शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

करवाचौथ एक सुपरहिट त्यौहार है

करवाचौथ एक सुपरहिट त्यौहार है। महत्त्वपूर्ण कहना समीचीन नहीं लग रहा, सुपरहिट कहना अधिक युक्ति संगत प्रतीत हो रहा है। इसका भी कारण है। और कारण है हिंदी फ़िल्में, जहाँ इस त्यौहार को काफी धूमधाम और तवज्जो के साथ फिल्माया जाता है। अत्यधिक श्रृंगार करके नायिकाएँ ( स्त्रियाँ ) इस व्रत को अपने उस कथित पति के मंगल और दीर्घायु के लिए निभाती दिखती हैं।
लेकिन सनद रहे, भारत को एक धर्मप्रधान देश होने का ख़िताब प्राप्त है। इस सुपर-डुपर हित करवा चौथ को भी उसी धर्मप्रधानता से जोड़ कर कुछ लोग देखते हैं। तो क्या ऐसा देखा जाना उचित है ? मेरे अनुभव में यह एक फ़िल्मी-प्रभाव लिए फैशन प्रधान व्रत है जिसपर धर्म का मुलम्मा भर है।
वैसे यह स्वर भी , विद्रोही तेवर के साथ, सुनाई पड़ता रहता है कि औरत ही मर्द के लिए व्रत-उपवास क्यों रखे ? मर्दों को भी यह उपवास रखना चाहिए। सो कुछ फिल्मकारों ने ऐसा भी करवाने का ढकोसला अपनी फिल्मों में [ उदहारण के लिए, बागवां] दिखाने का सफल प्रयास किया है।
अगर आप कि आँखें खुली रहती हैं या आप भुक्तभोगी है तो आप शर्तिया जानते होंगे कि करवा चौथ का व्रत रखने वाली स्त्रियाँ चंद घंटे निराहार रहने का कितना बड़ा मुआवजा अपने पति से वसूल करती है। कहने की आवश्यकता शायद नहीं है कि कुरीतियाँ अमीरों के घर से ही जूठन के रूप में बाहर फेंकी जाती है।
और बाज़ार ऐसे मौकों पर अपना हाथ सेंकता है।
अख़बारों और टीवी चैनलों पर इस बाज़ार-नियंत्रित व्रत का मनोरंजक विज्ञापन, कार्यक्रम के रूप में आपको खूब दीखते होंगे। इसका जब भी फुटेज दिखाया जाता होगा तो उसमें महंगे वस्त्र-परिधानों-आभूषणों से लदी कुछ एक स्त्री शरीर भी अनिवार्यतः दिखाए जाते होंगे। इन्हें परिवार की खुशहाली से या दांपत्य के बंधनों को दृढ करने से कोई मतलब नहीं होता। इनका उद्देश्य है अर्धशिक्षित स्त्रियों को फैशनपरस्ती के लिए उकसाना।
पौराणिक कथाओं की सावित्री मृत्यु के देवता से अपने लकड़हारे पति सत्यवान के प्राण वापस लौटा लाती है। वह कामदेव को रिझाने नहीं जा रही होती है जो सोलहो-श्रृंगार कर जाती।
खैर, समझाने वाले मुझे समझा सकते हैं कि इसी बहाने परंपरा की रक्षा होती है तो होने दो। तो मैं कहूँगा , लानत है ऐसी धार्मिक कही जाने वाली परंपरा पर जिसमें अच्छा आभूषण नहीं दिला सकने वाला पति तलाक का शिकार होता है। यह परंपरा दांपत्य में मधुरता नहीं, कटुता और लाचारी लाती होगी। यह बाजारू हो चली परम्पराएं नष्ट क्यों नहीं हो जाती है। लेकिन यह मेरा ख्याल है इस फैशनपरस्त परम्परा की जिम्मेदारी जब बाज़ार ने उठा ली है तो मेरे लाख चिल्लाने से मिट नहीं सकती।
करवाचौथ की मंगल कामनाएँ - सतियों को नहीं, बाज़ार के कारोबारियों को !

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

साहित्य के विषय में ...

1.) कोई कुछ कहता नहीं तो इसका मतलब यह नहीं निकलना चाहिए कि कोई कुछ कहना नहीं चाहता।

2.) किसी के कुछ नहीं कहने के बहुत से कारण होते है।

3.) यह सोचकर किसी तरह की कोई खुशफहमी नहीं पाल लेना चाहिए कि उसे मेरा कृत्य पसंद ही है।

4.) किसी बड़े कवि ने काव्य व्यवस्था दी है - मौन भी अभिव्यंजना है।

5.) लेकिन अभिव्यंजनाओं का तात्पर्य तो सहृदयों के लिए है, पगुराई भैंसों के लिए नहीं।

6.) हमारे समय की साहित्यिक दुर्दशा यह है कि साहित्य की अभिव्यक्तियाँ अभिधामूलक होती जा रही है।

7.) तय है कि अभिधामूलक होने का कोई प्रयोजन होगा।

8.) और वह प्रयोजन है, साहित्य का प्रतिवादी हो जाना।

9.) कुछ असाहित्यिक लोग विमर्श के धुंधलके का बेजा फायदा उठाकर व्यक्तिगत शत्रुता को साहित्यिक जामा देने में लगे हुए है।

