बुधवार, 3 नवंबर 2010

जीत और हार

जब भी कोई रेस में हिस्सा लेता है तो उसकी हार्दिक इच्छा जरुर रहती होगी कि वह जीते। लेकिन वह नहीं जीत पाता। इस तरह की प्रतिस्पर्धाओं में सत्ता या पावर निर्णायक की भूमिका निभाया करता है।
यह सत्ता का अनुशासन है कि जब उसे कोई चुनौती देने के विषय में सोचता भी है तो उस खिलाड़ी को प्रतिस्पर्धा के चक्रव्यूह में फंसा दिया जाता है। भोला-भाला मनुष्य इस गफलत में आ जाता है कि वह योग्य और सामर्थ्यवान है , सो वह प्रतिस्पर्धा में विजयी होकर प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा। इसी मानसिकता से संचालित होकर वह पूरी लगन और निष्ठां से प्रतिस्पर्धा की तैयारी में जुट जाता है।
लेकिन सत्ता तो एक ही कमीनी होती है। निर्णय की शक्ति अपनी मुट्ठी में रखती है। उस शक्ति सहारे उभर रहे नए शक्ति-संपन्न खिलाड़ी का मान-मर्दन कर उसकी औकात बता देती है। और हम जैसे लोकतंत्र में यकीन रखने वाले लोग खिसिया कर अपनी झेंप मिटाते है। और अगली प्रतिस्पर्धा में जीत पाने का सपना संजोते हुए फिर से तैयारी में जुट जाता है। वह यह सोच ही नहीं सकता कि निर्णायक शक्ति रखने वाली सत्ता उसके विरुद्ध है और बेईमान है। वह तो बस अपने को हारा हुआ खिलाड़ी ही मान पाता है।

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

करवा चौथ : परंपरा के नाम पर फैशनपरस्ती

करवाचौथ एक सुपरहिट त्यौहार है। महत्त्वपूर्ण कहना समीचीन नहीं लग रहा, सुपरहिट कहना अधिक युक्ति संगत प्रतीत हो रहा है। इसका भी कारण है। और कारण है हिंदी फ़िल्में, जहाँ इस त्यौहार को काफी धूमधाम और तवज्जो के साथ फिल्माया जाता है। अत्यधिक श्रृंगार करके नायिकाएँ ( स्त्रियाँ ) इस व्रत को अपने उस कथित पति के मंगल और दीर्घायु के लिए निभाती दिखती हैं।
लेकिन सनद रहे, भारत को एक धर्मप्रधान देश होने का ख़िताब प्राप्त है। इस सुपर-डुपर हित करवा चौथ को भी उसी धर्मप्रधानता से जोड़ कर कुछ लोग देखते हैं। तो क्या ऐसा देखा जाना उचित है ? मेरे अनुभव में यह एक फ़िल्मी-प्रभाव लिए फैशन प्रधान व्रत है जिसपर धर्म का मुलम्मा भर है।
वैसे यह स्वर भी , विद्रोही तेवर के साथ, सुनाई पड़ता रहता है कि औरत ही मर्द के लिए व्रत-उपवास क्यों रखे ? मर्दों को भी यह उपवास रखना चाहिए। सो कुछ फिल्मकारों ने ऐसा भी करवाने का ढकोसला अपनी फिल्मों में [ उदहारण के लिए, बागवां] दिखाने का सफल प्रयास किया है।
अगर आप कि आँखें खुली रहती हैं या आप भुक्तभोगी है तो आप शर्तिया जानते होंगे कि करवा चौथ का व्रत रखने वाली स्त्रियाँ चंद घंटे निराहार रहने का कितना बड़ा मुआवजा अपने पति से वसूल करती है। कहने की आवश्यकता शायद नहीं है कि कुरीतियाँ अमीरों के घर से ही जूठन के रूप में बाहर फेंकी जाती है।
और बाज़ार ऐसे मौकों पर अपना हाथ सेंकता है।
अख़बारों और टीवी चैनलों पर इस बाज़ार-नियंत्रित व्रत का मनोरंजक विज्ञापन, कार्यक्रम के रूप में आपको खूब दीखते होंगे। इसका जब भी फुटेज दिखाया जाता होगा तो उसमें महंगे वस्त्र-परिधानों-आभूषणों से लदी कुछ एक स्त्री शरीर भी अनिवार्यतः दिखाए जाते होंगे। इन्हें परिवार की खुशहाली से या दांपत्य के बंधनों को दृढ करने से कोई मतलब नहीं होता। इनका उद्देश्य है अर्धशिक्षित स्त्रियों को फैशनपरस्ती के लिए उकसाना।
पौराणिक कथाओं की सावित्री मृत्यु के देवता से अपने लकड़हारे पति सत्यवान के प्राण वापस लौटा लाती है। वह कामदेव को रिझाने नहीं जा रही होती है जो सोलहो-श्रृंगार कर जाती।
खैर, समझाने वाले मुझे समझा सकते हैं कि इसी बहाने परंपरा की रक्षा होती है तो होने दो। तो मैं कहूँगा , लानत है ऐसी धार्मिक कही जाने वाली परंपरा पर जिसमें अच्छा आभूषण नहीं दिला सकने वाला पति तलाक का शिकार होता है। यह परंपरा दांपत्य में मधुरता नहीं, कटुता और लाचारी लाती होगी। यह बाजारू हो चली परम्पराएं नष्ट क्यों नहीं हो जाती है। लेकिन यह मेरा ख्याल है । इस फैशनपरस्त परम्परा की जिम्मेदारी जब बाज़ार ने उठा ली है तो मेरे लाख चिल्लाने से मिट नहीं सकती।
करवाचौथ की मंगल कामनाएँ - सतियों को नहीं, बाज़ार के कारोबारियों को !

