मंगलवार, 26 जनवरी 2010

अलक्षित.ब्लागस्पाट पर कविताप्रेमियो की बढती संख्या को सलाम

आप सबके लिए बनाए गए अलक्षित.ब्लागस्पाट.कॉम पर आने वाले, कविता का रसास्वादन करने वाले दुनिया भर में फैले हुए मित्रों को कवि रवीन्द्र कु दास धन्यवाद सहित नमन करता है।
दोस्तों,
कवि होना कतई अच्छी बात नहीं। यह एक बुराई है। कुछ लोग इसे छद्म व्यापार मानते और कहते हैं, किन्तु वे मित्र हैं तो झूठ नहीं कहते होंगे और मित्र हैं तो उनकी बातों का बुरा भी क्या मानना।
मैं कुछ गंभीर विषय पर आऊं, इसके पहले मैं अपने अनुज सदृश रोशन ( डा. भास्कर लाल कर्ण ) का धन्यवाद और साधुवाद आप लोगों से शेयर करना चाहता हूँ क्योकि उक्त ब्लॉग इसी महाशय के आदेश पर, और प्रयास पर भी, प्रकाश में आ पाया था। रोशन जी, धन्यवाद.
तो बात जहाँ तक कविता की है - इस विषय में दो बातें बहु- स्वीकृत हैं। एक तो यह सबसे पुरानी साहित्यिक विधा है और कविता किसे कहा जाय, यह विवाद का विषय है।
बहरहाल मैं अपने को कवि मान चुका हूँ और जो अलक्षित पर दीखता या दिखती है बेचारी कविता के रूप में ही निवेदित है।
लगभग २० वर्षों से कविता लिखता आ रहा हूँ और इसके सामानांतर यह सोचता भी आ रहा हूँ कि जो मैं लिखा है वह कविता है या नहीं ? और मैं कविता आखिर लिखता ही क्यों हूँ ? बात अचम्भे की हो सकती है पर सच यही है।
'सच यह है कि मैंने तुम्हे पा लिया था
और सच यह भी है कि तुम मुझे छोड़कर जा चुके थे।' (मेरी ही कविता ' कोई कैसे बन जाता है गीत ' से )
कविता कुछ ऐसी ही है मेरे लिए कि वह मुझसे अलग होने मचल उठती है और तब मैं उसे मुक्त कर देता हूँ लेकिन वह बद्ध होकर आप सबकी हो जाती है। मेरी रह ही कहाँ जाती!
खैर! माफ़ करें, मैंने तो बस शुक्रिया अदा करने को उद्यत हुआ था और कुछ अधिक ही कह गया.

रविवार, 17 जनवरी 2010

यह कविता नहीं, सच का बयान है

अकड़ रहे थे हाथ - पैर

मुँह से निकल रहा भाप

थरथरा रहा था सारा बदन

फिर भी कहीं जाना था अनिवार्य

सो चला जा रहा था यूँ ही अकेले मलते हुए हथेलियों को

और लोग भी आ-जा रहे थे

फिर भी पसरी थी वीरानी

कोई ठहरता न था मेरी आँखों में

मैं चला जा रहा था लरजते क़दमों से

यूँ ही कुछ सोचना था

तो सोच रहा था तुम्हे

सच बताऊँ तो तुम्हे सोचना जितना दुःख देता है

उससे कम सुकून भी नहीं देता

गुजर गए दस साल

लेकिन सांसों की तरह बनी रही तुम्हारी याद

यूँ कि बगैर उसके तो मैं था ही नहीं

चला जा रहा था मैं

कि कोहरे से लिपटी तुम्हारी काया

वैसे ही खुले हुए तुम्हारे बाल,

सब्ज साडी के ऊपर काला लम्बा कोट

तुम्हारा दिख जाना

शिशिर की हड्डी में चुभने वाली ढंड में गर्म धूप का अहसास ही तो था

नहीं हो पा रहा था यकीन

भूल गया था कि मुझे जाना कहाँ है ?

