करवाचौथ एक सुपरहिट त्यौहार है। महत्त्वपूर्ण कहना समीचीन नहीं लग रहा, सुपरहिट कहना अधिक युक्ति संगत प्रतीत हो रहा है। इसका भी कारण है। और कारण है हिंदी फ़िल्में, जहाँ इस त्यौहार को काफी धूमधाम और तवज्जो के साथ फिल्माया जाता है। अत्यधिक श्रृंगार करके नायिकाएँ ( स्त्रियाँ ) इस व्रत को अपने उस कथित पति के मंगल और दीर्घायु के लिए निभाती दिखती हैं।
लेकिन सनद रहे, भारत को एक धर्मप्रधान देश होने का ख़िताब प्राप्त है। इस सुपर-डुपर हित करवा चौथ को भी उसी धर्मप्रधानता से जोड़ कर कुछ लोग देखते हैं। तो क्या ऐसा देखा जाना उचित है ? मेरे अनुभव में यह एक फ़िल्मी-प्रभाव लिए फैशन प्रधान व्रत है जिसपर धर्म का मुलम्मा भर है।
वैसे यह स्वर भी , विद्रोही तेवर के साथ, सुनाई पड़ता रहता है कि औरत ही मर्द के लिए व्रत-उपवास क्यों रखे ? मर्दों को भी यह उपवास रखना चाहिए। सो कुछ फिल्मकारों ने ऐसा भी करवाने का ढकोसला अपनी फिल्मों में [ उदहारण के लिए, बागवां] दिखाने का सफल प्रयास किया है।
अगर आप कि आँखें खुली रहती हैं या आप भुक्तभोगी है तो आप शर्तिया जानते होंगे कि करवा चौथ का व्रत रखने वाली स्त्रियाँ चंद घंटे निराहार रहने का कितना बड़ा मुआवजा अपने पति से वसूल करती है। कहने की आवश्यकता शायद नहीं है कि कुरीतियाँ अमीरों के घर से ही जूठन के रूप में बाहर फेंकी जाती है।
और बाज़ार ऐसे मौकों पर अपना हाथ सेंकता है।
अख़बारों और टीवी चैनलों पर इस बाज़ार-नियंत्रित व्रत का मनोरंजक विज्ञापन, कार्यक्रम के रूप में आपको खूब दीखते होंगे। इसका जब भी फुटेज दिखाया जाता होगा तो उसमें महंगे वस्त्र-परिधानों-आभूषणों से लदी कुछ एक स्त्री शरीर भी अनिवार्यतः दिखाए जाते होंगे। इन्हें परिवार की खुशहाली से या दांपत्य के बंधनों को दृढ करने से कोई मतलब नहीं होता। इनका उद्देश्य है अर्धशिक्षित स्त्रियों को फैशनपरस्ती के लिए उकसाना।
पौराणिक कथाओं की सावित्री मृत्यु के देवता से अपने लकड़हारे पति सत्यवान के प्राण वापस लौटा लाती है। वह कामदेव को रिझाने नहीं जा रही होती है जो सोलहो-श्रृंगार कर जाती।
खैर, समझाने वाले मुझे समझा सकते हैं कि इसी बहाने परंपरा की रक्षा होती है तो होने दो। तो मैं कहूँगा , लानत है ऐसी धार्मिक कही जाने वाली परंपरा पर जिसमें अच्छा आभूषण नहीं दिला सकने वाला पति तलाक का शिकार होता है। यह परंपरा दांपत्य में मधुरता नहीं, कटुता और लाचारी लाती होगी। यह बाजारू हो चली परम्पराएं नष्ट क्यों नहीं हो जाती है। लेकिन यह मेरा ख्याल है । इस फैशनपरस्त परम्परा की जिम्मेदारी जब बाज़ार ने उठा ली है तो मेरे लाख चिल्लाने से मिट नहीं सकती।
करवाचौथ की मंगल कामनाएँ - सतियों को नहीं, बाज़ार के कारोबारियों को !
