गुरुवार, 21 मई 2009

अकेलापन से बचने के लिए चीखो, और जोर से चीखो

टेंशन सामान्यतः अकेलेपन का दुष्परिणाम है। अकेलापन कई तरह का होता है। सभी अकेलापनों में वह अकेलापन कि आप बहुत सारे अपनों के बीच रहते हैं लेकिन आपको सुनने वाला , आपको समझने वाला कोई नहीं है। इस तरह के भीड़ के अकेलापन से निजात पाने का रास्ता है कि आप सचमुच अकेले हो जाएँ।
हमारे समय का एक अजब ही दस्तूर है। सभी आपको अपनी बात बताना चाहते हैं। आपके पास ही, मानो, सबसे अधिक धैर्य है कि आप उनकी बात सुनेंगे भी और समझेंगे भी। हाय रे जमाना !
और वहां जहाँ सचमुच आप दो ही व्यक्ति यानि मियां-बीबी या पति-पत्नी रह रहे हैं और दो में से कोई एक अपने जीवन-साथी को नहीं सुन रहा या सुनकर भी नहीं समझ रहा। वहां तो स्थिति और अधिक दारुण है। उन दो अंतरंगों में किसी तीसरे ने (वह तीसरा चाहे कोई हो) प्रवेश किया तो अकेलापन और बढ़ता है, बढ़ता ही जाता है।
एक और प्लेटफोर्म है अकेलापन पैदा होने का- वह है आपका कार्यस्थल यानि ऑफिस । प्रतियोगिता ने इंसानों की नाक में दम कर रखा है। और प्रतियोगिता भी कैसी-कैसी ? आपने कभी सोचा न था जैसे, .......... अपने अपने अनुभवों से समझ लें ।
अकेलापन के और भी कई प्लेटफोर्म है ।
इसी तरह इस अकेलापन की कई और वज़हें भी हैं।
इस स्थिति की वज़ह से डिप्रेसन आदि भयानक बीमारी भी अपना घर आप में बना लेती है। फिर हम मनोचिकित्सकों की सेवा लेने पहुँचते हैं। पता ही होगा कि उनकी दुकान इन दिनों खूब फल-फूल रही है।
यहाँ मैं एक मशविरा देना चाहता हूँ , बिना मांगे ही।
१ ) अकेलापन जब अनिवार्य हो जाय तो उसे बेबसी नहीं शौक बना लेना चाहिए।
२ ) अन्दर की दुनिया बाहर की दुनिया से अधिक खुबसूरत होती है, यकीन मानिये ।
३ ) आखिरी रामबाण नुस्खा-
चीखो , जोर जोर से चीखो , आवाज़ में इतनी तासीर और तल्खी भर दो कि तमाम बलाओं से तुम्हारी रक्षा तुम्हारी ख़ुद की आवाज़ करे।

सोमवार, 18 मई 2009

जाति, धर्म और क्षेत्रवाद से राजनीति की मुक्ति के आसार

पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के नतीजों को देख कर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत की जनता उन थोथे भारतीय समाजवादियों से मुक्ति चाहती है जो सिर्फ़ जाति और धर्म जैसे भड़काऊ और संवेगात्मक मुद्दों के सहारे चुनाव जीत जाया करते रहे हैं। इस बार के चुनावी नतीजों में सर्वश्री रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, कुमारी मायावती की ( निजी ) पार्टियाँ तथा भारतीय जनता पार्टी की राजनितिक अवनति हुई है ।

ये नेता प्रारम्भ में कथित रूप से पिछडे और दलित जातियों और वर्गों की हिमायत करते हुए राजनीति में दाखिल हुए। उक्त विशेष जातियों और वर्गों की जनता ने इन्हें हाथों हाथ लिया भी। चुनावी विशेषज्ञों की भाषा में जाति और धर्म कुछ इस तरह शामिल हो गया कि भारतीय चुनाव का मतलब सिर्फ़ जातीय समीकरणों का संतुलन- असंतुलन है। स्थिति कुछ भयानक और अंतहीन सी प्रतीत होने लगी थी। मानों भारत में जाति के आलावा कोई और सत्य है ही नहीं।