10.) साहित्यिक लोगों को ऐसी प्रवृत्ति की पहचान होनी चाहिए|

11.) मौके का फायदा उठाकर गैर-साहित्यिक प्रभावशाली लोग होते है... साहित्य में प्रवेश पा जाते हैं।

12.) अपना बदला गाली गलौच देकर निकाल लेते हैं ..... और हम किसी अन्य की बेईज्ज़ती और बेबसी पर तालियाँ पीटते हैं।

13.) नवागंतुक इसे ही साहित्यिक अभिरुचि का प्रतिमान मान बैठते हैं।

14.) किन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण है।

15.) साहित्य एक सहयोगी प्रयास है।

16.)साहित्य की सार्थकता इसी में है कि वह अन्य क्रिया-कलापों के साथ तो सहयोग बनाए ही , साथ साथ , आपस में भी पारस्परिक तालमेल और संवादिता बनाए रखे।

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

प्रतिस्पर्धा का चक्रव्यूह

जब भी कोई रेस में हिस्सा लेता है तो उसकी हार्दिक इच्छा जरुर रहती होगी कि वह जीते। लेकिन वह नहीं जीत पाता। इस तरह की प्रतिस्पर्धाओं में सत्ता या पावर निर्णायक की भूमिका निभाया करता है।
यह सत्ता का अनुशासन है कि जब उसे कोई चुनौती देने के विषय में सोचता भी है तो उस खिलाड़ी को प्रतिस्पर्धा के चक्रव्यूह में फंसा दिया जाता है। भोला-भाला मनुष्य इस गफलत में आ जाता है कि वह योग्य और सामर्थ्यवान है , सो वह प्रतिस्पर्धा में विजयी होकर प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा। इसी मानसिकता से संचालित होकर वह पूरी लगन और निष्ठां से प्रतिस्पर्धा की तैयारी में जुट जाता है।
लेकिन सत्ता तो एक ही कमीनी होती है। निर्णय की शक्ति अपनी मुट्ठी में रखती है। उस शक्ति सहारे उभर रहे नए शक्ति-संपन्न खिलाड़ी का मान-मर्दन कर उसकी औकात बता देती है। और हम जैसे लोकतंत्र में यकीन रखने वाले लोग खिसिया कर अपनी झेंप मिटाते है। और अगली प्रतिस्पर्धा में जीत पाने का सपना संजोते हुए फिर से तैयारी में जुट जाता है। वह यह सोच ही नहीं सकता कि निर्णायक शक्ति रखने वाली सत्ता उसके विरुद्ध है और बेईमान है। वह तो बस अपने को हारा हुआ खिलाड़ी ही मान पाता है।

सोमवार, 30 मई 2011

जाति... जाति...

भारतीय समाज की एक अजीब सी विशेषता है जाति। इस जाति के कारण जाति-भेद है , जातिवाद है , जात-पांतहै। परंपरा से इस पर बहस होती आ रही है।
संस्कृति-विश्लेषकों का एक बड़ा वर्ग, जो पश्चिमी और आधुनिक इतिहास दृष्टि से अपने समय को आंकता हैं, जाति की धारणा का विरोध करता नज़र आता है। वे मानते है कि इस आधुनिक परिवेश और जीवन शैली में जाति का कोई महत्त्व नहीं होना चाहिए। जाति एक मध्य युगीन फेनोमेना है। जो जाति की बात करता है, वह पिछड़ा हुआ है अथवा समाज को बदहाली में ले जाने का षड्यंत्र कर रहा है।
बदकिस्मती से, उपर्युक्त विचार सिर्फ अपने आपको उच्च वर्ण में स्थान पाए लोगों का है।

