बुधवार, 3 नवंबर 2010

जीत और हार

जब भी कोई रेस में हिस्सा लेता है तो उसकी हार्दिक इच्छा जरुर रहती होगी कि वह जीते। लेकिन वह नहीं जीत पाता। इस तरह की प्रतिस्पर्धाओं में सत्ता या पावर निर्णायक की भूमिका निभाया करता है।
यह सत्ता का अनुशासन है कि जब उसे कोई चुनौती देने के विषय में सोचता भी है तो उस खिलाड़ी को प्रतिस्पर्धा के चक्रव्यूह में फंसा दिया जाता है। भोला-भाला मनुष्य इस गफलत में आ जाता है कि वह योग्य और सामर्थ्यवान है , सो वह प्रतिस्पर्धा में विजयी होकर प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा। इसी मानसिकता से संचालित होकर वह पूरी लगन और निष्ठां से प्रतिस्पर्धा की तैयारी में जुट जाता है।
लेकिन सत्ता तो एक ही कमीनी होती है। निर्णय की शक्ति अपनी मुट्ठी में रखती है। उस शक्ति सहारे उभर रहे नए शक्ति-संपन्न खिलाड़ी का मान-मर्दन कर उसकी औकात बता देती है। और हम जैसे लोकतंत्र में यकीन रखने वाले लोग खिसिया कर अपनी झेंप मिटाते है। और अगली प्रतिस्पर्धा में जीत पाने का सपना संजोते हुए फिर से तैयारी में जुट जाता है। वह यह सोच ही नहीं सकता कि निर्णायक शक्ति रखने वाली सत्ता उसके विरुद्ध है और बेईमान है। वह तो बस अपने को हारा हुआ खिलाड़ी ही मान पाता है।