सोमवार, 18 मई 2009

जाति, धर्म और क्षेत्रवाद से राजनीति की मुक्ति के आसार

पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के नतीजों को देख कर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत की जनता उन थोथे भारतीय समाजवादियों से मुक्ति चाहती है जो सिर्फ़ जाति और धर्म जैसे भड़काऊ और संवेगात्मक मुद्दों के सहारे चुनाव जीत जाया करते रहे हैं। इस बार के चुनावी नतीजों में सर्वश्री रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, कुमारी मायावती की ( निजी ) पार्टियाँ तथा भारतीय जनता पार्टी की राजनितिक अवनति हुई है ।

ये नेता प्रारम्भ में कथित रूप से पिछडे और दलित जातियों और वर्गों की हिमायत करते हुए राजनीति में दाखिल हुए। उक्त विशेष जातियों और वर्गों की जनता ने इन्हें हाथों हाथ लिया भी। चुनावी विशेषज्ञों की भाषा में जाति और धर्म कुछ इस तरह शामिल हो गया कि भारतीय चुनाव का मतलब सिर्फ़ जातीय समीकरणों का संतुलन- असंतुलन है। स्थिति कुछ भयानक और अंतहीन सी प्रतीत होने लगी थी। मानों भारत में जाति के आलावा कोई और सत्य है ही नहीं।

अपना भला चाहना बुरा नहीं है। विशेष वर्ग की जनता अपने भले की चाह में इन नेताओं को उत्साह के साथ जिताती भी रही। उपर्युक्त सभी नेता उसी जाति-वादी समाजवाद की छत्रछाया में पनपे हैं। जाति के नाम पर मतवाली हुई पड़ी जनता के मतों से जीत-जीतकर ये नेता अपने मतदाताओं को ही बेवकूफ समझने लगे। इन्हें सत्ता के सुख का स्वाद लग गया। ये नेता लोग जनता को अपनी निजी संपत्ति समझने लगे।

चुनावी विश्लेषकों का कहना कि अमुक नेता को अमुक जाति का वोट मिलेगा- इन्हें सच लगने लगा। उन विशेष वर्गों के वोटर इन नेताओं के साथ इसलिए थे कि उन्हें उम्मीद थी कि ये नेता उनके वर्ग को भला चाहते हैं। लेकिन महान जातिवादी मतदाताओं को जब यह भान हुआ कि इन्हे हमारे उत्थान से नहीं , अपने उत्थान से ही मतलब है तब वाही भटकी हुई जनता चौंक कर जग उठी है।

दोस्तों! यह शुरुआत है। सन १९८९ में यह जातिवादी समाजवाद भारतीय राजनीति के आकाश पर दहकते हुए नक्षत्र की तरह उभरा - बीस वर्षों तक चमकता रहा । परिणाम ?

रामविलास पासवान का रिकार्ड वोट से जीतना और फिर हार?

8 टिप्‍पणियां:

विभाव ने कहा…

मैं आपके विचारों से असहमत हूं। जीतने वाली कांग्रेस ने इन्हीं आधारों पर ही उम्मीदवारों को मैदान में रखा था। यही उम्मीदवार जीते भी। परिवर्तन के कुछ अन्य कारण हैं।

रवीन्द्र दास ने कहा…

Vibhav!
main congress ki jit par santosh zahir to nahin kar raha?

विभाव ने कहा…

आप संतोष ज़ाहिर करें अथवा न करें। मेरा ध्येय यह संतोष भाव नहीं है। मेरा ध्येय तो वह मुक्ति का आसार है जिसे आपने रेखांकित किया। मुझे यही आसार दिखाई नहीं दे रहा।

रवीन्द्र दास ने कहा…

Vibhav,
tanik dhyan se dekhenge to ek bat dikhegi k bhartiy samaj-vyavsth aur saamyvadi upkaran lekar kuch neta samajvad ke lakshya ko digbhramit kar rahe.unka ubhar shuru me bahut aakarshak laga tha, kintu jab unka abhijatikaran hua aur vah pravritti badhti hi gayi, to is tarah se vichar karna lazimi ho gaya.
ye sabhi congress ke virodh me uth khade hone vale neta unke hi pichhlaggu kyon hain?
ladai bahu-aayami ho chala hai.

विभाव ने कहा…

इसमें कोई संदेह नहीं कि लड़ाई बहुआयामी है। मैं फिर कहूंगा कि इन आयामों में जाति, धर्म एवं क्षेत्रवाद से राजनीति की मुक्ति के आसार नहीं हैं। हैं भी तो ना के बराबर।
खैर इस बहस को यही छोड़ते हैं अब कुछ नए विषय पर आईए।.........

RAJ SINH ने कहा…

मै विभाव से पूर्णत: सहमत हूं . ठीक से देखें . सारा गणित जातिवाद ,धर्म ,भाषा ,प्रान्त , आदि के ही इर्द गिर्द ही सिमटा पडा है .सिर्फ़ पुनरसमायोजन का रिसल्ट ही अलग दिखाई पड रहा है .खुश होने की कोई वजह ही नहीं है .यथाइस्थिति ही बर्करार है . यही सत्य भी है . % वोटों को ठीक से देख लें .

रवीन्द्र दास ने कहा…

mitro!
jati ka upayog aur jati-aadharit rajniti me kuchh to faark kariye!
khair.

विभाव ने कहा…

जाति आधारित राजनीति भी जाति के उपयोग का एक हिस्सा है।