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

दुःख: अपना और पराया

दुःख यूँ तो एक लफ्ज है जिसका हम मौके बेमौके इस्तेमाल करते रहते हैं। मसलन, दुःख की बात है कि ..., मुझे इसका दुःख है, दुःख के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि ...., दुःख -सुख तो लगा ही रहता है, वगैरह, वगैरह। हमें पता है कि दुःख शब्द का अर्थ है।
मुझे दाँत में दर्द होता है तो मुझे दुःख होता है। कोई मेरे साथ बदतमीजी से पेश आता है तो दुःख होता है। कोई मुझे अनसुना कर देता है तो दुःख होता है। और इन दुखों को मैं दूसरों से शेयर भी करता हूँ/ करना चाहता हूँ यह जताते हुए कि यह दुःख जेनुइन है।
लेकिन जब मैं दूसरों के दुखों पर विचार करता हूँ तो क्या उसी कोटि के दुखों को दुःख मानने को तैयार होता हूँ? शायद नहीं। दूसरे का दुःख मुझे तगड़ा चाहिए। मसलन, बीमारी हो तो कम से कम कैंसर लेबल का हो, चोरी हुई हो तो कंगाली की हालत की हो, किसी मर्द ने अपनी औरत को सताया हो तो या तो बलात्कार हुआ हो या फिर कम से कम जान पे बन आई हो, या इसी तरह के भयानक स्तर का दूसरों दुःख हमें दुखी होने लायक लगता है।
सवाल है कि दुःख क्या है ? कोई नारा है , या कोई संवेदना है, भाव है, विचार है , मुद्दा है , अनुभव है, क्या है ?
मैं दुखी हूँ।
तो क्या फर्क पड़ता है आपको ? उसी तरह आप दुखी हैं तो मुझ पर क्या असर होना चाहिए ?
दार्शनिक विद्वान्, गुणी मुनि, संत महात्मा कहते है कि सुख-दुःख मन के विकल्प है जो पानी के बुलबुले की तरह क्षण-भंगुर है , आते जाते रहते है इसके लिए बहुत अधिक विचलित नहीं होना चाहिए। लेकिन संसार में, व्यवहार में ऐसा नहीं चलता है। अगर आप विचलित नहीं होंगे तो आप संगदिल, कठोर, बेदर्द , जानवर या स्वार्थी कहे जाएँगे और आप ऐसा नहीं चाहते हैं।
बड़ी उलझन होती है। आपको न होती हो लेकिन मुझे होती है, इस दुःख के सवाल पर। उलझन इसलिए क्योंकि मैं अक्सर पसोपेश में पड़ जाता हूँ जब कोई महाशय 'अ' किसी अन्य महाशय 'ब' का दुःख मुझे सुनाते है। ऐसे में मैं तय नहीं कर पाता हूँ कि मैं किस भाव में प्रतिक्रया करूँ !
कोई बूढ़ा सा निरर्थक हो चुका कोई नेता , अभिनेता , कलाकार, अध्यापक , लेखक, साहित्यकार मर गया , बीमार हो गया तो मुझे कैसी प्रतिक्रिया करनी चाहिए, यही न कि ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे। लेकिन लोग किसी और ही तरह से प्रतिक्रिया करते है , वे दुखी दुखी से दिखना चाहते हैं। मैं ऐसा नहीं कर पाता, सो मैं खुद की भी नजर में गिरने लगता हूँ।
आज-कल के साहित्य कर्म में भी अनभोगे दुखों को प्रमाणिक अनुभूति की तरह व्यक्त करने का बाज़ार गर्म है। मसलन सवर्णों द्वारा दलितों को सताया जाना और मर्दवादी सोच वाले पुरुषों द्वारा स्त्रियों को रौंदा जाना- साहित्यिक बाज़ार में चलने वाले पक्के मुहरे हैं।
खैर, मैं बात तो कर रहा था दुखों की, मैं दरअसल एक फर्क जानना चाहता था अपने दुःख और पराये दुःख का। दरअसल मैं पहचान भी करना चाह रहा था अपना दुःख और पराया दुःख की, लेकिन शायद मसला इतना उलझता जा रहा है कि..... चलिए फिर कभी।

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

मैं एक शिक्षक (कविता )

मैं एक शिक्षक
एक मध्यम वर्ग का संकुचित,
कुंठित आदमी।
बाहर की दुनिया में हुई तब्दीली से
बाखबर,
चंद सपने- अपने, बच्चों के, परिवार के
बहुत अधिक अपेक्षाएं दुनिया की, समाज की
सपनों और अपेक्षाओं की प्रत्यंचा से
धनुष की तरह तना मैं
एक शिक्षक
न तो ढंग से किसी बाप का फर्ज निभाया
न बेटे , भाई या पति का
उपहारों में पाए ज्ञान का बोझ
पीठ पर लादे
लद्दू घोड़े की तरह
सच जैसे दिखने वाले झूठ को
सिखाते हुए
मर जाता है जो जमीर
जिनका जमीर बच गया जिन्दा
वे बन जाते दलाल, नेता या प्रोपर्टी-डीलर
लेकिन जो होते हैं शुद्ध शिक्षक
वे मरते मरते
बचा पाता है चंद शब्द,
' बेचारा बड़ा ही भला था '
लेकिन कोई कभी समझ न पाया दर्द
कि मक्कार और ऐयाश माँ-बाप के बच्चों को
इंसानियत का पाठ पढाना कितना मुश्किल होता है
और कितना जिल्लत भरा।

शनिवार, 14 अगस्त 2010

हम जन्म लें स्वतन्त्र ही, स्वतन्त्र ही मरें

शुभकामनाएँ ह्रदय की अतल गहराई से !
स्वतंत्रता यानि आज़ादी।
क्या हम सबको आज़ादी पसंद है ?
हमने कभी विचार करके देखा है कि हम कितने बंधन में हैं ?
जैसे ही हम सुख का सपना देखेंगे- हम बंधन को , परतंत्रता को निमंत्रण दे देंगे।
और हमने किया।
गांधीजी ने स्वावलंबन की शिक्षा दी, हमने आधुनिकता की दुहाई देकर उससे किनारा कर लिया।
मैं बाहर देखने को नहीं , अपने आपको और अपने अन्दर देखने का निवेदन करता हूँ । आपको वहीँ अपनी आज़ादी तडपती हुई और लथपथ सी तडपती हुई दिखाई देगी।
वो बाज़ार है जिसके आप स्वेच्छा से गुलाम हो गए हैं, सुविधा के लालच में ..........
ऐसा थोड़े ही है कि गुलामी सुख नहीं देती है, देती है जरूर लेकिन अपने इशारे नाचती भी।
खैर!
१५ अगस्त , स्वतंत्रता दिवस आप सबको बहुत बहुत मुबारक हो। नमस्ते।

सोमवार, 9 अगस्त 2010

जाति पर आधारित जनगणना ज़रूरी है क्योंकि.......

