रविवार, 27 फ़रवरी 2011

साहित्य : एक सहयोगी प्रयास

कोई कुछ कहता नहीं तो इसका मतलब यह नहीं निकलना चाहिए कि कोई कुछ कहना नहीं चाहता। किसी के कुछ
नहीं कहने के बहुत से कारण होते है। यह सोचकर किसी तरह की कोई खुशफहमी नहीं पाल लेना चाहिए कि उसे
मेरा कृत्य पसंद ही है। किसी बड़े कवि ने काव्य व्यवस्था दी है - मौन भी अभिव्यंजना है। लेकिन अभिव्यंजनाओं
का तात्पर्य तो सहृदयों के लिए है, पगुराई भैंसों के लिए नहीं।
हमारे समय की साहित्यिक दुर्दशा यह है कि साहित्य की अभिव्यक्तियाँ अभिधामूलक होती जा रही है। तय है कि
अभिधामूलक होने का कोई प्रयोजन होगा। और वह प्रयोजन है, साहित्य का प्रतिवादी हो जाना। कुछ असाहित्यिक
लोग विमर्श के धुंधलके का बेजा फायदा उठाकर व्यक्तिगत शत्रुता को साहित्यिक जामा देने में लगे हुए है।
प्रभावशाली लोग होते है... साहित्य में प्रवेश पा जाते हैं। अपना बदला गाली गलौच देकर निकाल लेते हैं ..... और
हम किसी अन्य की बेईज्ज़ती और बेबसी पर तालियाँ पीटते हैं। नवागंतुक इसे ही साहित्यिक अभिरुचि का
प्रतिमान मान बैठते हैं। किन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
साहित्य एक सहयोगी प्रयास है। साहित्य की सार्थकता इसी में है कि वह अन्य क्रिया-कलापों के साथ तो सहयोग
बनाए ही , साथ साथ , आपस में भी पारस्परिक संवादिता बनाए रखे।

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

मानवीय पीड़ा का प्रेमी

रोते बिलखते शरीफ और सच्चे आदमी की

तारीफ का मज़ा ही कुछ और है

ईमान से.

जिस काव्य में न हो करुणा

जिसे पढ़ कर नहीं फट जाता हो कलेजा

या नहीं तड़पता हो दैन्य और बेबसी से

नायक या नायिका

कहाँ चलता है अपने को.

जब दिखती है समाज और नियति की क्रूरता

जब होता है मर्म पर आघात

जब हृदय का टूट जाता है बंधन

फूट पड़ते हैं निश्छल आंसू

या खौल उठता है रगों में दौड़ता हुआ खून

नियति या समाज की विडंबना पर

तभी आनंद मिलता है सच्चा

साहित्य और कला का

मैं तो खुल कर करता हूँ ऐलान

कि मैं मांसलता के खिलाफ हूँ

मैं तो मानवीय पीड़ा का सच्चा प्रेमी हूँ.

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

चलो, आज प्यार प्यार खेलेंगे

दुनिया का भी अजब ही दस्तूर है! इंसानों का तो उससे भी निराला! याद है हरिवंश राय बच्चन की कविता, ' नीड़ का निर्माण फिर फिर, सृष्टि का आह्वान फिर फिर।' कभी किसी मनचले शायर ने कहा था, " तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही, तू नहीं और सही, वो नहीं और सही।" कहीं तो गाड़ी को किनारा मिलेगा! और नहीं मिलेगा तो क्या हुआ, तेल पानी लेकर अपन चलते रहेंगे, चलते रहेंगे, और क्या ! लेकिन प्यार करके ही रहेंगे या कम से कम प्यार का इज़हार तो पक्का करेंगे।
चौदह फरवरी के रोज़ हमें वह लड़का ज़रूर याद आता है। अब तो वह भले आदमी किसी प्रांतीय सरकार में बड़ा अफसर लग चुका है। वह दुबला पतला सा प्रेमी लड़का!
मित्रो! मेरी समझ में सफलता और विफलता जैसी धारणाओं ने हमारा बेडा गर्क कर रखा है वरना उस अदम्य प्रेम- अभिलाषी का नाम प्रेम की किताब के किसी पन्ने पर ज़रूर होता। खैर! तो वह चौदह फरवरी की सुबह साढ़े आठ बजे गाढ़े भूरे रंग की थ्री पीस सूट, टाई के साथ, पहन कर विश्वविद्यालय परिसर में हाज़िर हो जाता। बिलकुल ज़रूरी काम की मानिंद। फैज़ भी बड़े शायर थे, " वो लोग बड़े खुशकिस्मत थे जो इश्क को काम समझते थे "। भाई, लड़कियां तो नौ बजे या उसके बाद आएँगी न ! तब तक वह परिसर में कुछ इस बेचैनी से चहलकदमी करता कि मानो, ये कई लड़कियों के पिता हैं और बेटे के लिए मरे जा रहे हैं और इनकी पत्नी फिर से प्रसूति-गृह में प्रसव वेदना से तड़प रही हैं और भाई साहब खुद अपनी किस्मत की प्रसव-पीड़ा से तड़प रहे हैं कि कहीं इस बार फिर बेटी न हो जाए ! कमीने! कुछ लोग सोचते हैं कि तड़पने से काम बन जाता है। खैर, आधा घंटा कोई बहुत बड़ा वक्त नहीं होता, सो बीत ही जाता है। अपनी कोट में छुपाये गुलाब के फूल को अब हाथ में रख लेता। और जिस लड़की की तरफ जनाब रुख करते, वह लड़की सचमुच दौड़ कर भागती थी उससे बचने की खातिर। लेकिन जालिम जमाना, उसके इस क्रिया कलाप को बच्चे बूढ़े सभी बड़े चाव से देखते। कुछ दुष्ट इसका हौसला भी बढ़ाते। लेकिन बारह बजते न बजते ये भाई साहब, रेड रोज़ समेत गायब।
बड़ा शहर है हमारा, सो कई विश्वविद्यालय हैं यहाँ, और इनकी पहुँच इनके हौसले की तरह ही लम्बी तगड़ी थी सो अब ये उस परिसर में अपना हाथ आजमाने चल पड़ते थे। वहां के हमारे गुर्गे इस दुर्दम्य प्रेमी हृदय का आँखों देखा हाल सुनाया करते । लेकिन, हा! हन्त! प्रेम के विषय में जितनी गलतफहमियां साहित्यकारों, फिल्मकारों ने फैला रखी है, सारी इस के प्रेम की दारुण विफलता में दिख जाती।
इस बार तो सुना है, अख़बारों में पढ़ा है कि कुछ प्रेमी अपनी 'रखैलों' (girlfriends) को हेलिकोप्टर पर प्रेम प्रदर्शित करते हुए हवा में घुमाएंगे। चलो, डार्लिंग, चलो हम प्रेम का अभिनय करें। इस बीच प्याज कुछ महंगा हो गया था, सो सिर्फ प्याज महंगा लग रहा था पर वास्तविकता तो यह है कि महंगाई ने कमाकर खाने वाले की जान ही सांसत में डाल रखी है। सो, चलो आज महंगाई का रोना नहीं रोयेंगे, आज प्यार प्यार खेलेंगे।