गुरुवार, 26 मई 2011

अहम् ब्रह्मास्मि का अन्यतम तात्पर्य

अहम् ब्रह्मास्मि का सरल हिन्दी अनुवाद है कि मैं ब्रह्म हूँ सुनकर बहुधा लोग ग़लतफ़हमी का शिकार हो जाया करते हैं। इसका कारण यह है लोग - जड़ बुद्धि व्याख्याकारों के कहे को अपनाते है। किसी भी अभिकथन के अभिप्राय को जानने के लिए आवश्यक है कि उसके पूर्वपक्ष को समझा जाय।
उपनिषद् अथवा इसके एक मात्र प्रमाणिक भाष्यकार आदिशंकराचार्य किसी व्यक्ति-मन में किसी भी तरह का अंध-विश्वास अथवा विभ्रम नहीं उत्पन्न करना चाहते थे।
इस अभिकथन के दो स्पष्ट पूर्व-पक्ष हैं-
१) वह धारणा जो व्यक्ति को धर्म का आश्रित बनाती है। जैसे, एक मनुष्य क्या कर सकता है करने वाला तो कोई और ही है। मीमांसा दर्शन का कर्मकांड-वादी समझ , जिसके अनुसार फल देवता देते हैं, कर्मकांड की प्राविधि ही सब कुछ है । वह दर्शन व्यक्ति सत्ता को तुच्छ और गौण करता है- देवता, मन्त्र और धर्म को श्रेष्ठ बताता है। एक मानव - व्यक्ति के पास पराश्रित और हताश होने के आलावा कोई विकल्प ही नहीं बचता। धर्म में पौरोहित्य के वर्चस्व तथा कर्मकांड की 'अर्थ-हीन' दुरुहता को यह अभिकथन चुनौती देता है।
२) सांख्य-दर्शन की धारणा है कि व्यक्ति (जीव) स्वयं कुछ भी नहीं करता, जो कुछ भी करती है -प्रकृति करती है। बंधन में भी पुरूष को प्रकृति डालती है तो मुक्त भी पुरूष को प्रकृति करती है। यानि पुरूष सिर्फ़ प्रकृति के इशारे पर नाचता है। इस विचारधारा के अनुसार तो मानव-व्यक्ति में कोई व्यक्तित्व है ही नहीं।
इन दो मानव-व्यक्ति-सत्ता विरोधी धारणाओं का खंडन और निषेध करते हुए शंकराचार्य मानव-व्यक्तित्व की गरिमा की स्थापना करते हैं। आइये, समझे कि अहम् ब्रह्मास्मि का वास्तविक तात्पर्य क्या है?
अहम् = मैं , स्वयं का अभिमान , कोई व्यक्ति यह सोच ही नहीं सकता कि वह नहीं है। मैं नही हूँ - यह सोचने के लिए भी स्वयं के अभिमान की आवश्यकता होती है। या नहीं ? विचार करें ।
ब्रह्म= सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ , सर्व-व्याप्त , वह शक्ति जिससे सब कुछ, यहाँ तक कि ईश्वर भी उत्पन्न होते हैं।
अस्मि= हूँ, होने का भाव , बने होने का संकल्प ।
सबसे पहले तो सभी मनुष्य को यह दृढ़ता से महसूस करना चाहिए कि वह है । अपने को किसी दृष्टि से , किसी भी कारण से, किसी के भी कहने से अपने को हीन, तुच्छ, अकिंचन आदि कतई नहीं मानना चाहिए। यह एक तरह का आत्म-घात है, अपने अस्तित्व के प्रति द्रोह है। कोई यदि आपको यह विश्वास दिलाने का यत्न करे कि आप तुच्छ हैं तो आप उस बात को पागल को प्रलाप समझ कर नज़र-अंदाज़ कर जाएँ।
दूसरी बात यह कि आप में, यानि हर व्यक्ति में सबकुछ= कुछ भी कर सकने की शक्ति विद्यमान है। ब्रह्म कहे जाने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति में संभावन एक-सा है । कोई वहां उस गद्दी पर बैठ कर जो आपको ईश्वर प्राप्ति का रास्ता बता रहा है, वह स्वयं दिग्भ्रमित है और आपको मुर्ख बनने का प्रयास कर रहा है। आप स्वयं सर्व-शक्तिमान ब्रह्म हैं, इस सत्य का आत्मानुभव बड़ा है। उपनिषद और शंकराचार्य हमें यही विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं।
अंत में ,
अहम् ब्रह्मास्मि का तात्पर्य यह निगमित होता है कि मानव-व्यक्ति स्वयं संप्रभु है। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त महिमावान है - इसलिए हे मानवों !
अपने व्यक्तित्व को महत्त्व दो। आत्मनिर्भरता पर विश्वास करो। कोई ईश्वर, पंडित, मौलवी, पादरी और इस तरह के किसी व्यक्तियों को अनावश्यक महत्त्व न दो। तुम स्वयं शक्तिशाली हो -उठो, जागो और जो भी श्रेष्ठ प्रतीत हो रहा हो , उसे प्राप्त करने हेतु उद्यत हो जाओ ।
जो व्यक्ति अपने पर ही विश्वास नही करेगा-उससे दरिद्र और गरीब मनुष्य दूसरा कोई न होगा। यही है अहम् ब्रह्मास्मि का अन्यतम तात्पर्य।

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

कविता पढना ... कविता लिखने से ज्यादा मुश्किल है !

कविता और कवि में फर्क होता है। यह बेसुरी बात मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि अधिकांश लोग यह बात बिसरा चुके हैं। बल्कि बहुधा लोग यह मानते ही नहीं होंगे कि कविता का अपना वजूद होता है.... उसकी उपस्थिति का अपना एक अर्थ, एक उद्देश्य होता है। यह मान लिया जाता है कि अमुक कवि का एक स्टेटमेंट है... अटपटे गद्य में लिखा एक बयान है बस। ऐसा सिर्फ कविता पर 'वाह-वाह' करने वाले कर रहे होते तो बात कुछ और होती... कई कवियों से बात हुई... उनकी प्रति-प्रतिक्रिया देखी ..... तो अनुभव से बड़ा ही निराश हुआ... कवियों तक ने यह कह दिया ... अरे रवीन्द्र जी.... या दास भाई... जो मन में आया लिख दिया ... हम उतना नहीं सोचते। फिर भी उन्होंने कविता(?) लिख दी - यह बात काबिले-गौर है.....
जब इस तरह के मर्म-घातक अनुभव हुए तो कविता के प्रति सामाजिक रवैये में हुए क्षरण का कुछ-कुछ कारण समझ में आने लगा। कविता लिखने वालों से आप बात करके देखें.... तो पता चलेगा कि वो कविता पढ़ते नहीं... हाँ कुछ कवियों को पढ़ते हैं... और उनसे कविता पर बात करने की कोशिश कीजिये... तो सबसे पहले टालने की कोशिश करेंगे... बहुत जोर देने पर "कोई एक" चमकदार पंक्ति के आसपास कविता को फिक्स करने की या उसी पंक्ति में रिड्यूस करने की जुगत करते हैं।
कविता को किसी खास चमकदार पंक्ति में फिक्स करने या उसीमें रिड्यूस करने की चतुराई अनाड़ी ही नहीं ... होशियार आलोचक भी करते हैं... यह पाठ की प्राविधि सी बन गई है ... इस लिए जो फटाफट कवि हैं या जबरदस्ती के कवि हैं ... कविता के नाम पर कुछ अटपटा गद्य ... किन्तु बीच- बीच में एक - दो बहुप्रचलित सिद्धांतों के अनुकूल चमकदार पंक्ति डाल देते हैं... उनके अपने समीक्षक - आलोचक उसी भरोसे कविता को महान समयविद्ध रचना साबित कर देते हैं।
लेकिन कविता है तो कविता है... कभी आपने कहीं सुना- पढ़ा है कि किसी बेतरतीब और अटपटे गद्य को देखकर कविता-विशेषज्ञ ने कहा हो कि यह कविता नहीं है... इस का तात्पर्य यह है कि कविता लिखना बहुत सुगम है... और कविता पढना एक नासमझी .... लेकिन कुछ लोग कवि को पढ़ते हैं... वाह-वाह करते हैं... इसका आधार लिंग-क्षेत्र-जाति प्रभृत कुछ प्रिय कारण होते हैं।
दीगर बात है कि यह बात सब पर लागू नहीं होती ....

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

भाषा सुधार के रास्ते

"आपने उसे लिखने को कहा ?

जो न हमारी जाति का है , न धर्म का

पढ़ा है मैंने उसके लिखे को

न बातों का कोई सिलसिला है

न सिद्धांत का निर्णय निरपेक्ष..."

पांच साल की लंबी जुगत के बाद

जब बन पाया था संगठन में प्रवेश

नए सदस्य ने पहली करवाई कुछ ऐसे की.

यह अग्नि-परीक्षा की प्रथा है

चुगली नहीं ... प्रणाली है

पुराने सम्बन्ध के टूटने का प्रमाण

नया सम्बन्ध है.

हंस-पाद के जरिये अटक जाना

वाक्यों के बीच में

आसन्न पदों को विलगाकर

और हो जाना अपना .. दोनों का

जीवन में भाषा सुधार कार्य के माध्यम से

किसी झमेले में

या संगठन में घुसने का

आसान और सर्वथा-सिद्ध उपाय है...

रविवार, 10 अप्रैल 2011

गुमराह हो चला है हमारा समय

पिछले कई दिनों से अन्ना हजारे नामक एक बहुत शक्तिशाली वायरस हमारे लोकतंत्र और समाज के प्रोग्राम में घुस आया है। ऐसा नहीं है कि इसका एंटी-वायरस हमारे प्रोग्राम में नहीं है...... बल्कि है। फिर भी मैं अपने समकालीन बौद्धिकों की मानसिकता पर विचार करता हूँ, तो लगता है कितने क्लीब और नपुंसक समय में जी रहे हैं हम।
जहाँ , जिस देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था इतनी सुचारू रूप से चल रही है.... इतने क्षेत्रीय पार्टियाँ ... क्षेत्रीय नेतागण .... अपने क्षेत्र और समुदाय के मनोविज्ञान को लेकर ऊपर उभर रहे हैं... वैसे माहौल में ऐसा आन्दोलन , जो भ्रष्टाचार जैसे सामान्य और लोकप्रिय मसले को लेकर जनभावनाओं से खिलवाड़ करने को प्रकट होता है... जिसका न तो कोई उद्देश्य है और न कोई दिशा।
राजनैतिक असंतोष से कभी ... किसी ज़माने में एक और आन्दोलन खड़ा हुआ था ... उस आन्दोलन की प्रकृति लोकतान्त्रिक थी और उस आन्दोलन ने सरकार की चूलें हिला दी थी... वह आन्दोलन था... जय प्रकाश नारायण द्वारा आहूत १९७४ का आन्दोलन। याद होगा... ।
हमारा समय मध्यवर्ग के वर्चस्व का समय है... मध्यवर्ग स्वभाव से परजीवी और परावलम्बी होता है... इसे अपनी उन्नति उतनी ख़ुशी नहीं होती जितना दुःख दूसरों की उन्नति से होता है। इसे यह समझ में नहीं आया कि लालू प्रसाद... मुलायम सिंह... मायावती....वगैरह राजनैतिक पटल पर कैसे और क्यों अवतरित हो गए... इन्हें बाल ठाकरे के होने पर ऐतराज नहीं है... नरेन्द्र मोदी के होने पर आश्चर्य नहीं है...
हमारा समय विद्रूप और कुत्सित हो चला है... टीवी वालों को क्या दोष दें ... वे तो क्रिकेट .... फ़िल्मी परेड .... वगैरह किसी भी तमाशे को "प्रायोजक" के मिल जाने पर बेचने को तैयार रहते हैं... इनका तो धंधा है... मुझे इनसे कोई शिकायत नहीं...
बस थोड़ी सी शिकायत अपने पढ़े-लिखे बौद्धिक साथियों से है... जो लोकतंत्र के राजमार्ग को छोड़कर ... इस सँकरी अनशन की ब्लैकमेल वाली गली के अनुसरण को प्रवृत्त हुए .... बस।