जाति पर आधारित जनगणना ज़रूरी और बहुत ज़रूरी है क्योंकि हमारे महान देश में बहुत सारे संवैधानिक व्यवस्था जाति के आधार पर ही तय होती है। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण हो सकती है, लेकिन यह एक तथ्य है। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता।
बहुत लोग ऐसे हैं जो इस जातीय अंधकार का फायदा उठाकर अपने दुश्चक्रों को पूरा कर लेते हैं। मसलन, बहुत सारे ऐसे लोग है जो सवर्ण होते हुए अनुसूचित जाति का नकली दस्तावेज बनवा कर वैसी सरकारी नौकरी और सुविधाएँ प्राप्त कर लेता है जिसके लिए वह सर्वथा अयोग्य होता है। आप नजरें उठाकर देखें तो आप खुद भी ऐसे नीच किस्म के लोग दिख जाएँगे। ऐसा सिर्फ इसलिए होता है कि हमारे संविधान ने ऐसी सुविधाओं की व्यवस्था पहले ही कर राखी है।
और कहने की आवश्यकता नहीं है कि कोई भी विवेकशील, प्रगतिशील और न्यायप्रिय व्यक्ति ऐसे दुश्चक्रों का समर्थन करना पसंद नहीं करेगा।
यदि जाति की संवैधानिकता पहली बार तय हो रही होती तो शायद विरोध करने का कोई अर्थ भी होता। लेकिन जब यह एक सुनियोजित व्यवस्था की तरह हमारे देश पर फरहरा लहरा रही है वैसे में इसके विरोध का कोई औचित्य समझ में नहीं आ रहा है, कि कुछ मतवाले लोग की बात का विरोध कर रहे है।
एक व्यक्ति को मैं जानता हूँ, अपने प्रान्त में वह अन्य पिछड़ा वर्ग में आता है, वह इसी वर्ग का प्रमाणपत्र बनवाने गया , लेकिन जो भी मूर्ख अफसर या क्लर्क बैठा था, उसने उससे कहा कि उसका अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र बनेगा और उसने बनवा भी लिया क्योंकि इसमें अधिक फायदा था। ऐसे जातीय अंधेपन को दूर भागने का एक मात्र जरिया है जाति-आधारित जनगणना।
मित्रो,
जाति पर आधारित कदाचार, समर्थन और घेरे बंदी का विरोध किया जा सकता है तो करें। इस कृत्य हमारा भी सहयोग होगा।

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

समर्थ की मौत पर सौदेबाजी

कोई बारहवीं का छात्र, समर्थ, कथित रूप से आत्महत्या कर चुका है। उसके जागरूक पिता और परिजन उसकी 'बाला-मित्र ' के पिता पर यह आरोप लगा रहे हैं कि इन्होने ही इस मासूम से समर्थ को आत्महत्या के लिए उकसाया है। मामला गंभीर भी है, मजेदार भी। गंभीर इसलिए, क्योंकि मसला मौत का है और मजेदार इसलिए कि ऐसा आरोप मैंने पहली बार सुना है।
हालाँकि यह कोई नहीं जानता कि आत्महत्या के लिए दरअसल उकसाया किसने ? उसकी गर्लफ्रेंड के पिता ने या स्वयं इसके पिता ने ? लेकिन कुछ मेल वगैरह को साबुत बना कर समर्थ के व्यवसायी समझ के पिता उस पिता से ब्लैकमेल कर रहा है जो भारतीय समाज में एक लड़की का पिता है। और, गौरतलब है कि हमारा जागरूक मिडिया बड़े ही अद्भुत ढंग से इस नाटक में निर्देशक , निर्माता तथा कैमरा मैन की भूमिका अदा कर रहा है।
मुझे बेहद ख़ुशी है कि हमलोग अब बहुत तरक्की कर चुके हैं। यदि कोई बेटी या बहन से प्यार करता है यानि पटाता है तो हमें बहुत खुश होना चाहिए और उस महान पुरुष को एकांत प्रदान करना चाहिए, खासकर जब वह आपकी बेटी को बहला रहा हो। अगर आपने उस लड़के को यह कहा कि .......... तो वह दुखी होकर आत्महत्या कर सकता है और उस मासूम की हत्या की जिम्मेदारी आपकी होगी। और तमाम न्यूज पेपर वाले और न्यूज चैनल वाले आपका जीना हराम कर सकते हैं। क्योंकि अमेरिका में ऐसा ही होता होगा।
बेचारे बापों की कितनी ही बेटियों ने फरेबी प्रेमियों के छल के मारे आत्मघात करती हैं और गरीब बाप भारतीय समाज का होने के नाते कितना जिल्लत और फजीहत भोगते हुए अधमरा होकर रह जाता है ....... इसका भी दस्तावेज बने।
मेरी समझ है कि समर्थ के बाप ने अपने बेटे को जलील किया, जुबानी जलील किया -इस वजह से उसके बेटे ने आत्महत्या की लेकिन उसका ओछा बाप इसकी जिम्मेदारी उसकी कथित प्रेमिका के बाप पर डाल रहा है।
भारत जैसे देश में बेटी का बाप यूँ ही अधमरा होता है उसे और मत मारो, समर्थ के बापको पकड़ो , असली अपराधी वही है और अपने कुकृत्य को छुपाने के लिए सारा प्रपंच फैला रहा है।

बुधवार, 30 जून 2010

पुलिसवालों की ड्यूटी

वह पुलिसवाला जो रिश्वत कमाने के गुर में माहिर नहीं होता, उसे अपने बॉस की लात खानी पड़ती है। जो बड़ा अफसर होता है उसे अच्छी और आदर्श की बातें करनी होती है। उन आदर्श की बातों में से छोटे पुलिसवालों को पैसे की उगाही करनी पड़ती है। एक उदहारण आपके सामने पेश करता हूँ :
समस्या आई कि बाइक का , पुरानी बाइक का इस्तेमाल आतंकवादी बमविस्फोट के लिए करते है, तो बैकों पर निगरानी रखे। बड़े साहेब ने मुंह फाड़ दिया कि हम निगरानी रख रहे हैं। फिर क्या था, छोटे छोटे थानेदार बांस-बल्ली लेकर जगह जगह बैरियर बनवाने लगा और बाइक वालों को परेशान करने लगा।
अब आप कहेंगे कि वे तो जाँच करते हैं हमें उनका सहयोग करना चाहिए क्यंकि मुद्दा नागरिक सुरक्षा का है।
देखिये, वे कुछ इस तरह नागरिक को परेशान करते है,
आपको हाथ देकर रुकवा लेंगे।
फिर आपका ड्राइविंग लाइसेंस मांगकर रख लेंगे।
फिर और बंकि कागज , जैसे इश्योरंस , आर सी , पोल्यूशन सर्टिफिकेट वगैरह मांगेंगे।
कोई कम निकला तो चालान करेंगे।
आप शरीफ दीखते है तो गहराई से काटेंगे।
आप अगर देर होने की बात कहेंगे तो यूँ ही बिना कारण और देर कराएंगे।

