सोमवार, 31 जनवरी 2011

कालबोध और जीवन

काल जीवन की पूर्व-स्थिति है
सत्ता कालातीत है, किन्तु उसका अनुभव काल- सापेक्ष है
जीवन शुद्ध सत्ता नहीं है
जीवन में सत्ता अनिवार्यतः एक असत्ता पर आभासित [प्रतीयमान] होती है
इसीलिए जीवन की समाप्ति की बात की जाती है
जीवन ज्ञानात्मक होने से सत्तात्मक प्रतीत होता है किन्तु समाप्त हो जाने से असत्तात्मक सिद्ध होता है
काल वस्तुतः शुद्ध सत्ता का निषेधक है
जो काल [और देश] में संबोध्य है वह अनिवार्यतः नाशवान है
काल [समय] कोई वास्तु नहीं, एक चैतसिक पूर्वग्रह है जो अज्ञानमूलक अभ्यास का चेतन परिणाम है जो व्यक्ति के अहम्बोध पर हावी हो जाता है
१० अहम्बोध का तात्पर्य है- स्वयं के ज्ञानवान होने का बोध
११ अहंकार के नाश होने के साथ ही कालबोध[ समय की अनुभूति] भी तिरोहित हो जाता है
१२ सत्ता से साक्षात्कार अहंकार का तिरोभाव है
१३ काल और अहंकार से ही जीवन परिचालित होता है
निष्कर्ष: जीवन को समझने के लिए अपने अहम्बोध और कालबोध को सम्यक रूप से समझें

बुधवार, 26 जनवरी 2011

कविता की बात

मैं कविता हूँ।
मेरा जन्म हुआ या आविर्भाव, मुझे नहीं पता
पर इतना पता है कि मैं
अच्छे-बुरे, स्त्री-पुरुष, दलित-ब्राह्मण अथवा अमीर-गरीब
सभी मनुष्यों के हृदय में रहती हूँ, अवश्य रहती हूँ।
कई बार,
मनुष्यों ने मेरा इतिहास लिखने का प्रयास किया है
और हर वे अपनी ही नज़रों में
हास्यास्पद हुए।
मझे इसका मलाल रहता है हमेशा
कि लोग मुझे उपज मानते है मस्तिष्क की
कि जैसे लोग खाना बनाते है,
कपडे या फर्नीचर बनाते है
वैसे ही हमें यानि कविताओं को भी बनाना कहते हैं
वैसे हमारे साथ इस तरह के
प्रयोशालाई व्यवहार तो सभ्यता के उषाकाल से
होता ही रहा है
लेकिन अभी, इन दिनों आदमजादों का मनमाना व्यवहार
कुछ अधिक ही बढ़ गया है
विमर्शों और विचारों के बकवास के लिए
हमें तोप की तरह इस्तेमाल करते हैं
बहुधा हमारी इज्जत गालियों से भी कम होती जा रही
सतही और एकार्थक प्रलापत्मक गद्य को
कह दिया जाता है कविता
यह संकट कुछ वैसा ही है
जैसे वनस्पतियों पर हाई-ब्रिड का प्रकोप छाया है
मैं आपके भी तो हृदय में रहती हूँ
मेरे वजूद के हिफाज़त के लिए
क्या आप कुछ नहीं करेंगे ?
जी हाँ! मैं आपसे ही निवेदन करती हूँ
हमारी नस्ल को संकर होने से बचाइए
मैं कविता हूँ
मुझे दूषित मत कीजिये ...... ।