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

साहित्य : एक सहयोगी प्रयास

कोई कुछ कहता नहीं तो इसका मतलब यह नहीं निकलना चाहिए कि कोई कुछ कहना नहीं चाहता। किसी के कुछ
नहीं कहने के बहुत से कारण होते है। यह सोचकर किसी तरह की कोई खुशफहमी नहीं पाल लेना चाहिए कि उसे
मेरा कृत्य पसंद ही है। किसी बड़े कवि ने काव्य व्यवस्था दी है - मौन भी अभिव्यंजना है। लेकिन अभिव्यंजनाओं
का तात्पर्य तो सहृदयों के लिए है, पगुराई भैंसों के लिए नहीं।
हमारे समय की साहित्यिक दुर्दशा यह है कि साहित्य की अभिव्यक्तियाँ अभिधामूलक होती जा रही है। तय है कि
अभिधामूलक होने का कोई प्रयोजन होगा। और वह प्रयोजन है, साहित्य का प्रतिवादी हो जाना। कुछ असाहित्यिक
लोग विमर्श के धुंधलके का बेजा फायदा उठाकर व्यक्तिगत शत्रुता को साहित्यिक जामा देने में लगे हुए है।
प्रभावशाली लोग होते है... साहित्य में प्रवेश पा जाते हैं। अपना बदला गाली गलौच देकर निकाल लेते हैं ..... और
हम किसी अन्य की बेईज्ज़ती और बेबसी पर तालियाँ पीटते हैं। नवागंतुक इसे ही साहित्यिक अभिरुचि का
प्रतिमान मान बैठते हैं। किन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
साहित्य एक सहयोगी प्रयास है। साहित्य की सार्थकता इसी में है कि वह अन्य क्रिया-कलापों के साथ तो सहयोग
बनाए ही , साथ साथ , आपस में भी पारस्परिक संवादिता बनाए रखे।

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

मानवीय पीड़ा का प्रेमी

रोते बिलखते शरीफ और सच्चे आदमी की

तारीफ का मज़ा ही कुछ और है

ईमान से.

जिस काव्य में न हो करुणा

जिसे पढ़ कर नहीं फट जाता हो कलेजा

या नहीं तड़पता हो दैन्य और बेबसी से

नायक या नायिका

कहाँ चलता है अपने को.

जब दिखती है समाज और नियति की क्रूरता

जब होता है मर्म पर आघात

जब हृदय का टूट जाता है बंधन

फूट पड़ते हैं निश्छल आंसू

या खौल उठता है रगों में दौड़ता हुआ खून

नियति या समाज की विडंबना पर

तभी आनंद मिलता है सच्चा

साहित्य और कला का

मैं तो खुल कर करता हूँ ऐलान

कि मैं मांसलता के खिलाफ हूँ

मैं तो मानवीय पीड़ा का सच्चा प्रेमी हूँ.

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

चलो, आज प्यार प्यार खेलेंगे

दुनिया का भी अजब ही दस्तूर है! इंसानों का तो उससे भी निराला! याद है हरिवंश राय बच्चन की कविता, ' नीड़ का निर्माण फिर फिर, सृष्टि का आह्वान फिर फिर।' कभी किसी मनचले शायर ने कहा था, " तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही, तू नहीं और सही, वो नहीं और सही।" कहीं तो गाड़ी को किनारा मिलेगा! और नहीं मिलेगा तो क्या हुआ, तेल पानी लेकर अपन चलते रहेंगे, चलते रहेंगे, और क्या ! लेकिन प्यार करके ही रहेंगे या कम से कम प्यार का इज़हार तो पक्का करेंगे।
चौदह फरवरी के रोज़ हमें वह लड़का ज़रूर याद आता है। अब तो वह भले आदमी किसी प्रांतीय सरकार में बड़ा अफसर लग चुका है। वह दुबला पतला सा प्रेमी लड़का!
मित्रो! मेरी समझ में सफलता और विफलता जैसी धारणाओं ने हमारा बेडा गर्क कर रखा है वरना उस अदम्य प्रेम- अभिलाषी का नाम प्रेम की किताब के किसी पन्ने पर ज़रूर होता। खैर! तो वह चौदह फरवरी की सुबह साढ़े आठ बजे गाढ़े भूरे रंग की थ्री पीस सूट, टाई के साथ, पहन कर विश्वविद्यालय परिसर में हाज़िर हो जाता। बिलकुल ज़रूरी काम की मानिंद। फैज़ भी बड़े शायर थे, " वो लोग बड़े खुशकिस्मत थे जो इश्क को काम समझते थे "। भाई, लड़कियां तो नौ बजे या उसके बाद आएँगी न ! तब तक वह परिसर में कुछ इस बेचैनी से चहलकदमी करता कि मानो, ये कई लड़कियों के पिता हैं और बेटे के लिए मरे जा रहे हैं और इनकी पत्नी फिर से प्रसूति-गृह में प्रसव वेदना से तड़प रही हैं और भाई साहब खुद अपनी किस्मत की प्रसव-पीड़ा से तड़प रहे हैं कि कहीं इस बार फिर बेटी न हो जाए ! कमीने! कुछ लोग सोचते हैं कि तड़पने से काम बन जाता है। खैर, आधा घंटा कोई बहुत बड़ा वक्त नहीं होता, सो बीत ही जाता है। अपनी कोट में छुपाये गुलाब के फूल को अब हाथ में रख लेता। और जिस लड़की की तरफ जनाब रुख करते, वह लड़की सचमुच दौड़ कर भागती थी उससे बचने की खातिर। लेकिन जालिम जमाना, उसके इस क्रिया कलाप को बच्चे बूढ़े सभी बड़े चाव से देखते। कुछ दुष्ट इसका हौसला भी बढ़ाते। लेकिन बारह बजते न बजते ये भाई साहब, रेड रोज़ समेत गायब।
बड़ा शहर है हमारा, सो कई विश्वविद्यालय हैं यहाँ, और इनकी पहुँच इनके हौसले की तरह ही लम्बी तगड़ी थी सो अब ये उस परिसर में अपना हाथ आजमाने चल पड़ते थे। वहां के हमारे गुर्गे इस दुर्दम्य प्रेमी हृदय का आँखों देखा हाल सुनाया करते । लेकिन, हा! हन्त! प्रेम के विषय में जितनी गलतफहमियां साहित्यकारों, फिल्मकारों ने फैला रखी है, सारी इस के प्रेम की दारुण विफलता में दिख जाती।
इस बार तो सुना है, अख़बारों में पढ़ा है कि कुछ प्रेमी अपनी 'रखैलों' (girlfriends) को हेलिकोप्टर पर प्रेम प्रदर्शित करते हुए हवा में घुमाएंगे। चलो, डार्लिंग, चलो हम प्रेम का अभिनय करें। इस बीच प्याज कुछ महंगा हो गया था, सो सिर्फ प्याज महंगा लग रहा था पर वास्तविकता तो यह है कि महंगाई ने कमाकर खाने वाले की जान ही सांसत में डाल रखी है। सो, चलो आज महंगाई का रोना नहीं रोयेंगे, आज प्यार प्यार खेलेंगे।

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

मिडिया की अदालत बनने की ख्वाहिश

जमाना था जब लोग छपी हुई किसी भी बात को प्रमाणिक और निश्चित मानते थे। अख़बार का एक सम्मानित सामाजिक दर्जा था। वह एक दस्तावेज जैसा हुआ करता था। लेकिन उन दिनों बेईमानियाँ कम थीं, धंधेबाजी कम थी। अख़बार जनमत बनाते भी थे और बदलते भी थे। कहा जाता है कि उन दिनों पत्रकारिता मिशन थी। मिशन को प्रभावित करने वाले लोग, प्रायोजित करने वाली शक्तियां तब भी होंगी, लेकिन अख़बार जनता की आँख-कान हुआ करते थे। समाचारों की प्राथमिकता का एक निर्वैयक्तिक मापदंड भी था। लेकिन आज ?
इन दिनों, आरुषि तलवार का मसला फिर अख़बारों में चमका है। अरे साहब, पिछले दो सालों में इस मसले को लेकर बड़ा तमाशा हुआ है। १५ साल की लड़की, जो बड़े प्रोफेशनल डॉक्टर दम्पती की बेटी थी, की किसी ने हत्या कर दी और उसी मकान में एक ५० साल के नौकर की भी हत्या हुई। हमारे देश की सबसे महान जांच एजेंसी सी बी आई उस हत्यारे और हत्या का षड्यन्त्र करने वाले को नहीं खोज पाई। तय है, इसके पीछे भी कुछ कारण होगा। अब इस बात के लिए उस अफसर की नौकरी नहीं ली जा सकती है न ! या सी बी आई को ही बंद किया जा सकता है। नहीं मिला साक्ष्य, बंद कर दो फाइल। लेकिन नहीं, आरुषि को न्याय चाहिए ही चाहिए। इसके लिए शोर हुए हंगामे हुए, तरह तरह के प्रदर्शन हुए। क्यों ?
क्योंकि यह मुद्दा एक अमीर और हाई प्रोफायल परिवार से जुड़ा है। कोई या कई उस परिवार के दोस्त जो सच्चाई जानते होंगे और तलवार दम्पती को मज़ा चखाना चाहते होंगे, वे ही लोग आरुषि के न्याय की गुहार प्रायोजित करते होंगे। अब बेचारा तलवार परिवार! बेटी न्याय का मामला है, समर्थन देना ही पड़ता है। एक बार तो बेचारों ने सी बी आई, उत्तर प्रदेश पुलिस, सरकारी लोग , अदालत वगैरह को मैनेज किया। लेकिन ये पारिवारिक दोस्त को मैनेज्ड कर नहीं पाए, सो उन्होंने मिडिया को उसके पीछे लगा दिया। और साहब, मिडिया के लोग तो कुत्ते की तरह पीछे पड़ जाते हैं।
अब इस बार तलवार दम्पती और परिवार को मिडिया को मैनेज्ड करना होगा। और अख़बारों की भाषा से लगने लगा है कि यह कारवाई शुरू हो चुकी है। समाचार- विश्लेषकों को 'तलवार दम्पती' के चेहरे पर अपराध-बोध का चिह्न नहीं दिखना शुरू हो गया है। धीरे-धीरे अख़बार वाले हत्यारे माँ-बाप को मजबूर और मायूस माँ-बाप में बदल डालेगा। अदालत का क्या है, वहां भी तो मनुष्य ही बैठा है उसे भी ऐयाशी के लिए पैसे की जरुरत होती होगी। बस, एक ही बात बच रही है कि हमारा मध्य-वर्ग प्रधान देश है। ऐसे देशों में एक प्रवृत्ति होती है कि इन तलवारों, पंधेरों, राठौरों को सजा मिलने से मध्य-वर्गीय जनता बड़े ही लुत्फ़ का जायका महसूस करती है। पता नहीं, ये मिडिया वाले यह नपुंसक सुख मिलने देंगे या नहीं।