इन सबसे बचने का एक तरीका है। उसी के लिए ये सारा ताम-झाम होता है।
जैसे आपको रुकने का निर्देश मिलता है आप रुकें, छोटा गाँधी (रू १००) पकड़ा दे और चलते बनें।
आपको अक्सर लगेगा कि बेचारे पुलिसवालों को भी क्या ड्यूटी दे दी गई है कि बाइक स्कूटर चेक करो, लेकिन आपने कभी ऐसी गाड़ी देखी है जिसे पुलिसवालों ने पूरे कागज न होने के कारण बंद कर दिया हो।
नहीं।

शुक्रवार, 28 मई 2010

जात हटाना है तो संविधान से हटाओ, है हैसियत ?

मैं इन भावुक समाज-सुधारकों से खुले तौर पर बताना भी चाहता हूँ और पूछना भी चाहता हूँ कि हमारा संविधान जात-पांत के भेद भाव को स्वीकार करता है, तो क्या आज से पहले किसी जातिवाद विरोधी ने संविधान के विवेक पर सवाल उठाया ? नहीं।
संविधान जाति के आधार विशेषाधिकार देने को तैयार है तो जनगणना में जाति का स्पष्टीकरण आ ही जाएगा तो क्या फर्क पर जाएगा ?
हाँ , कुछ लोगो को जाति बताने में दिक्कत आ सकती है। जैसे कांग्रेस के एक महासचिव को।
मुझसे व्यक्तिगत राय ली जाय तो मैं यही कहना चाहूँगा कि मैं बहुत ही उत्सुक हूँ।
जब तक बाप का नाम पूछा जाता रहेगा, जाति बनी रहेगी।
क्या जब आपको किसी खास जाति का बताया जाता है, सम्मानित करने या अपमानित करने को, तो क्या आपका ह्रदय इसे अनसुना कर पता है ।
मैंने तो हिंदुस्तान के लोगो को दो दो जाति सूचक नाम लिखते देखा है, जनगणना में तो एक जाति पूछी जानी है। इसके विरोधियों के पास कोई ठोस तर्क नहीं।
जाति एक सामाजिक तथ्य है , इसे स्वीकार करने में न कोई हर्ज़ है और न ही कोई नुकसान।
मैंने जब सुना था कि जाति पर आधारित जनगणना होने वाली है तब से मुझे गुदगुदी सी अनुभूति हो रही है क्योंकि इससे जातिवादियों की कलई खुलेगी जो भारतीय समाज के समग्र उत्थान के लिए लाभकारी ही साबित होगा।

रविवार, 16 मई 2010

जाति और जातिवाद को लेकर इतनी घबराहट क्यों है ?

जाति को जनगणना के प्रोफार्मा में एक कालम बनने की बात जबसे आई है- लोगों में, खासकर तथाकथित बुद्धिजीवियों में अजीब सी घबराहट दिखाई दे रही है। समझ में नहीं आता कि यह घबराहट क्यों है ?
कहना न होगा कि जाति का सम्बन्ध जन्म से है और जब तक किसी नाम के साथ बाप का नाम जोड़ा जाता रहेगा, जाति अपने आप प्रसृत होती रहेगी। बहुत से समझदार लोगों को लगता है कि जाति का निर्माण किया गया है। किसी काल में कुछ सत्ताधारियों ने पंचायत बुलाकर जाति तय कर दी। लेकिन क्या ऐसा किया जा सकता है ? यह निवेदन उन लोगों से है, जो ऐसा सोचते है कि जाति एक निर्मिति है, एक बनायीं गई व्यवस्था है।
जाति का सम्बन्ध परिवार से है, परिवारवाद से है। यदि किसी में हिम्मत और नैतिक बल हैं तो परिवारवाद का विरोध करे। इंदिरा गाँधी का परिवार, फारुख अब्लुल्ला का परिवार, मुलायम सिंह यादव का परिवार, करूणानिधि का परिवार वगैरह, वगैरह। ढूंढने जाओ तो आपके इस महान देश में सैकड़ों परिवार का, जो परिवारवादी हैं , आप खुले दिल से समर्थन करते हैं। उस समय आपको जातिवाद नहीं खटकता है।
कोई जनगणना में आये " जाति " शब्द से चाहे जितनी चिढ जताए , कोई अपनी जाति भारतीय बताए , कोई गर्व करे या कोई घृणा दिखाए। बात समझने और विचार करने की यह है कि यदि जाति और जातिवाद इतनी गन्दी और कुत्सित बात है तो सबसे पहले इसे संविधान से निकलवाने का आन्दोलन करें और दूसरी बात इसे एक बार व्यवस्थित तो होने दें। यदि यह सचमुच बुरा होगा तो इसे समाज और जनमानस अपने त्याग देगा।
जाति की सूचना घबराने की वस्तु नहीं, धैर्य रखे और आप स्वयं किसी जाति-आधारित गोष्ठियों में न जाएँ।
सिर्फ कह देने से आप जाति का समर्थन नहीं करते, यह साबित नहीं हो जाता कि आप जातिवाद विरोधी हैं। आप कुछ भी करे तो आपको उचित लगता है और यदि आपके कृत्य को सैद्धांतिक जामा पहनाया जा रहा है तो आपका जी जलता है।
मैं इस " जाति आधारित जनगणना " का समर्थन करना चाहता हूँ ताकि छुपे हुए जाति का प्रपंच करने वालों से निज़ात मिलेगी। हजारों वर्षों से विद्वानों ने हमें यही तो सिखलाया है कि सत्य को अनावृत करो, यदि यह ढकोसला होगा तो स्वतः नष्ट हो जाएगा। इसलिए हे जाति और जातिवाद के छद्म विरोधियो ! धैर्य रखें, बिलकुल न घबराएँ।