बुधवार, 20 अक्तूबर 2010
शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010
दुःख: अपना और पराया
दुःख यूँ तो एक लफ्ज है जिसका हम मौके बेमौके इस्तेमाल करते रहते हैं। मसलन, दुःख की बात है कि ..., मुझे इसका दुःख है, दुःख के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि ...., दुःख -सुख तो लगा ही रहता है, वगैरह, वगैरह। हमें पता है कि दुःख शब्द का अर्थ है।
मुझे दाँत में दर्द होता है तो मुझे दुःख होता है। कोई मेरे साथ बदतमीजी से पेश आता है तो दुःख होता है। कोई मुझे अनसुना कर देता है तो दुःख होता है। और इन दुखों को मैं दूसरों से शेयर भी करता हूँ/ करना चाहता हूँ यह जताते हुए कि यह दुःख जेनुइन है।
लेकिन जब मैं दूसरों के दुखों पर विचार करता हूँ तो क्या उसी कोटि के दुखों को दुःख मानने को तैयार होता हूँ? शायद नहीं। दूसरे का दुःख मुझे तगड़ा चाहिए। मसलन, बीमारी हो तो कम से कम कैंसर लेबल का हो, चोरी हुई हो तो कंगाली की हालत की हो, किसी मर्द ने अपनी औरत को सताया हो तो या तो बलात्कार हुआ हो या फिर कम से कम जान पे बन आई हो, या इसी तरह के भयानक स्तर का दूसरों दुःख हमें दुखी होने लायक लगता है।
सवाल है कि दुःख क्या है ? कोई नारा है , या कोई संवेदना है, भाव है, विचार है , मुद्दा है , अनुभव है, क्या है ?
मैं दुखी हूँ।
तो क्या फर्क पड़ता है आपको ? उसी तरह आप दुखी हैं तो मुझ पर क्या असर होना चाहिए ?
दार्शनिक विद्वान्, गुणी मुनि, संत महात्मा कहते है कि सुख-दुःख मन के विकल्प है जो पानी के बुलबुले की तरह क्षण-भंगुर है , आते जाते रहते है इसके लिए बहुत अधिक विचलित नहीं होना चाहिए। लेकिन संसार में, व्यवहार में ऐसा नहीं चलता है। अगर आप विचलित नहीं होंगे तो आप संगदिल, कठोर, बेदर्द , जानवर या स्वार्थी कहे जाएँगे और आप ऐसा नहीं चाहते हैं।
बड़ी उलझन होती है। आपको न होती हो लेकिन मुझे होती है, इस दुःख के सवाल पर। उलझन इसलिए क्योंकि मैं अक्सर पसोपेश में पड़ जाता हूँ जब कोई महाशय 'अ' किसी अन्य महाशय 'ब' का दुःख मुझे सुनाते है। ऐसे में मैं तय नहीं कर पाता हूँ कि मैं किस भाव में प्रतिक्रया करूँ !