अपना भला चाहना बुरा नहीं है। विशेष वर्ग की जनता अपने भले की चाह में इन नेताओं को उत्साह के साथ जिताती भी रही। उपर्युक्त सभी नेता उसी जाति-वादी समाजवाद की छत्रछाया में पनपे हैं। जाति के नाम पर मतवाली हुई पड़ी जनता के मतों से जीत-जीतकर ये नेता अपने मतदाताओं को ही बेवकूफ समझने लगे। इन्हें सत्ता के सुख का स्वाद लग गया। ये नेता लोग जनता को अपनी निजी संपत्ति समझने लगे।

चुनावी विश्लेषकों का कहना कि अमुक नेता को अमुक जाति का वोट मिलेगा- इन्हें सच लगने लगा। उन विशेष वर्गों के वोटर इन नेताओं के साथ इसलिए थे कि उन्हें उम्मीद थी कि ये नेता उनके वर्ग को भला चाहते हैं। लेकिन महान जातिवादी मतदाताओं को जब यह भान हुआ कि इन्हे हमारे उत्थान से नहीं , अपने उत्थान से ही मतलब है तब वाही भटकी हुई जनता चौंक कर जग उठी है।

दोस्तों! यह शुरुआत है। सन १९८९ में यह जातिवादी समाजवाद भारतीय राजनीति के आकाश पर दहकते हुए नक्षत्र की तरह उभरा - बीस वर्षों तक चमकता रहा । परिणाम ?

रामविलास पासवान का रिकार्ड वोट से जीतना और फिर हार?

गुरुवार, 14 मई 2009

माधोप्रसाद के चरित्र के विषय में

माधोप्रसाद कोई अनोखा अजूबा या अनदेखा सा आदमी नहीं है । आपने भी अवश्य देखा होगा उसे। आपको यकीन नहीं आता? चलिए , मैं आपको अभी मिलवाता हूँ।
दोस्तों ! दरअसल मैं आप लोगों की अनुमति और अनुशंसा चाहता हूँ। यदि आप लोगों की आज्ञा होगी तो मैं आप सबको माधोप्रसाद की बहुत सारी कहानियाँ सुनाना चाहूँगा। सिलसिलेवार, धारावाहिक की तरह।
इसका कारण बस इतना है कि माधोप्रसाद है ही इतना प्यारा कि आप भी जानेंगे तो आप भी उससे प्यार कर बैठेंगे । अरे! नज़र घुमा कर देखिये - आपके बगल में ही कोई माधोप्रसाद खड़ा होगा।
चौंकिए मत , मोधोप्रसाद किसी व्यक्ति का नहीं, प्रवृत्ति का नाम है।
तो फिर आप सब मुझे अनुमत करें तो मैं मधोपसाद की नई कहानी आपके नज़र करूँ!

शनिवार, 9 मई 2009

माधो प्रसाद के ससुर की कार

वैसे तो माधोप्रसाद दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी कोलेज के प्रोफेसर हैं । अच्छी खासी तनख्वाह है , प्रेम विवाह किया है सो वाइफ भी कमाऊ है । लेकिन उनके प्रेम विवाह का समाजशास्त्र तनिक अनोखा है।

जब प्रेम करने की प्रक्रिया में थे तो उन्होंने ढंग से पता किया -ससुरों के बारे में तो साफ हुआ कि ससुरे की बस को बेटियाँ ही बेटियाँ हैं लेकिन ससुरे ने ठीक ठाक दौलत इकट्ठी कार रखी है -मन ही मन मुस्कुराकर माधोप्रसाद ने प्रेम को परवान चढाया ।

ससुर पर दबाव बनाने के लिए पत्नी को उल्लू बना कर शादी के बाद भगाया ।

भाग्य का जुदा खेल -

बिना किसी उठा पटक के सब मामला शांत हो गया ।

छः -सात साल पुरानी मारुती-८०० पड़ी हुई थी ससुरजी के पास बिना काम की , सो उन्होंने माधोप्रसाद पर कृपा करते हुए गिफ्ट किया ।