सोमवार, 10 मई 2010

ललित मोदी नहीं, दलित मोदी

बड़ा ही मज़ेदार वाकया है।
प्लेटो ने समझाया था कि गणतंत्र में तीन तरह के लोग होते है- १) जो खिलाडियों से खेल कराता है यानि सत्ताधारी वर्ग, २) जो खेल दिखाता है यानि परफोरमर, मसलन धोनी, सचिन, युवराज वगैरह और ३) जो खेल देखता है और पैसा फेंकता है यानि जनता यानि मैं, आप, मेरे और आपके पडोसी।
ये हिसाब था छोटे से गणतंत्र का।
हमारा भारत महान गणतंत्र है। यदि आपको नहीं पता है तो अपना सामान्य ज्ञान बढाइये।
तो उस महान गणतंत्र में, ( वैसे सभी गणतंत्रों में ) बेवकूफों यानि जनता की संख्या बड़ी, बहुत बड़ी होती है। मैं उन लोगों से करबद्ध क्षमा मांगता हूँ जिन्हें बेवकूफ होते हुए भी कहलाना पसंद नहीं है, आशा नहीं पूर्ण विश्वास है, माफ़ जरुर करेंगे। जैसे थरूर, अपने भूतपूर्व मंत्री जी , को माफ़ किया। मैं तो बेवकूफ कह रहा हूँ , वे तो जानवर कह रहे थे। भूल गये क्या कैटल क्लास ?
सो खेल करवाने वाले तो कहाँ कहाँ विराजते है यह सरकारें भी नहीं जान पाती, हम तो निरीह जनता हैं। हाँ , हो सकता भगवान जानता हो, पर हम भगवान को नहीं जानते, वर्ना उन्हीं न पूछ लेते कि भैया ये दाऊद नाम की कहानी का असली हीरो कहाँ रहता है ? या यही बता दो कि कोई दाऊद है भी या कोई हमारा अपना ही उसके नाम पर खेल खेला रहा है ?
तो भाई , यह गणतंत्र है और गणतंत्र में जब जनता खुश तो सरकार खुश। दाऊद की थोड़ी सी बुराई करके सट्टा-बाज़ार खुश, अख़बार खुश, तो बेचारा ललित मोदी को क्यों घेरा गया? क्यों उसे दबा कुचल कर दलित मोदी कर दिया ?
सुनंदा पुष्कर जैसी संभ्रांत महिला से जो भिड गया था । उससे जिसने दो दो खसम को किक कर दिया है पहले ही, थरूर को उसका सुरूर हुआ - इसी वजह से सारा कुसूर हुआ।
भूल गए क्या ?
पांचाली के साथ ऐसी गुस्ताखी दुश्शासन ने किया था जिस कारण भीम ने उसकी छाती के लहू से द्रौपदी की केश सज्जा की थी।
माफ़ करना भाई ललित मोदी, थरूर तुम्हारा दलन अवश्य करवाएगा सो तुम्हारा दलित मोदी बनना तय मानो और हम खेल के प्रेमियों बेवकूफ जनता को तो माफ़ ही कर दो।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

आज मन बहुत उदास है

आज मेरा मन बहुत उदास है। उदास ही नहीं, खिन्न भी है। कभी-कभी मन अचानक उदास हो जाता है। आप सोचते रहते हैं कि क्यों उदास है ? तो जबाव में कुछ भी हाथ नहीं आता।
लेकिन सोचने से उदासी दूर हो जाती है, लेकिन यह बहुत बुरा होता है।
उदास होना बुरा नहीं होता हमेशा बल्कि मुझे लगता है कि हमेशा खुश रहना ही बुरा है।
मैं अभी उदास था और सोचने लगा कि क्यों उदास हूँ फिर उदासी गायब हो गई, अब मैं क्या करूं ?
उदास था तो मन आराम कर रहा था, शांत-प्रशांत सागर की तरह गहरा और ठहरा, एकांत और निर्मल।
कभी आपने गौर किया है कि ख़ुशी का सम्बन्ध हमारी मूर्खता से होता है !
नहीं, नहीं, कोई अटपटी बात नहीं कर रहा। तुलसीदास गोसाई ने भी इस प्रसंग में कुछ कह रखा है हम सब के मार्ग-दर्शन के लिए,
सब ते भले विमूढ़, जिनहि व्यापत जगत गति
सभी उदास नहीं हो सकते।
अमूमन लोग खुश या दुखी रहते है, उदास सिर्फ वही होगा जो दूसरों की फ़िक्र करेगा
और जो अपनी उदासी की चिंता करेगा वह दूसरों के विषय में अधिक गंभीरता से विचार न कर सकेगा। जैसे, मैं।
अब मैं उदास नहीं स्वार्थी व्यक्ति के रूप में बदल चुका हूँ, मुझे माफ़ कर दें.

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

माँ ! मुझे तुम याद क्यों न आती

माँ!...............
तुम मुझे याद क्यों न आती हो, माँ!
मैं इतना क्यों उलझ गया हूँ समय से
कि तुम्हारी ममता का सच कहीं खो गया मुझसे
कभी जब चल पड़ा था तरक्की के रास्ते
तुम्हारे मना करने के बावजूद
मना कर दिया था अतीत को ढोने से
माँ ! तुमने तो कहा था साफ-साफ
कि जाना है तो जाओ छोड़कर अपनी माँ को
मैं चल नहीं पाऊँगी तेरे साथ
मैं अपनी जन्म भूमि को छोड़कर
कोसता हुआ तुम्हे
तुम्हारी दकियानूसी सोच को
चल पड़ा था अरमानों की गठरी दबाए
रुक नहीं पाया हूँ आज तक
और न जाने
कितनी देर और कितनी दूर तक चलता जाऊंगा माँ!
माँ !
मुझे पुकारो मेरे स्नेहिल नाम से
चाहे तुम जहाँ भी हो
मुझे मिल जाएगा आइना
मेरी अपनी आँखों में भी समा जाएगी खुद की पहचान
माँ......
एक बार
बस एक बार याद आओ माँ
मैं तुम्हे कैसे भूल गया
माँ.... माँ......माँ .....
मैं तुम्हे कैसे याद करूँ
बताओ न माँ !