सोमवार, 31 जनवरी 2011

कालबोध और जीवन

काल जीवन की पूर्व-स्थिति है
सत्ता कालातीत है, किन्तु उसका अनुभव काल- सापेक्ष है
जीवन शुद्ध सत्ता नहीं है
जीवन में सत्ता अनिवार्यतः एक असत्ता पर आभासित [प्रतीयमान] होती है
इसीलिए जीवन की समाप्ति की बात की जाती है
जीवन ज्ञानात्मक होने से सत्तात्मक प्रतीत होता है किन्तु समाप्त हो जाने से असत्तात्मक सिद्ध होता है
काल वस्तुतः शुद्ध सत्ता का निषेधक है
जो काल [और देश] में संबोध्य है वह अनिवार्यतः नाशवान है
काल [समय] कोई वास्तु नहीं, एक चैतसिक पूर्वग्रह है जो अज्ञानमूलक अभ्यास का चेतन परिणाम है जो व्यक्ति के अहम्बोध पर हावी हो जाता है
१० अहम्बोध का तात्पर्य है- स्वयं के ज्ञानवान होने का बोध
११ अहंकार के नाश होने के साथ ही कालबोध[ समय की अनुभूति] भी तिरोहित हो जाता है
१२ सत्ता से साक्षात्कार अहंकार का तिरोभाव है
१३ काल और अहंकार से ही जीवन परिचालित होता है
निष्कर्ष: जीवन को समझने के लिए अपने अहम्बोध और कालबोध को सम्यक रूप से समझें

बुधवार, 26 जनवरी 2011

कविता की बात

मैं कविता हूँ।
मेरा जन्म हुआ या आविर्भाव, मुझे नहीं पता
पर इतना पता है कि मैं
अच्छे-बुरे, स्त्री-पुरुष, दलित-ब्राह्मण अथवा अमीर-गरीब
सभी मनुष्यों के हृदय में रहती हूँ, अवश्य रहती हूँ।
कई बार,
मनुष्यों ने मेरा इतिहास लिखने का प्रयास किया है
और हर वे अपनी ही नज़रों में
हास्यास्पद हुए।
मझे इसका मलाल रहता है हमेशा
कि लोग मुझे उपज मानते है मस्तिष्क की
कि जैसे लोग खाना बनाते है,
कपडे या फर्नीचर बनाते है
वैसे ही हमें यानि कविताओं को भी बनाना कहते हैं
वैसे हमारे साथ इस तरह के
प्रयोशालाई व्यवहार तो सभ्यता के उषाकाल से
होता ही रहा है
लेकिन अभी, इन दिनों आदमजादों का मनमाना व्यवहार
कुछ अधिक ही बढ़ गया है
विमर्शों और विचारों के बकवास के लिए
हमें तोप की तरह इस्तेमाल करते हैं
बहुधा हमारी इज्जत गालियों से भी कम होती जा रही
सतही और एकार्थक प्रलापत्मक गद्य को
कह दिया जाता है कविता
यह संकट कुछ वैसा ही है
जैसे वनस्पतियों पर हाई-ब्रिड का प्रकोप छाया है
मैं आपके भी तो हृदय में रहती हूँ
मेरे वजूद के हिफाज़त के लिए
क्या आप कुछ नहीं करेंगे ?
जी हाँ! मैं आपसे ही निवेदन करती हूँ
हमारी नस्ल को संकर होने से बचाइए
मैं कविता हूँ
मुझे दूषित मत कीजिये ...... ।

रविवार, 23 जनवरी 2011

गणतंत्र और भ्रष्टाचार

किसी भी राष्ट्र का गणतंत्र होना प्रशासनीय है क्योंकि वहां के शासक जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों में से हुआ करते हैं। तकनीकी रूप से, जनता अपने शासन-प्रशासन में भागीदार होता है। इस लिए सरकार पर किसी खास पार्टी का एकच्छत्र दबदबा नहीं होता। विभिन्न तबके, समूह और विचार के लोगों का जनप्रतिनिधि के रूप में चुना जाना हमें दीखता है। संतोष का विषय है कि यह जनता का शासन है। जनता के शासन में, प्रथमदृष्टया ऐसा लगता है कि, भ्रष्टाचार नहीं होना चाहिए, लेकिन तमाम गणतंत्रों में भ्रष्टाचार की कहानियां सुनने-देखने में आती रही हैं। इसका हमें दुःख और अफ़सोस तो होता है, लेकिन हम उसका रचनात्मक प्रतिकार नहीं करते या कर पाते हैं। ऐसा क्यों होता है? हमें, हम गणतंत्र के लोगों को इस पर विचार करना चाहिए।
कोई भ्रष्ट जन-प्रतिनिधि दुबारा चुना कैसे जा सकता है ? मेरी समझ में यह बड़ा अहम सवाल है। मुझे लगता है कि जो हमारी नज़र में गलत है , भ्रष्ट है या दुराचारी है, उसे हमारा मत या समर्थन किसी भी सूरत में नहीं मिल सकता। किन्तु वास्तविकता इसके एकदम विरुद्ध है, बिलकुल खिलाफ है। जो भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जा चुका है, जिसपर अदालत में मुकद्दमा चल रहा है, मिडिया ने जिसके खिलाफ लगभग सबूत देश के सामने पेश कर दिया, एक ऐसा नेता दुबारा- तिबारा जीतकर आ रहा है, वह भी हमारे, हम गणतंत्र के लोगों के निर्णायक मतों से। यह कैसे संभव हो सकता है ? वह व्यक्ति जो हमारी नजर में अपराधी है, भ्रष्ट है, दुराचारी और पापाचारी है, हमारे ही मतों और समर्थन से कैसे जीत सकता है ? मुझे नहीं समझ में आ रहा है ? मैं इस विरोधाभासी परिदृश्य पर अचंभित हूँ, सदमे में हूँ। फिर भी मैं इस 'वास्तविकता' को समझना चाहता हूँ। इस विरोधाभास की तत्त्व-मीमांसा करना चाहता हूँ। कई दिनों, महीनों, सालों, दशकों से इसी विषय पर सोच रहा हूँ कि कोई भ्रष्टाचारी व्यक्ति हमारा जनप्रतिनिधि दुबारा कैसे बन जाता है? जबकि हम उसे धड़ल्ले से सरेआम जिसकी निंदा कर रहे होते है, जिसे कोस रहे होते है, वह चुनाव में उम्मीदवार बनता है और हमारे मतों से चुनाव जीत कर हमारा प्रतिनिधि बनता है।
इन सभी आश्चर्यजनक परिणामों के पीछे एक मात्र कारण होता है, हमारा मत, जो हम चुनाव में किसी के लिए दान करते हैं तब, जब हम मतदान करते हैं। विरोधाभास की तत्त्व-मीमांसा करते हुए जो सबसे मजबूत तथ्य मेरे सामने आता है वह यही है कि वह हमारे मत से जीतता है। यानि हमें वह भ्रष्ट अथवा गलत नहीं लगता। अथवा उसके भ्रष्टाचार में हमारी भी भागीदारी और हिस्सेदारी होती है। दरअसल हमें ईर्ष्या होती रहती है कि उसने हजारों करोड़ का हाथ मार लिया और हम यहाँ हजारों को तरस रहे हैं। हमें वह गलत नहीं लगता बल्कि वह खुदसे बड़ा खिलाडी लगता है। मनोविज्ञान की भाषा में बात करें तो ईर्ष्या प्रशंसा की ही नकारात्मक अभिव्यक्ति है। एक मच्छर भी आदमी को नुकसान पहुंचाता है तो वह उसे मार देना चाहता है तो भला एक आदमी को कोई कैसे छोड़ सकता है!
मैं इस गणतंत्र-दिवस के उपलक्ष्य पर इस सत्य से रू-ब-रू होकर आत्मालोचन का सन्देश देना चाहता हूँ कि गणतंत्र और भ्रष्टाचार का जो चोली-दामन का सम्बन्ध बनता जा रहा है इसके लिए कौन दोषी है, इस पर निष्पक्ष और निडर होकर परामर्श करें, इस परामर्श में अपने मित्रों को भी शामिल करें।
गणतंत्र-दिवस की ढेरों शुभकामनाओं सहित,
आप ही का एक सुदूरवर्ती मित्र।