रविवार, 23 जनवरी 2011

गणतंत्र और भ्रष्टाचार

किसी भी राष्ट्र का गणतंत्र होना प्रशासनीय है क्योंकि वहां के शासक जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों में से हुआ करते हैं। तकनीकी रूप से, जनता अपने शासन-प्रशासन में भागीदार होता है। इस लिए सरकार पर किसी खास पार्टी का एकच्छत्र दबदबा नहीं होता। विभिन्न तबके, समूह और विचार के लोगों का जनप्रतिनिधि के रूप में चुना जाना हमें दीखता है। संतोष का विषय है कि यह जनता का शासन है। जनता के शासन में, प्रथमदृष्टया ऐसा लगता है कि, भ्रष्टाचार नहीं होना चाहिए, लेकिन तमाम गणतंत्रों में भ्रष्टाचार की कहानियां सुनने-देखने में आती रही हैं। इसका हमें दुःख और अफ़सोस तो होता है, लेकिन हम उसका रचनात्मक प्रतिकार नहीं करते या कर पाते हैं। ऐसा क्यों होता है? हमें, हम गणतंत्र के लोगों को इस पर विचार करना चाहिए।
कोई भ्रष्ट जन-प्रतिनिधि दुबारा चुना कैसे जा सकता है ? मेरी समझ में यह बड़ा अहम सवाल है। मुझे लगता है कि जो हमारी नज़र में गलत है , भ्रष्ट है या दुराचारी है, उसे हमारा मत या समर्थन किसी भी सूरत में नहीं मिल सकता। किन्तु वास्तविकता इसके एकदम विरुद्ध है, बिलकुल खिलाफ है। जो भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जा चुका है, जिसपर अदालत में मुकद्दमा चल रहा है, मिडिया ने जिसके खिलाफ लगभग सबूत देश के सामने पेश कर दिया, एक ऐसा नेता दुबारा- तिबारा जीतकर आ रहा है, वह भी हमारे, हम गणतंत्र के लोगों के निर्णायक मतों से। यह कैसे संभव हो सकता है ? वह व्यक्ति जो हमारी नजर में अपराधी है, भ्रष्ट है, दुराचारी और पापाचारी है, हमारे ही मतों और समर्थन से कैसे जीत सकता है ? मुझे नहीं समझ में आ रहा है ? मैं इस विरोधाभासी परिदृश्य पर अचंभित हूँ, सदमे में हूँ। फिर भी मैं इस 'वास्तविकता' को समझना चाहता हूँ। इस विरोधाभास की तत्त्व-मीमांसा करना चाहता हूँ। कई दिनों, महीनों, सालों, दशकों से इसी विषय पर सोच रहा हूँ कि कोई भ्रष्टाचारी व्यक्ति हमारा जनप्रतिनिधि दुबारा कैसे बन जाता है? जबकि हम उसे धड़ल्ले से सरेआम जिसकी निंदा कर रहे होते है, जिसे कोस रहे होते है, वह चुनाव में उम्मीदवार बनता है और हमारे मतों से चुनाव जीत कर हमारा प्रतिनिधि बनता है।
इन सभी आश्चर्यजनक परिणामों के पीछे एक मात्र कारण होता है, हमारा मत, जो हम चुनाव में किसी के लिए दान करते हैं तब, जब हम मतदान करते हैं। विरोधाभास की तत्त्व-मीमांसा करते हुए जो सबसे मजबूत तथ्य मेरे सामने आता है वह यही है कि वह हमारे मत से जीतता है। यानि हमें वह भ्रष्ट अथवा गलत नहीं लगता। अथवा उसके भ्रष्टाचार में हमारी भी भागीदारी और हिस्सेदारी होती है। दरअसल हमें ईर्ष्या होती रहती है कि उसने हजारों करोड़ का हाथ मार लिया और हम यहाँ हजारों को तरस रहे हैं। हमें वह गलत नहीं लगता बल्कि वह खुदसे बड़ा खिलाडी लगता है। मनोविज्ञान की भाषा में बात करें तो ईर्ष्या प्रशंसा की ही नकारात्मक अभिव्यक्ति है। एक मच्छर भी आदमी को नुकसान पहुंचाता है तो वह उसे मार देना चाहता है तो भला एक आदमी को कोई कैसे छोड़ सकता है!
मैं इस गणतंत्र-दिवस के उपलक्ष्य पर इस सत्य से रू-ब-रू होकर आत्मालोचन का सन्देश देना चाहता हूँ कि गणतंत्र और भ्रष्टाचार का जो चोली-दामन का सम्बन्ध बनता जा रहा है इसके लिए कौन दोषी है, इस पर निष्पक्ष और निडर होकर परामर्श करें, इस परामर्श में अपने मित्रों को भी शामिल करें।
गणतंत्र-दिवस की ढेरों शुभकामनाओं सहित,
आप ही का एक सुदूरवर्ती मित्र।