भारतीय समाज की एक अजीब सी विशेषता है जाति। इस जाति के कारण जाति-भेद है , जातिवाद है , जात-पांतहै। परंपरा से इस पर बहस होती आ रही है।
संस्कृति-विश्लेषकों का एक बड़ा वर्ग, जो पश्चिमी और आधुनिक इतिहास दृष्टि से अपने समय को आंकता हैं, जाति की धारणा का विरोध करता नज़र आता है। वे मानते है कि इस आधुनिक परिवेश और जीवन शैली में जाति का कोई महत्त्व नहीं होना चाहिए। जाति एक मध्य युगीन फेनोमेना है। जो जाति की बात करता है, वह पिछड़ा हुआ है अथवा समाज को बदहाली में ले जाने का षड्यंत्र कर रहा है।
बदकिस्मती से, उपर्युक्त विचार सिर्फ अपने आपको उच्च वर्ण में स्थान पाए लोगों का है। संस्कृति-विश्लेषकों का एक बड़ा वर्ग, जो पश्चिमी और आधुनिक इतिहास दृष्टि से अपने समय को आंकता हैं, जाति की धारणा का विरोध करता नज़र आता है। वे मानते है कि इस आधुनिक परिवेश और जीवन शैली में जाति का कोई महत्त्व नहीं होना चाहिए। जाति एक मध्य युगीन फेनोमेना है। जो जाति की बात करता है, वह पिछड़ा हुआ है अथवा समाज को बदहाली में ले जाने का षड्यंत्र कर रहा है।