रविवार, 10 अप्रैल 2011

गुमराह हो चला है हमारा समय

पिछले कई दिनों से अन्ना हजारे नामक एक बहुत शक्तिशाली वायरस हमारे लोकतंत्र और समाज के प्रोग्राम में घुस आया है। ऐसा नहीं है कि इसका एंटी-वायरस हमारे प्रोग्राम में नहीं है...... बल्कि है। फिर भी मैं अपने समकालीन बौद्धिकों की मानसिकता पर विचार करता हूँ, तो लगता है कितने क्लीब और नपुंसक समय में जी रहे हैं हम।
जहाँ , जिस देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था इतनी सुचारू रूप से चल रही है.... इतने क्षेत्रीय पार्टियाँ ... क्षेत्रीय नेतागण .... अपने क्षेत्र और समुदाय के मनोविज्ञान को लेकर ऊपर उभर रहे हैं... वैसे माहौल में ऐसा आन्दोलन , जो भ्रष्टाचार जैसे सामान्य और लोकप्रिय मसले को लेकर जनभावनाओं से खिलवाड़ करने को प्रकट होता है... जिसका न तो कोई उद्देश्य है और न कोई दिशा।
राजनैतिक असंतोष से कभी ... किसी ज़माने में एक और आन्दोलन खड़ा हुआ था ... उस आन्दोलन की प्रकृति लोकतान्त्रिक थी और उस आन्दोलन ने सरकार की चूलें हिला दी थी... वह आन्दोलन था... जय प्रकाश नारायण द्वारा आहूत १९७४ का आन्दोलन। याद होगा... ।
हमारा समय मध्यवर्ग के वर्चस्व का समय है... मध्यवर्ग स्वभाव से परजीवी और परावलम्बी होता है... इसे अपनी उन्नति उतनी ख़ुशी नहीं होती जितना दुःख दूसरों की उन्नति से होता है। इसे यह समझ में नहीं आया कि लालू प्रसाद... मुलायम सिंह... मायावती....वगैरह राजनैतिक पटल पर कैसे और क्यों अवतरित हो गए... इन्हें बाल ठाकरे के होने पर ऐतराज नहीं है... नरेन्द्र मोदी के होने पर आश्चर्य नहीं है...
हमारा समय विद्रूप और कुत्सित हो चला है... टीवी वालों को क्या दोष दें ... वे तो क्रिकेट .... फ़िल्मी परेड .... वगैरह किसी भी तमाशे को "प्रायोजक" के मिल जाने पर बेचने को तैयार रहते हैं... इनका तो धंधा है... मुझे इनसे कोई शिकायत नहीं...
बस थोड़ी सी शिकायत अपने पढ़े-लिखे बौद्धिक साथियों से है... जो लोकतंत्र के राजमार्ग को छोड़कर ... इस सँकरी अनशन की ब्लैकमेल वाली गली के अनुसरण को प्रवृत्त हुए .... बस।

1 टिप्पणी:

rb ने कहा…

humm main sehmat hoon aapse ravinder ji