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

भारत के हिंदी मिडिया को ' थू' है

मैं इन दिनों , जब सानिया मिर्जा के शादी के मसले पर हांफ-हांफ कर बताते हुए समाचार चैनलों पर बेचारे पुतले जैसे पत्रकारों को देखता हूँ तो उन कम-नसीबों पर बड़ी दया आती है और मिडिया के प्रबंधकों के मुंह पर थूकने का ख्याल आता है
सानिया मिर्जा अगर पाकिस्तानी क्रिकेटर से शादी कर लेगी तो भारत की जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ में कट जाएगी वैसे ही उछल कर समाचार पढने वाले चैनल के ख़रीदे हुए गुलाम पूरे जहान को ताकीद कर रहा/रही होते है।
मुझको सानिया मिर्जा गलत नहीं लगती है, खासकर इस मसले पर। बेचारी टेनिस में जितना कुछ कर पाई उतना किया। अब बेकार हो रही है। ऐसे में अगर वो अपने औरताने शरीर को बाज़ार में बेच- परोस रही है तो हमारा निष्पक्ष हिंदी समाचार चैनल क्यों पिम्प का काम कर रहा है ?
और शिवसेना का राष्ट्रवाद तो है इसी दर्जे का राष्ट्र वाद। बिहार, उत्तर प्रदेश के लोगों महाराष्ट्र से निकाल दो तो ' ठाकरे' चचा-भतीजे सानिया पाकिस्तानी से ब्याहे या किसी की दूजी बीबी बने - तुम्हारी क्यों दाढ़ी सुर्ख हो रही ?

बुधवार, 24 मार्च 2010

वह कौन था जो झांकता था मेरी जिन्दगी में

वह कौन था जो झांकता था मेरी जिन्दगी में
और कर जाता है जलजला
गोया कभी कोई चेहरा न दिखा
जब कभी दिखा भी तो खामोश कर गया जुबान
कि वो तो दुश्मन नहीं, दोस्त ठहरे
जो बिना दस्तक दिए
मेरी चौखट में हो गए थे मेहमान
किसी ने देखा उन्हें आते या जाते कभी
जब समझ आया तो ज़माने ने कहा अपने है
वह तो बहुत बाद गुमान हुआ
कि वो मोबाईल फोन है
अब मैं खामोश हूँ
और बेजार हूँ ज़माने से
यूँ अकेलापन है तो सुकून है और राहत है
वरना वो झाँकने वाले कि मुहब्बत की कसम
हम बेचैन थे
पर खौफ नहीं अब कोई।

मंगलवार, 16 मार्च 2010

समय और दुनिया : मेरा और तुम्हारा


मेरा समय; तुम्हारा समय यानि कविता समय !


सबको अपने समय में ही खुशियाँ मनानी है, गम उठाना है। और और बहुत सारे सुकर्म-कुकर्म करने हैं। जैसे, झूठ नहीं बोलने का वादा करके झूठ बोलना है। और फिर पकड़े जाने पर 'हें..हें...हें....' करना है या झूठ बोलने की अपनी कोई मज़बूरी बतानी है या मुकर जाना है या अकड़कर यह कहना है कि झूठ बोल ही दिया तो क्या पाप कर दिया !


चाहे जो करना है , अपने समय में करना है।


अपने समय को समझना अत्यंत दुष्कर कार्य है। लोग बहुधा अतीत में जीते हैं। अतीत में जीना तुलनात्मक रूप से आसान और सुरक्षित है। मनुष्य जब भी अपनी पराजय का आभास पाता है अतीत की भागने लगता है। उसे लगता है कि अतीत में हार नहीं सिर्फ जीत है।


अतीत एक ठहरा हुआ वाकया है इस लिए हम उसका जैसा चाहे वैसा तर्जुमा कर लेते हैं। हम अतीत को अपनी जरूरत और रूचि के अनुरूप गढ़ लेते है । कहा जा सकता है कि अतीत एक लोंदा है गीली मिट्टी का और उसे अपनी मर्जी के रूप में गढ़ लेते हैं और बच्चे की तरह खुश हो उठते हैं। खैर!

लेकिन अपने समय में अपनी मर्जी नहीं चलती ; हालाँकि हम कम कोशिश नहीं करते हैं अपनी मर्जी चलाने की। इसका मतलब यह भी नहीं कि हम और आप बिलकुल ही बेबस और लाचार हैं ! नहीं, यहाँ आवश्यकता होती है खुद में सुघट्यता लाने की और तदनुरूप प्रति-व्यवहार करने की ......

मैं कहूँगा कि समय रहस्य नहीं , समय एक रौशनी है। एक ऐसी रौशनी जिससे बहुधा सामान्य जन की आँखें चुंधिया जाती है ।

मेरा समय और तुम्हारा समय उतना ही पृथक और भिन्न है जितना मेरी दुनिया तुम्हारी दुनिया से अलग है। हम सभी अपनी अपनी दुनियाओं की धुरी होते है ......


सोमवार, 8 मार्च 2010

महिला दिवस की राजनीति

महिला दिवस है, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है तो स्त्री-सशक्तीकरण की बात अवश्य की जानी चाहिए। किन्तु मैं कुछ सवाल करना चाहता हूँ, खुद से, आप से, और खास कर राजनैतिक दल और महिला संगठनों से।
आज अब बात काफी पुरानी सी हो रही है महिला आरक्षण को लेकर। संसद में महिला-आरक्षण हो यह बात भारतीय राजनीति के लिए काफी पुरानी है। तो ऐसी स्थिति में
१) भारत की राजनैतिक पार्टियों ने, जो बढ़-चढ़कर 'महिला-आरक्षण' की राजनीति कर रही हैं , अपनी पार्टी के स्टार पर इस तरह का कौन सा नज़ीर पेश किया है? कितनी महिलाओं को किस उन पार्टियों ने अपने दल में स्थान दिया और कितनी महिलाओं को अपना चुनावी उम्मीदवार बनाया ?
२) कुछ चेहरों को सामने लाकर रख देने भर से क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि भारत में महिलाओं को उचित दर्जा मिल चुका है ?
३) बृन्दा करात, सोनिया गाँधी का इस लिए राजनीति देदीप्यमान नक्षत्र की तरह चमक रहे हैं कि वे महिलाऐं खुद राजनीति में आए है या उनके साथ उनके पति का लेबल भी साथ है ?
और आखिरी सवाल
४) क्या सामान्य भागीदारी का एक मात्र विकल्प आरक्षण ही रह गया है ? किसी लालू प्रसाद या मुलायम सिंह के सिर ठीकरा फोड़ने से बेहतर यह नहीं होता कि संसद में कानून पास करवाने की मज़बूरी को छोड़कर सभी सहमत राजनैतिक पार्टियाँ अपने अपने दलों ऐसी व्यवस्था करवाते कि ऐसा प्रतीत होता कि वे सचमुच महिलाओं का सशक्तीकरण चाहते हैं ?
लेकिन नहीं, कोई ऐसा चाहता नहीं - बस राजनीति की जा रही है, राजनीति। यदि कुछ समाजवादी दल महिला आरक्षण में जाति के आधार पर कुछ हिस्सेदारी सुनिश्चित करना चाहते है तो इसमें बुराई क्या है ? या आरक्षण का लाभ सिर्फ ' छम्मक छल्लो ' किस्म की महिलों को ही मिले ?