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

मिडिया की अदालत बनने की ख्वाहिश

जमाना था जब लोग छपी हुई किसी भी बात को प्रमाणिक और निश्चित मानते थे। अख़बार का एक सम्मानित सामाजिक दर्जा था। वह एक दस्तावेज जैसा हुआ करता था। लेकिन उन दिनों बेईमानियाँ कम थीं, धंधेबाजी कम थी। अख़बार जनमत बनाते भी थे और बदलते भी थे। कहा जाता है कि उन दिनों पत्रकारिता मिशन थी। मिशन को प्रभावित करने वाले लोग, प्रायोजित करने वाली शक्तियां तब भी होंगी, लेकिन अख़बार जनता की आँख-कान हुआ करते थे। समाचारों की प्राथमिकता का एक निर्वैयक्तिक मापदंड भी था। लेकिन आज ?
इन दिनों, आरुषि तलवार का मसला फिर अख़बारों में चमका है। अरे साहब, पिछले दो सालों में इस मसले को लेकर बड़ा तमाशा हुआ है। १५ साल की लड़की, जो बड़े प्रोफेशनल डॉक्टर दम्पती की बेटी थी, की किसी ने हत्या कर दी और उसी मकान में एक ५० साल के नौकर की भी हत्या हुई। हमारे देश की सबसे महान जांच एजेंसी सी बी आई उस हत्यारे और हत्या का षड्यन्त्र करने वाले को नहीं खोज पाई। तय है, इसके पीछे भी कुछ कारण होगा। अब इस बात के लिए उस अफसर की नौकरी नहीं ली जा सकती है न ! या सी बी आई को ही बंद किया जा सकता है। नहीं मिला साक्ष्य, बंद कर दो फाइल। लेकिन नहीं, आरुषि को न्याय चाहिए ही चाहिए। इसके लिए शोर हुए हंगामे हुए, तरह तरह के प्रदर्शन हुए। क्यों ?
क्योंकि यह मुद्दा एक अमीर और हाई प्रोफायल परिवार से जुड़ा है। कोई या कई उस परिवार के दोस्त जो सच्चाई जानते होंगे और तलवार दम्पती को मज़ा चखाना चाहते होंगे, वे ही लोग आरुषि के न्याय की गुहार प्रायोजित करते होंगे। अब बेचारा तलवार परिवार! बेटी न्याय का मामला है, समर्थन देना ही पड़ता है। एक बार तो बेचारों ने सी बी आई, उत्तर प्रदेश पुलिस, सरकारी लोग , अदालत वगैरह को मैनेज किया। लेकिन ये पारिवारिक दोस्त को मैनेज्ड कर नहीं पाए, सो उन्होंने मिडिया को उसके पीछे लगा दिया। और साहब, मिडिया के लोग तो कुत्ते की तरह पीछे पड़ जाते हैं।
अब इस बार तलवार दम्पती और परिवार को मिडिया को मैनेज्ड करना होगा। और अख़बारों की भाषा से लगने लगा है कि यह कारवाई शुरू हो चुकी है। समाचार- विश्लेषकों को 'तलवार दम्पती' के चेहरे पर अपराध-बोध का चिह्न नहीं दिखना शुरू हो गया है। धीरे-धीरे अख़बार वाले हत्यारे माँ-बाप को मजबूर और मायूस माँ-बाप में बदल डालेगा। अदालत का क्या है, वहां भी तो मनुष्य ही बैठा है उसे भी ऐयाशी के लिए पैसे की जरुरत होती होगी। बस, एक ही बात बच रही है कि हमारा मध्य-वर्ग प्रधान देश है। ऐसे देशों में एक प्रवृत्ति होती है कि इन तलवारों, पंधेरों, राठौरों को सजा मिलने से मध्य-वर्गीय जनता बड़े ही लुत्फ़ का जायका महसूस करती है। पता नहीं, ये मिडिया वाले यह नपुंसक सुख मिलने देंगे या नहीं।