बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

मिडिया की अदालत बनने की ख्वाहिश

जमाना था जब लोग छपी हुई किसी भी बात को प्रमाणिक और निश्चित मानते थे। अख़बार का एक सम्मानित सामाजिक दर्जा था। वह एक दस्तावेज जैसा हुआ करता था। लेकिन उन दिनों बेईमानियाँ कम थीं, धंधेबाजी कम थी। अख़बार जनमत बनाते भी थे और बदलते भी थे। कहा जाता है कि उन दिनों पत्रकारिता मिशन थी। मिशन को प्रभावित करने वाले लोग, प्रायोजित करने वाली शक्तियां तब भी होंगी, लेकिन अख़बार जनता की आँख-कान हुआ करते थे। समाचारों की प्राथमिकता का एक निर्वैयक्तिक मापदंड भी था। लेकिन आज ?
इन दिनों, आरुषि तलवार का मसला फिर अख़बारों में चमका है। अरे साहब, पिछले दो सालों में इस मसले को लेकर बड़ा तमाशा हुआ है। १५ साल की लड़की, जो बड़े प्रोफेशनल डॉक्टर दम्पती की बेटी थी, की किसी ने हत्या कर दी और उसी मकान में एक ५० साल के नौकर की भी हत्या हुई। हमारे देश की सबसे महान जांच एजेंसी सी बी आई उस हत्यारे और हत्या का षड्यन्त्र करने वाले को नहीं खोज पाई। तय है, इसके पीछे भी कुछ कारण होगा। अब इस बात के लिए उस अफसर की नौकरी नहीं ली जा सकती है न ! या सी बी आई को ही बंद किया जा सकता है। नहीं मिला साक्ष्य, बंद कर दो फाइल। लेकिन नहीं, आरुषि को न्याय चाहिए ही चाहिए। इसके लिए शोर हुए हंगामे हुए, तरह तरह के प्रदर्शन हुए। क्यों ?
क्योंकि यह मुद्दा एक अमीर और हाई प्रोफायल परिवार से जुड़ा है। कोई या कई उस परिवार के दोस्त जो सच्चाई जानते होंगे और तलवार दम्पती को मज़ा चखाना चाहते होंगे, वे ही लोग आरुषि के न्याय की गुहार प्रायोजित करते होंगे। अब बेचारा तलवार परिवार! बेटी न्याय का मामला है, समर्थन देना ही पड़ता है। एक बार तो बेचारों ने सी बी आई, उत्तर प्रदेश पुलिस, सरकारी लोग , अदालत वगैरह को मैनेज किया। लेकिन ये पारिवारिक दोस्त को मैनेज्ड कर नहीं पाए, सो उन्होंने मिडिया को उसके पीछे लगा दिया। और साहब, मिडिया के लोग तो कुत्ते की तरह पीछे पड़ जाते हैं।
अब इस बार तलवार दम्पती और परिवार को मिडिया को मैनेज्ड करना होगा। और अख़बारों की भाषा से लगने लगा है कि यह कारवाई शुरू हो चुकी है। समाचार- विश्लेषकों को 'तलवार दम्पती' के चेहरे पर अपराध-बोध का चिह्न नहीं दिखना शुरू हो गया है। धीरे-धीरे अख़बार वाले हत्यारे माँ-बाप को मजबूर और मायूस माँ-बाप में बदल डालेगा। अदालत का क्या है, वहां भी तो मनुष्य ही बैठा है उसे भी ऐयाशी के लिए पैसे की जरुरत होती होगी। बस, एक ही बात बच रही है कि हमारा मध्य-वर्ग प्रधान देश है। ऐसे देशों में एक प्रवृत्ति होती है कि इन तलवारों, पंधेरों, राठौरों को सजा मिलने से मध्य-वर्गीय जनता बड़े ही लुत्फ़ का जायका महसूस करती है। पता नहीं, ये मिडिया वाले यह नपुंसक सुख मिलने देंगे या नहीं।

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