कोई बूढ़ा सा निरर्थक हो चुका कोई नेता , अभिनेता , कलाकार, अध्यापक , लेखक, साहित्यकार मर गया , बीमार हो गया तो मुझे कैसी प्रतिक्रिया करनी चाहिए, यही न कि ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे। लेकिन लोग किसी और ही तरह से प्रतिक्रिया करते है , वे दुखी दुखी से दिखना चाहते हैं। मैं ऐसा नहीं कर पाता, सो मैं खुद की भी नजर में गिरने लगता हूँ।
आज-कल के साहित्य कर्म में भी अनभोगे दुखों को प्रमाणिक अनुभूति की तरह व्यक्त करने का बाज़ार गर्म है। मसलन सवर्णों द्वारा दलितों को सताया जाना और मर्दवादी सोच वाले पुरुषों द्वारा स्त्रियों को रौंदा जाना- साहित्यिक बाज़ार में चलने वाले पक्के मुहरे हैं।
खैर, मैं बात तो कर रहा था दुखों की, मैं दरअसल एक फर्क जानना चाहता था अपने दुःख और पराये दुःख का। दरअसल मैं पहचान भी करना चाह रहा था अपना दुःख और पराया दुःख की, लेकिन शायद मसला इतना उलझता जा रहा है कि..... चलिए फिर कभी।
मुझे दाँत में दर्द होता है तो मुझे दुःख होता है। कोई मेरे साथ बदतमीजी से पेश आता है तो दुःख होता है। कोई मुझे अनसुना कर देता है तो दुःख होता है। और इन दुखों को मैं दूसरों से शेयर भी करता हूँ/ करना चाहता हूँ यह जताते हुए कि यह दुःख जेनुइन है।
लेकिन जब मैं दूसरों के दुखों पर विचार करता हूँ तो क्या उसी कोटि के दुखों को दुःख मानने को तैयार होता हूँ? शायद नहीं। दूसरे का दुःख मुझे तगड़ा चाहिए। मसलन, बीमारी हो तो कम से कम कैंसर लेबल का हो, चोरी हुई हो तो कंगाली की हालत की हो, किसी मर्द ने अपनी औरत को सताया हो तो या तो बलात्कार हुआ हो या फिर कम से कम जान पे बन आई हो, या इसी तरह के भयानक स्तर का दूसरों दुःख हमें दुखी होने लायक लगता है।
सवाल है कि दुःख क्या है ? कोई नारा है , या कोई संवेदना है, भाव है, विचार है , मुद्दा है , अनुभव है, क्या है ?
मैं दुखी हूँ।
तो क्या फर्क पड़ता है आपको ? उसी तरह आप दुखी हैं तो मुझ पर क्या असर होना चाहिए ?
दार्शनिक विद्वान्, गुणी मुनि, संत महात्मा कहते है कि सुख-दुःख मन के विकल्प है जो पानी के बुलबुले की तरह क्षण-भंगुर है , आते जाते रहते है इसके लिए बहुत अधिक विचलित नहीं होना चाहिए। लेकिन संसार में, व्यवहार में ऐसा नहीं चलता है। अगर आप विचलित नहीं होंगे तो आप संगदिल, कठोर, बेदर्द , जानवर या स्वार्थी कहे जाएँगे और आप ऐसा नहीं चाहते हैं।
बड़ी उलझन होती है। आपको न होती हो लेकिन मुझे होती है, इस दुःख के सवाल पर। उलझन इसलिए क्योंकि मैं अक्सर पसोपेश में पड़ जाता हूँ जब कोई महाशय 'अ' किसी अन्य महाशय 'ब' का दुःख मुझे सुनाते है। ऐसे में मैं तय नहीं कर पाता हूँ कि मैं किस भाव में प्रतिक्रया करूँ !
कोई बूढ़ा सा निरर्थक हो चुका कोई नेता , अभिनेता , कलाकार, अध्यापक , लेखक, साहित्यकार मर गया , बीमार हो गया तो मुझे कैसी प्रतिक्रिया करनी चाहिए, यही न कि ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे। लेकिन लोग किसी और ही तरह से प्रतिक्रिया करते है , वे दुखी दुखी से दिखना चाहते हैं। मैं ऐसा नहीं कर पाता, सो मैं खुद की भी नजर में गिरने लगता हूँ।
आज-कल के साहित्य कर्म में भी अनभोगे दुखों को प्रमाणिक अनुभूति की तरह व्यक्त करने का बाज़ार गर्म है। मसलन सवर्णों द्वारा दलितों को सताया जाना और मर्दवादी सोच वाले पुरुषों द्वारा स्त्रियों को रौंदा जाना- साहित्यिक बाज़ार में चलने वाले पक्के मुहरे हैं।
खैर, मैं बात तो कर रहा था दुखों की, मैं दरअसल एक फर्क जानना चाहता था अपने दुःख और पराये दुःख का। दरअसल मैं पहचान भी करना चाह रहा था अपना दुःख और पराया दुःख की, लेकिन शायद मसला इतना उलझता जा रहा है कि..... चलिए फिर कभी।
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