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

डॉ धर्मवीर: एकमात्र दलित चिन्तक

हिंदी के दलित लेखक और चिंतकों में डॉ धर्मवीर ही ऐसे हैं जिन्हें निस्संदेह दलित लेखक माना जा सकता है। शेष लेखक इनके फुटनोट होने लायक भी नहीं हैं क्योंकि इनको छोड़कर किसी और के पास चिंतन की स्वतन्त्र तर्क-सरणी नहीं है।
दलित-विमर्श का वास्तविक प्रतिपक्ष यद्यपि परंपरा और परम्परावाद है तथापि इनका बौद्धिक प्रतिपक्ष कथित प्रगतिशीलता है। गैर दलित प्रगतिशीलों ने दलित-विमर्श का भी झंडा हडपने की बड़ी और लम्बी कोशिश की और क्योंकि बौद्धिकता का लगाम उन्हीं गैर दलित प्रगतिशीलों के हाथ में था इसलिए स्वीकृति की कुटिल राजनीति के जरिए कम और नाजुक बुद्धि वाले दलित लेखकों को अनावश्यक महत्त्व देकर दलित विमर्श की मुख्य धारा को कमजोर करने की अद्भुत कोशिश की।
डॉ धर्मवीर इस कुटिलता से प्रारंभिक दिनों से वाकिफ और होशियार रहे।उनकी ऐसी सावधानी को देखकर, गैर दलित बुद्धिजीवियों ने कुछ पालतू दलित प्रगतिशीलों से उनपर शारीरिक आघात का भी प्रयास करवाया था, यह भी सनद रहे।
अब, चूँकि साहित्य भी एक व्यवसाय है और हर व्यवसाय की मानिंद इसमें भी स्वीकार - तिरस्कार का खेल चलता है , जिसकी ओट लेकर दलित-विमर्श के शत्रु मित्र-रूप से शामिल होकर इसकी जड़ को ही दूषित करने का षड्यंत्र कर रहे हैं। इस षड्यंत्र से विमर्शकारों को तो होशियार रहना ही चाहिए। किन्तु यह बात भी तय है कि अकेले डॉ धर्मवीर इन झंझावातों के निपटान में सक्षम होंगे।
ध्यान रखने की जरुरत है कि दलित-विमर्श हो या स्त्री विमर्श , यह सिर्फ कोरी भावुकता से बनी नहीं रह सकती है। इसके प्रतिपक्ष सिर्फ ब्राह्मणवाद अथवा मनुस्मृति नहीं है। जड़ें गहरी है। जब तक सामानांतर विश्व-दृष्टि का प्रस्ताव नहीं होगा तबतक इसका कोई दूरगामी परिणाम नहीं होगा।
डॉ धर्मवीर के लेखन और चिंतन में एक नई विश्व-दृष्टि की सम्भावना और प्रस्तावना देखी जा सकती है।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

टूटी हुई डोर

टूटी हुई डोर !
किसी कारण से - चाहे अधिक खींचने से, या कमजोर होने से या घिस जाने की वजह से टूट गई डोरी, जगत लगाकर जोड़ ली जाती है।
गांठ भले ही पड़ जाती हो पर वह जुड़ जाती है।
टूटी हुई डोरी से गांठ लगी डोरी मुझे अधिक बेहतर मालूम देती है।
यह संसार है , जोड़-तोड़ लगा रहता है।
हम खुद भी जोड़ - तोड़ में लगे रहते है।
जोड़-तोड़ से अच्छा याद आया कि बिना विघटन के यानि तोड़-फोड़ के नव-निर्माण तो संभव ही नहीं है।
नीड़ का निर्माण फिर-फिर
सृष्टि का आह्वान फिर-फिर !
टूट गया या तोडा गया ; इसके पीछे मंशा क्या रही - यह महत्त्व की बात है।
हर विघटन के बाद सृजन होता ही हो , ऐसा अनिवार्य नहीं।
वैसे ध्यान से देखा जाय तो विघटन और सृजन दो अनिवार्य रूप से पृथक और स्वायत्त परिघटना है।
जो टूट गया सो टूट गया.....