लेकिन माधोप्रसाद ठहरे कम्युनिस्ट सो दोस्तों से बताया कि ससुर से ख़रीदा है। खैर , इस बात के तो कई साल हो चले यानि ४-५ साल ।
ससुर ने पिछले साल खरीदी थी आई टेन।
माधोप्रसाद की नींद साल भर उडी रही, मन बेचैन रहा कुछ जुगत सूझ ही नही रहा था कि किसतरह इस नए कार को हड़पे । वह बेचारी कार भी ससुरे के यहाँ इंटों पे खड़ी रहती, जालिम रिटायर्ड आदमी जाए तो कहाँ जाए ?
माधोप्रसाद को दिन को चैन, न रात को नींद ।
उसने अपनी उस मुर्ख पत्नी को और अधिक मुर्ख बनाने का षड़यंत्र किया। जाकर उसने अपने बाप से कहा कि कार इन्हे दे दो आप तो कहीं आते जाते हो नहीं
पिता ने बेटी की बेवकूफी को समझते हुए कहा कि बेटे, ये कार तो कल ही चोपडा को बेच डाला - अब तो बस एक रास्ता है कि माधोजी पैसे का इनजाम करें तो चोपडा को कार न देकर तुम लोगों को ही दे दूँ । पैसा और कार दोनों घर में ही रह जाएगा ।
अच्छे दिखने की मज़बूरी में माधोप्रसाद को ससुर की कार का वाजिव से अधिक दम देना पड़ा किश्तों में।
शुरू में माधो ने सोचा कि थोड़ा सा पैसा देता हूँ और बाद में देने के नाम पर कार हड़पता हूँ। लेकिन ससुरा तो ससुरा ही निकला, कहा- माधोजी आपमें और मुझमे कोई फर्क तो है नहीं , दिक्कत तो चोपडा है , उसे कैसे समझाऊंगा ।
कमीना माधोप्रसाद खेल तो सब समझता था ,पर बेचारा करे तो क्या करे!
बाज़ार-भाव से ज्यादा पैसा भी देना पड़ा ।
आसपास यही बात फैली कि माधोप्रसाद झूठ बोल रहा है - ससुर कभी पैसा लेगा।
वैसे माधोप्रसाद प्रोफेसर है और कम्युनिस्ट भी है , दहेज़ के सख्त खिलाफ हैं।

सोमवार, 4 मई 2009

खाना बनाना भारत में एक कला है (क्रमशः)

[तो अरुणा जी ने कहा, माफ़ नहीं करेंगे। हमने कहा यह भी खूब हुआ - सज़ा तो मिलेगी। आसान नहीं है कुछ भी पा लेना चाहे सज़ा या इनाम। धन्यवाद अरुणा जी , माफ़ न करने के लिए। बन्धु श्री अनिल ने कुछ बाउंसर पकड़े । किंतु माफ़ करें, मैंने ...... खैर छोड़िए! सभी उतने खतरनाक थोड़े ही होते हैं कि माफ़ ही न करे]

