सोमवार, 21 जुलाई 2008

क्या हम सचमुच बाज़ार में ही बैठे हैं?

हर वक्त नफा-नुकसान की बात !
क्या सचमुच हम बाज़ार में ही बैठे हैं ?
साहित्य एक सहयोगी-प्रयास है न कि कोई स्वायत्त और स्वच्छंद प्रलाप। कुछ पूर्व के तथा कुछ हमारे समय के साहित्य माफिया साहित्य की हद को कायदे से समझे बगैर बहुत ऊँचा-ऊँचा छोड़ने लगते हैं। भय्या ! वे तो होते हैं खिलाड़ी , सो फंसने पर आप तो निकल जाते हैं जाल से। फंस जाता है मासूम , जो उन शैतानों के बहकावे में आ जाता है ।
तो सवाल यह है कि इस भ्रामक और मायावी वाग्जाल से हम ख़ुद को और शैतान के मासूम वफादारों को छुडाएं कैसे !
है कोई रास्ता आप सुधीजनों के पास ।
या आप भी उनलोगों से ही इत्तफाक रखते है जो साहित्य के दायरे में सब कुछ को लेते हैं और फिर उन में से कुछ लोग चिल्लाते है बाज़ार बाज़ार, और कुछ लोग ह हकलाते है ब् बाज़ार ब् बाज़ार ।
जो सहज है, जो स्वाभाविक है वह प्राकृत है -
मानवीय प्रयास उसी के विरुद्ध है । जो आपकी नैसर्गिक वृत्तियों का हवाला देता है , जो आपको आपकी प्राकृतिक
तृष्णा जगाता है वह आपको जंगली बनाने का षडयत्र कर रहा है । ऐसे लोगो पर गहरी निगरानी रखिये ।
हाँ, एक बात और, मेरे और आपके अन्दर से आदिम वासना को जगाना कोई मुश्किल बात नहीं , लेकिन ताकीद करने का मुद्दा तो बस इतना है कि बाज़ार बाज़ार चिल्लाने वाले लोग आपकी भूख का इस्तेमाल आप ही के खिलाफ तो नहीं कर रहे । थोड़ा चिंतन करें , थोड़ा और विचार करें फिर बताएं कि क्या हम सचमुच बाज़ार में ही बैठे हैं अपनी-अपनी हैसियत के साथ। आपके गंभीर उत्तर की सतत प्रतीक्षा में,

कोई टिप्पणी नहीं: