मुझे हर वक्त अपनी भाषा हिन्दी अंग्रेजी से भिड़ी हुई , जूझती हुई दिखती है। अच्छा हो कि यह मेरा व्यक्तिगत भ्रम हो।
यूरोप ने अपना सांस्कृतिक साम्राज्य तो अंग्रेजी के माध्यम से आज तक कायम रखा है। इस वजह से, दूसरी भाषा के विषय में तो मैं दावे नहीं कह सकता पर, हिन्दी इतनी व्यापक और गहरी संस्कृति रखते हुए भी मानो अंग्रेजी का मुंह जोहती रहती है । यह मेरी अल्पमति में सर्वथा दुर्भाग्य पूर्ण है।
इसकी जिम्मेदारी अनुवादकों और अनुवाद-बाज़ारों की है।
अनुवाद का तात्पर्य का दुहराने से है। अनुगमन करने से है।
भारत की संविधान ने किसी कारणवश हिन्दी को राष्ट्रभाषा तो मान लिया किंतु मैंने या आप सबने भी देखा होगा कि यह हमेशा द्वितीय श्रेणी का आदाब पाती रही।
मसलन, संविधान अंग्रेजी में लिखी जाती है और बाद में , इसका अनुवाद करवा जाता है हिन्दी और अन्य भाषा में।
अभी पिछले दो दशकों से एक मुहावरा वैश्वीकरण अथवा उत्तर-आधुनिकता हमारे हिन्दुस्तानियों में जितना मशहूर है शायद यूरोपवासियों में न हो किंतु इसका वास्तविक सन्दर्भ कहाँ है ! अंग्रेजी में। और आपको जानना है तो अंग्रेजी में इसका मौलिक पाठ मिलेगा नहीं तो हिन्दी सुधीश पचौरी द्वारा किया गया अनुवाद, जिसे वे मौलिक होने के दावे साथ परोसते है।
इसका यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि मैं या इस तरह की बात करने वाला अंग्रेजी-विरोधी है। मैं आप सुधि-विद्वानों से पूछता हूँ कि क्या दोस्ती करने का मतलब गुलामी करना ही होता है।
भारत में किसी भी भारतीय भाषा के अख़बार से बहुत अधिक प्रतिष्ठित अंग्रेजी का अख़बार है।
कोई रचनाकार जब अच्छी रचना लेकर प्रकट होता है, आलोचक यह पता लगाने की जुगत में लग जाता है कि इस लेखक ने किस अंग्रेजी लेखक का मजमून मारा है।
फिल्मों तक की स्थिति यही है।
क्या यही नियति है ?
हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि हमारी हिन्दी एक दोयम दर्जे की भाषा है ।
न जाने क्यूँ , मानने का मन नहीं होता।
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2 टिप्पणियां:
नहीं दोस्ती का मतलब गुलामी तो बिल्कुल नही होता. हां एक-दूसरे का खयाल रखना दोस्ती का फ़र्ज़ है.
main aapka tatparya n samajh paya. khair! dhanyavad.
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