गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

मानवीय पीड़ा का प्रेमी

रोते बिलखते शरीफ और सच्चे आदमी की

तारीफ का मज़ा ही कुछ और है

ईमान से.

जिस काव्य में न हो करुणा

जिसे पढ़ कर नहीं फट जाता हो कलेजा

या नहीं तड़पता हो दैन्य और बेबसी से

नायक या नायिका

कहाँ चलता है अपने को.

जब दिखती है समाज और नियति की क्रूरता

जब होता है मर्म पर आघात

जब हृदय का टूट जाता है बंधन

फूट पड़ते हैं निश्छल आंसू

या खौल उठता है रगों में दौड़ता हुआ खून

नियति या समाज की विडंबना पर

तभी आनंद मिलता है सच्चा

साहित्य और कला का

मैं तो खुल कर करता हूँ ऐलान

कि मैं मांसलता के खिलाफ हूँ

मैं तो मानवीय पीड़ा का सच्चा प्रेमी हूँ.

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