मचल उठा था मैं

शायद तुमने देखा नहीं

कैसे उस स्कूटर से टकराते -टकराते बचा था मैं

स्कूटर वाले की बदतमीजी मुझे दुआ सी लग रही थी

थोडा सा भर गया तुम्हारा बदन

हाँ हाँ ! तुम्ही थे

तभी तो मेरे पुकारने पर ' नेहा '

तुमने देखा था पलटकर

मैं भूल गया था सर्दी , कोहरा ,.... सब कुछ

देखो ! फिर मत कह देना कि मैं कविता कर रहा हूँ

नहीं , नहीं, यह कविता कतई नहीं

यह तो मेरे तजुर्बे का बयान है।

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

राम-पियारी हजार मांगती है....!

हर सप्ताह राम पियारी हजार मांगती है !
परेशान-परेशान हो जाता हूँ यार। पर समझा भी कैसे सकता हूँ! न कान है न जुबान।
लगता है, आप भी धोखा खा गए, जैसे मैं खा गया था धोखा।

बात यह है कि मेरा एक दोस्त है जीतू , हाँ, जितेंदर सिंह। उसके पास है एक मरुति८०० , बीस साल की बुढ़िया गाड़ी - जो उसे बहुत प्रिय है। या यों कहें कि मित्र उसे प्रेम करने पर मजबूर है। .......... अरे! हाँ, आप बहुत ठीक समझे। बात की हर तह को खोलना जरुरी थोड़े ही होता है।
जवानी का जोश था , मारुति का टशन था , कहीं से पैसे का जुगाड़ भी हो चला था , सो जीतू ने मारुति खरीद डाली थी।
लेकिन किसी ने कहा है और शायद ठीक ही कहा है , " सब दिन होत न एक समाना"। सो भाई साहेब जीतू जी के भी हाथ तंग रहने लगे। हाथ तंग न हुए बल्कि परिवार बढ़ने से खर्चे बढ़ गए। पत्नी बच्चों में उलझ गई, बच्चे अपनी दुनियाओं में और जीतू के पास प्रेम करने को फिर से बच गई सिर्फ राम पियारी।
लेकिन इन दिनों उसकी खिच-खिच ज्यादा ही बढ़ गई है ।
जीतू एक दिन एकांत पाकर बता रहे थे , यार! हर बात की हद होती है। कई बार जी में आता है बेच दूँ साली को , पर दुसरे पल सोचता हूँ कौन लेगा इसे ? बड़ी ही वफ़ादारी से निभाया है जालिम ने पूरी जिन्दगी और अब मैं हाथ छुड़ा लूँ तो ये गई वाजिब न होगा। एक बार को बीबी ने इंकार किया होगा पर इसने नहीं। सच बताऊँ तो मेरी राम-पियारी मेरे दिल में बसी है। इसे बेचना तो इसको धोखा देना होगा न , एक किस्म की दगाबाजी .........! उम्र हो जाने के बाद इन्सान भी तो बीमार हो जाता है, नहीं!
तो भी हर सप्ताह के हजार मांगने के कारण जीतू थोड़े नाराज अवश्य हैं , सो देखा चाहिए कब तक उनका धैर्य नहीं चुकता है?
वैसे मैं जितेंदर सिंह की इस वफ़ादारी की दलील से बहुत प्रभावित हुआ। फिर भी मैं यह निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ कि मैं वफ़ादारी की तारीफ करूँ या इसे निहायत बेवकूफी समझूँ!
एक सवाल और मेरे जेहन में आता है कि लोग किसी मज़बूरी या विकल्प हीनता की स्थिति में एक दूसरे का साथ निभाते हैं या इसमें उनकी मर्जी भी शामिल होती है ?
मैं आपसे पूछता हूँ - आपकी राय क्या है इस विषय में ?