प्रिय पाठकों को इन में से को जुमला पकडाया तो कहेंगे वाह ! क्या कविता है । आपने तो समय की नब्ज़ पकड़ ली है ......
आपने उनकी अच्छी-अच्छी टिप्पणी पर गदगद होकर धन्यवाद कहा तो आपकी कविता पर, भले कूड़ा हो ,फिर कुछ वाह-वाह कहेंगे । लेकिन अगर आपने कह दिया कि आपकी टिप्पणी बेसिर-पैर का है आये थोडी बातचीत करें तो भाईसाहब आपने अपना एक प्रिय पाठक खो दिया
सो मित्रो !
बुद्धिमान पाठक की खोज में दुर्लभ पाठकों को न खोएं , बेवकूफी भरी बात ही सही , कुछ कह तो रहे हैं ।
वैसे मूर्ख से मूर्ख आदमी भी आज के समय में विचार की बात ज़रूर करता है , लेकिन मैं कुछ अलग किस्म का मूर्ख हूँ सो मैं विचार-विचार की जगह कविता-कविता खेलना चाहता हूँ । क्यों?
क्योंकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल तो रहे नहीं , इसका फायदा उठा कर मैं तो विनोद शुक्ल को, उदय प्रकाश को, और हें... हें ...हें ... रवींद्र दास को कवि तो मान लूँगा और विचार-विचार की जगह कविता-कविता खेलूंगा ।

शनिवार, 12 जुलाई 2008

आरुषि की मृत्यु पर महाभोज

माफ़ कीजिए , आरुषि को मैं नहीं जानता जितना आप सब जानते होंगे लेकिन उस पर मंडराते हुए चील-कौओं को रोज़ देखता हूँ अपने कर्कश आवाज़ में , उत्तेजित हो-हो कर भारत की सबसे बड़ी मर्डर-मिस्ट्री को चटकारों के साथ आपके सामने परोसते हैं टीवी रिपोर्टर और आप अपना पेशाब रोक कर उसे सुनते है वो अनाप-शनाप अनर्गल दास्ताँ
आरुषि मारी गई प्यारी सी मासूम लड़की !
टीवी उसे और उसकी मौत को बाज़ार में बेच रही है और खरीदार कौन ? आप
राजेश तलवार हत्यारा है या नहीं?
अच्छा राजेश को ज़मानत मिल गई !
आरुषि मारी गई ; अब आपको किस बात में दिलचस्पी है !
अगर आरुषि का हत्यारा पकड़ा जायेगा तो आपकी पत्नी अपने यार के साथ रंगरेलियां नहीं मनाएंगी? या आपकी बूढी हो रही कुंवारी बेटी की शादी हो जायेगी या आपका बॉस आपको लतियाना छोड़ देगा ....
या आपका महान भारत विश्व शक्ति बन जायेगा ...
कौन हैं आप ?
आपको आरुषि की हत्या में इतनी तन्मयता किस लिए ?
भारत में.... छोडिये आपकी दिल्ली में ही इतनी वारदातें होती हैं ,आपको इतनी चिंता होती है या आरुषि से कोई विशेष प्रेम?
मिडिया ने आपको बेवकूफ बनाया और आप नहा धो कर बेवकूफ बन गए
इसमे आप ये भी भूल गए - आपकी अपने बेटी की तबियत ख़राब है , बेटा कबसे होमवर्क के लिए कह रहा है ;
पत्नी के सर में दर्द है .....
कौन है आरुषि !
अगर उस मासूम के प्रति जरा भी सहानुभूति है तो मिडिया चील-गिद्धों द्वारा किए जा रहे गोश्त के बंटवारे में हिस्सेदार न बनिए । वे तो उस गरीब की मौत का जश्न मना रहे हैं - महाभोज मना रहे है ; उस महाभोज का नाम रखा गया है- भारत की सबसे बड़ी मर्डर -मिस्टरी
कभी आपने सोचा - इस केस में हमारी दिलचस्पी क्यों होनी चाहिए ?
माफ़ कीजिये -अगर महा -भोज में सिरकत करने से मैं रोक तो नहीं सकता लेकिन लानत तो भेजूंगा उन हैवानों पर जो उसकी मौत का तमाशा बनते है और जो नपुंसक तमाशाई की मानिंद उसकी रूह की छीछालेदर होते देख कर लुत्फ़ उठाते है
मैं बेहद शर्मशार हूँ मैं जैसे लोगों का हम -शहर हूँ !

गुरुवार, 10 जुलाई 2008

वह चुप था क्योंकि

-कुछ बोलना नहीं चाहता था
-बात समझ नहीं पाया था
-सही समय की प्रतीक्षा में था
-उसे बोलना अच्छा नहीं लग रहा था
-वह डर रहा था
-वह किसीके सामने खुलना नहीं चाह रहा था
-वह हतप्रभ था
-वह सामने वाले की ताकत जानता था
-वह सामने वाले की हद जानना चाहता था
-वह सब सुनने को मजबूर था
कारण और भी हो सकते हैं कहने का तात्पर्य बस इतना सा है कि कविता में जहाँ शब्द की सीमा समाप्त होती है
कविता का मर्म वहीं से शुरू होता है
शब्दों में कविता खोजने वाले 'बालबुद्धि' होते है -जो लिखते भी उथले हैं और पढ़ते भी शब्दों को हैं
मैं बबुरी डूबन डरी रही किनारे बैठ
ऊपर तो तन है ,मन कहीं गहरे है बहुत गहरे .......
खैर अब आप की बारी है
बचाना तो पड़ेगा कविता को प्रोपगंडा या विज्ञप्ति बनने से

बुधवार, 9 जुलाई 2008

किसी मान्य विद्वान् की बात नहीं, सिर्फ़ आपकी और मेरी

आप , आपके बौद्धिक सहयोगी और मैं मिलकर सोचेंगे कि
कविता क्या है ?
कविता क्यों है ?
आप कविता क्यों लिखते हैं ?
नहीं लिखते , तो कविता पढ़ते हुए कविता में क्या देखते हैं ? या देखना चाहते है ?
क्या किसी अटपटे और उलझे वाक्य-विन्यास को मन लिया जाय कि यह कविता ही है ?
किसी मन में कोई उलझन या दुःख है -उन्होंने लिख छोड़ा तो हम उसे कविता मान लें ?
अमूमन , लोग कविता में मुद्दे को तलाशा करते है - मिल गया तो वाह-वाह, वरना कविता कूड़ा , क्या यह सही है ?
ये प्रश्न नहीं , मुद्दे हैं जिन पर हम सोचेंगे
मुद्दे और भी हैं जो आपके, उनके, और मेरे मन में है .......
मैं आपके हस्तक्षेप की प्रतीक्षा में हूँ ......
धन्यवाद