शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

निशा चौधरी की कविताएँ 


1
इंसान परत दर परत जमा है
पशुओं की खाल बिकती है
इंसान उसे ओढ़े घूमता है
मनुष्यता छोटे बच्चे की मुट्ठी मे पड़ी है
मुट्ठी खुलते ही आत्मा तड़प उठती है
2
विशालकाय इमारतों के नीचे
दबीं हैं असंख्य झोपड़ियाँ
उनके साथ दफ़्न है
सुखमय जीवन की चाह

***

किलकारियाँ ...
जो पाना चाहतीं है
 
स्वयं का अधिकार
धूल में लिपटी
अभी भी
टाकराती है हमसे

***

इस स्वतंत्र हुए भारत का चित्र
कुपोषित बच्चे
अशिक्षित समाज
असुरक्षित महिलाएँ
निकम्मी सरकारें
अभावों में जीता
देश का भविष्य

***

प्रगतिशीलता के कूड़ों का
निर्वहन करता
छोटा सा अविकसित कस्बा
3
मैं नहीं रखना चाहती
अपने पाँव
उस सत्य के धरातल पर
जो कभी भी फट सकता है
मेरे अस्तित्व को निगलने के लिए
मैं समाना नहीं चाहती
उसमें जानकी की तरह
मैं जीना चाहती हूँ
बार बार जन्म लेना चाहती हूँ
उन तमाम रुपों को आत्मसात करना चाहती हूँ
जो मेरे हैं .. मुझसे हैं
4
उचित अनुचित का भेद लिए
ज़िंदगी चलती है कुछ खेद लिए
संग चलते हैं मैं और तुम
और कुछ संघर्ष , संकल्प लिए
5
गुलाबी का ज़्यादा गुलाबी होना
और रौशनी का ज़्यादा चमकीला होना
मैंने महसूस किया है

मैंने महसूस किया है
तुम्हारा, मेरा होना ।

शीतलहर की हवाओं का जमना
और बहते पल का झट से थमना
मैंने महसूस किया है

मैंने महसूस किया है
तुम्हारा, मेरा होना ।

मेरी खुशियों का फूट-फूट कर
दबी होठों से बाहर आने को मचलना
और
मेरा होठों को दाँतों तल दबाना
मैंने महसूस किया है

मैंने महसूस किया है
तुम्हारा , मेरा होना
और
.
.
.
मेरा खुश होना !!!
6
मेरे कमरे से गुज़र कर
तुम्हारे कमरे में जाने का जो रास्ता है
उसकी चौखट पर
 
एक खुला दरवाज़ा है
ये "हमारी दुनिया" को
 
एक बनाता है

कुछ पल बीते
एक आहट सी है
वो दरवाज़े का बंद होना
अब वो "हमारी दुनिया" वाली बात पुरानी हुई
अब दो दुनिया में बँटे हैं

मैं और तुम
7
नदी के किनारे टहलते हुए
बेजान सी बोझिल कदमों को
एहसास हुआ शीतलता का
कुछ बंजर है
कुछ हरियाली
ये नवजीवन जो फूटा है
जो जीवन के उस पार दिखे
वो इस पार खिली तो
कुम्हलाई बेजान दिखी
कभी ठिठक ग ई तो
चमक उठी वो
बहते जल में
छाया थी
जल मिश्रित स्पंदित होती
मेरी निर्मल काया थी
आज मिली
जो कल थी खोई
कुछ धुंधली
कुछ मटमैली
इस पार खिली अब भी कुछ कलियाँ हैं
जीवन को इंगित करतीं
8
तुम अंतर्मन की छवि में
जीवित हो हमेशा

छूटा साथ तेरा
उस पथराई धरती की
 
कठोरता पर है आक्रोश मेरा

वो रुप बदलता क्षण भर को
कुछ तो करता वो क्षण भर को
बनता .. मिट्टी , रूई , धास या फूल

तुम्हारे कदमों के नन्हे निशान
छोटी सी प्यारी मुस्कान
जब उभरती है मानस में
मैं ढ़ूँढ़ती रह जाती हूँ
तुमको जीवन में

तुम छिन गए , बिछड़ गए
कभी सहलाती तुमको मैं
जब सपनों में पाती हूँ
मैं विभोर हो
स्वयं में तुमको ही पाती हूँ

मैं नष्ट हुई तो कब की हूँ
अब जीती हूँ तेरे हिस्से का
जीवन , पीड़ा , सुख , दुख , प्रेम ... वात्सल्य

हे  अनुज
मेरे अनुज
9
सड़क के किनारे मूत्रविसर्जन करते लोग
निर्लज्ज लोग !
उन्हें परवाह नहीं किसी की
उन्हें परवाह नहीं कि
उनकी भी बहन बेटियाँ
कहीं से गुज़र रही होंगी
और
कोई रास्ते के किनारे
मूत्रविसर्जित कर रहा होगा


ऐसे लोग
ऐसा करते-करते बूढ़े हो जाते हैं
साथ ही साथ
ऐसे जवान भी तैयार करते जाते हैं
जो फिर उसी ढ़र्रे पर चलते हैं
ये भी रास्तों को दुगंधित करते हैं
अपनी क्रिया से , अपने चरित्र से

ये स्वतंत्र होते हैं
अपनी क्रिया कलातों के लिए
ये मैं नहीं
मनोविज्ञान कहता है ,कि
यहीं से होती है शुरु
इनकी हिंसक प्रवृत्ति
दूसरों को अपने अधीन रखने की चाह
जो मन में आए करने का उत्साह !

परिचय
निशा चौधरी
शिक्षा - स्नातक
व्यवसाय- शिक्षिका

संपर्क :
सेक्टर - 1 बी
क्वाटर न0. - 352
बोकारो स्टील सिटी
झारखंड
पिनकोड - 827001
मोबाइल न0. - 8002705885