तो मैं बात कर रहा था कि भारत में खाना बनाना कला है तो खाना खाना उत्सव ।
आपने भारतीय गृहणियों को देखा है कभी गौर से । कभी उनके चेहरे का वह संतोष देखा जो उनके चेहरे पर दूसरे को खाना खिलते समय झलकता है । नहीं, नहीं , इस बात को महत्त्व देंगे तब तो खाना बनाना एक तपस्या जैसी स्थिति हो जाएगी। वैसे भी भारतीय पुरूष को जीवन भर संतुष्ट रखना एक बेचारी सुकुमारी नारी के लिए तपस्या से कोई कम थोड़े ही है। मैं फिर बहक गया न ! रस्ते में इतना सुंदर बगीचा दिख जाएगा तो कौन नहीं भटकेगा - सिर्फ़ वही नही जो देखने में अक्षम है।
मैं हर उस की चित्र बना लेना चाहता हूँ जो मुझे भाता है- लेकिन नहीं बना सकता । पता क्यों ? क्योंकि चित्र बनाना जनता ही नही।
आइए मुद्दे पर आते है ।
आप याद करें कि खाने की कितनी चीजों का नाम ध्यान में है ?
आप कितने विलक्षण मस्तिष्क वाले होंगे बहुत सारे आयटम का नाम सुना ही नही होगा । ये सारी बात मैं उनसे नहीं कर रहा जो किताबें पढ़कर खाना बना कर सास को खुश करने का षड़यंत्र करती हैं। अब तो दोपहर का खाना , खास कर शहर के उन्नत परिवारों में, उस रेस्टोरेंट से आता है तो रात के डिन्नर के ख़ुद ही वहां चले जाते है। खाना बनाना पिछडापन माना जाता है , मैं उन लोगो से कत्तई मखातिब नहीं हूँ। माफ़ करें या न भी करेंगे तो चलेगा- गालियाँ भी चलेंगी।
इतिहास के पन्नों में आप आराम से पढ़ सकते है , संस्कृत के ग्रंथों में खोज सकते हैं खाना बनाना एक कौशल था।
याद है कि भीम, हाँ,हाँ, वही पांडवों में नंबर दो -पाककला में बड़े ही प्रवीण थे।
मैं एक गाँव में पला बढ़ा हूँ इसलिए जानता हूँ -
शादी विवाह के मौके पर बहुत सारे ऐसे पकवान मेहमान यानि समधी को परोसा जाता है जो सिर्फ़ तभी दीखता है या कहना चाहिए दीखता था। दादी माँ अब मर चुकी है -कभी कभी टीवी सीरियल में जो दादी या बा दिखती है वो नकली होती है। अब कोई मेरी दादी जैसी दादी कहाँ है जो भारतीय खाना बनाने की कलात्मक संस्कृति को बचा-बचा कर गाँठ बाँध कर रखे।
तो भी आप भारत की आत्मा गाँव में जाकर इस कलात्मकता को जी सकते है- जो व्यावसायिकता से अभी भी अछूते है - इसलिए पवित्र भी है।
अन्नपूर्णा उसी कला की देवी का नाम है।
बुफे सिस्टम और अपने हाथों से परोस कर खिलाने में जो फर्क है - वही फर्क खाना बनाने को व्यवसाय और कला कहने में है।
[आज मैं माफ़ी नही मांग रहा, खुल कर और जी भर सज़ा के लिए हाज़िर हूँ। ]

शनिवार, 2 मई 2009

भारत में खाना बनाना एक कला है

आज के विश्व में भारत की कोई बड़ी ऊँची साख नहीं है। अगर ऐसा होता तो दुसरे देशों में जाकर लोग ग्रीन कार्ड के चक्कर में न पड़ते। कोई न कोई तो कमी होगी ही तभी तो भाई लोग पहले तो फोरेन जाने के लिए जी तोड़ कोशिश करते है बाद में वहां से इंडिया को मिस करते है। हाय रे दैव!
आज के समय की एक और खासियत है और वह है कला का व्यवसायीकरण।
लोगबाग कला का व्यापर कर रहे हैं लेकिन उम्मीद कटे हैं कि उन्हें सम्मान भी मिले !
ये कैसे होगा ?
अख़बारों में छपता है कि अमुक नचनिया का रेट अब एक करोड़ हो गया और उस नाचनेवाले का सम्मान बढ़ जाता है। क्यों?
इसका जवाब किसी के पास न होगा क्योंकि खैरख्वाही लेने वालो का व्याकरण कुछ अलग होता है।
न जाने , मैं भी क्या बकबक करने लगा ?
बात थी खाने की और मै देखने चला गया नाच और तमाशा।
तो मैं बात कर रहा था खाना बनाना भारत में एक कला है ।
हो सकता है कि आप ने कभी भारत का गाँव देखा हो।
वहां हर कम कराती हुई स्त्रियाँ गाना गाती है -धन कूटती हुई , गेहूं पिसती हुई, ............... कर रही होती है मेहनत और मना रही होती है उत्सव ।
विद्वान् लोग और प्रोफेशनल लोग कह सकते है- उत्सवधर्मिता पिछडापन और गरीबी की निशानी है ।
माफ़ कीजिए ,
खाना बनाना सचमुच एक कला है । कैसे? यह भी मैं जरुर बताऊंगा लेकिन कभी और ।
आज और अभी के लिए मुझे माफ़ किया इसके लिए धन्यवाद।