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

अलक्षित.ब्लागस्पाट पर कविताप्रेमियो की बढती संख्या को सलाम

आप सबके लिए बनाए गए अलक्षित.ब्लागस्पाट.कॉम पर आने वाले, कविता का रसास्वादन करने वाले दुनिया भर में फैले हुए मित्रों को कवि रवीन्द्र कु दास धन्यवाद सहित नमन करता है।
दोस्तों,
कवि होना कतई अच्छी बात नहीं। यह एक बुराई है। कुछ लोग इसे छद्म व्यापार मानते और कहते हैं, किन्तु वे मित्र हैं तो झूठ नहीं कहते होंगे और मित्र हैं तो उनकी बातों का बुरा भी क्या मानना।
मैं कुछ गंभीर विषय पर आऊं, इसके पहले मैं अपने अनुज सदृश रोशन ( डा. भास्कर लाल कर्ण ) का धन्यवाद और साधुवाद आप लोगों से शेयर करना चाहता हूँ क्योकि उक्त ब्लॉग इसी महाशय के आदेश पर, और प्रयास पर भी, प्रकाश में आ पाया था। रोशन जी, धन्यवाद.
तो बात जहाँ तक कविता की है - इस विषय में दो बातें बहु- स्वीकृत हैं। एक तो यह सबसे पुरानी साहित्यिक विधा है और कविता किसे कहा जाय, यह विवाद का विषय है।
बहरहाल मैं अपने को कवि मान चुका हूँ और जो अलक्षित पर दीखता या दिखती है बेचारी कविता के रूप में ही निवेदित है।
लगभग २० वर्षों से कविता लिखता आ रहा हूँ और इसके सामानांतर यह सोचता भी आ रहा हूँ कि जो मैं लिखा है वह कविता है या नहीं ? और मैं कविता आखिर लिखता ही क्यों हूँ ? बात अचम्भे की हो सकती है पर सच यही है।
'सच यह है कि मैंने तुम्हे पा लिया था
और सच यह भी है कि तुम मुझे छोड़कर जा चुके थे।' (मेरी ही कविता ' कोई कैसे बन जाता है गीत ' से )
कविता कुछ ऐसी ही है मेरे लिए कि वह मुझसे अलग होने मचल उठती है और तब मैं उसे मुक्त कर देता हूँ लेकिन वह बद्ध होकर आप सबकी हो जाती है। मेरी रह ही कहाँ जाती!
खैर! माफ़ करें, मैंने तो बस शुक्रिया अदा करने को उद्यत हुआ था और कुछ अधिक ही कह गया.

रविवार, 17 जनवरी 2010

यह कविता नहीं, सच का बयान है

अकड़ रहे थे हाथ - पैर

मुँह से निकल रहा भाप

थरथरा रहा था सारा बदन

फिर भी कहीं जाना था अनिवार्य

सो चला जा रहा था यूँ ही अकेले मलते हुए हथेलियों को

और लोग भी आ-जा रहे थे

फिर भी पसरी थी वीरानी

कोई ठहरता न था मेरी आँखों में

मैं चला जा रहा था लरजते क़दमों से

यूँ ही कुछ सोचना था

तो सोच रहा था तुम्हे

सच बताऊँ तो तुम्हे सोचना जितना दुःख देता है

उससे कम सुकून भी नहीं देता

गुजर गए दस साल

लेकिन सांसों की तरह बनी रही तुम्हारी याद

यूँ कि बगैर उसके तो मैं था ही नहीं

चला जा रहा था मैं

कि कोहरे से लिपटी तुम्हारी काया

वैसे ही खुले हुए तुम्हारे बाल,

सब्ज साडी के ऊपर काला लम्बा कोट

तुम्हारा दिख जाना

शिशिर की हड्डी में चुभने वाली ढंड में गर्म धूप का अहसास ही तो था

नहीं हो पा रहा था यकीन

भूल गया था कि मुझे जाना कहाँ है ?

मचल उठा था मैं

शायद तुमने देखा नहीं

कैसे उस स्कूटर से टकराते -टकराते बचा था मैं

स्कूटर वाले की बदतमीजी मुझे दुआ सी लग रही थी

थोडा सा भर गया तुम्हारा बदन

हाँ हाँ ! तुम्ही थे

तभी तो मेरे पुकारने पर ' नेहा '

तुमने देखा था पलटकर

मैं भूल गया था सर्दी , कोहरा ,.... सब कुछ

देखो ! फिर मत कह देना कि मैं कविता कर रहा हूँ

नहीं , नहीं, यह कविता कतई नहीं

यह तो मेरे तजुर्बे का बयान है।

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

राम-पियारी हजार मांगती है....!

हर सप्ताह राम पियारी हजार मांगती है !
परेशान-परेशान हो जाता हूँ यार। पर समझा भी कैसे सकता हूँ! न कान है न जुबान।
लगता है, आप भी धोखा खा गए, जैसे मैं खा गया था धोखा।

बात यह है कि मेरा एक दोस्त है जीतू , हाँ, जितेंदर सिंह। उसके पास है एक मरुति८०० , बीस साल की बुढ़िया गाड़ी - जो उसे बहुत प्रिय है। या यों कहें कि मित्र उसे प्रेम करने पर मजबूर है। .......... अरे! हाँ, आप बहुत ठीक समझे। बात की हर तह को खोलना जरुरी थोड़े ही होता है।
जवानी का जोश था , मारुति का टशन था , कहीं से पैसे का जुगाड़ भी हो चला था , सो जीतू ने मारुति खरीद डाली थी।
लेकिन किसी ने कहा है और शायद ठीक ही कहा है , " सब दिन होत न एक समाना"। सो भाई साहेब जीतू जी के भी हाथ तंग रहने लगे। हाथ तंग न हुए बल्कि परिवार बढ़ने से खर्चे बढ़ गए। पत्नी बच्चों में उलझ गई, बच्चे अपनी दुनियाओं में और जीतू के पास प्रेम करने को फिर से बच गई सिर्फ राम पियारी।
लेकिन इन दिनों उसकी खिच-खिच ज्यादा ही बढ़ गई है ।
जीतू एक दिन एकांत पाकर बता रहे थे , यार! हर बात की हद होती है। कई बार जी में आता है बेच दूँ साली को , पर दुसरे पल सोचता हूँ कौन लेगा इसे ? बड़ी ही वफ़ादारी से निभाया है जालिम ने पूरी जिन्दगी और अब मैं हाथ छुड़ा लूँ तो ये गई वाजिब न होगा। एक बार को बीबी ने इंकार किया होगा पर इसने नहीं। सच बताऊँ तो मेरी राम-पियारी मेरे दिल में बसी है। इसे बेचना तो इसको धोखा देना होगा न , एक किस्म की दगाबाजी .........! उम्र हो जाने के बाद इन्सान भी तो बीमार हो जाता है, नहीं!
तो भी हर सप्ताह के हजार मांगने के कारण जीतू थोड़े नाराज अवश्य हैं , सो देखा चाहिए कब तक उनका धैर्य नहीं चुकता है?
वैसे मैं जितेंदर सिंह की इस वफ़ादारी की दलील से बहुत प्रभावित हुआ। फिर भी मैं यह निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ कि मैं वफ़ादारी की तारीफ करूँ या इसे निहायत बेवकूफी समझूँ!
एक सवाल और मेरे जेहन में आता है कि लोग किसी मज़बूरी या विकल्प हीनता की स्थिति में एक दूसरे का साथ निभाते हैं या इसमें उनकी मर्जी भी शामिल होती है ?
मैं आपसे पूछता हूँ - आपकी राय क्या है इस विषय में ?