बुधवार, 24 मार्च 2010

वह कौन था जो झांकता था मेरी जिन्दगी में

वह कौन था जो झांकता था मेरी जिन्दगी में
और कर जाता है जलजला
गोया कभी कोई चेहरा न दिखा
जब कभी दिखा भी तो खामोश कर गया जुबान
कि वो तो दुश्मन नहीं, दोस्त ठहरे
जो बिना दस्तक दिए
मेरी चौखट में हो गए थे मेहमान
किसी ने देखा उन्हें आते या जाते कभी
जब समझ आया तो ज़माने ने कहा अपने है
वह तो बहुत बाद गुमान हुआ
कि वो मोबाईल फोन है
अब मैं खामोश हूँ
और बेजार हूँ ज़माने से
यूँ अकेलापन है तो सुकून है और राहत है
वरना वो झाँकने वाले कि मुहब्बत की कसम
हम बेचैन थे
पर खौफ नहीं अब कोई।

मंगलवार, 16 मार्च 2010

समय और दुनिया : मेरा और तुम्हारा


मेरा समय; तुम्हारा समय यानि कविता समय !


सबको अपने समय में ही खुशियाँ मनानी है, गम उठाना है। और और बहुत सारे सुकर्म-कुकर्म करने हैं। जैसे, झूठ नहीं बोलने का वादा करके झूठ बोलना है। और फिर पकड़े जाने पर 'हें..हें...हें....' करना है या झूठ बोलने की अपनी कोई मज़बूरी बतानी है या मुकर जाना है या अकड़कर यह कहना है कि झूठ बोल ही दिया तो क्या पाप कर दिया !


चाहे जो करना है , अपने समय में करना है।


अपने समय को समझना अत्यंत दुष्कर कार्य है। लोग बहुधा अतीत में जीते हैं। अतीत में जीना तुलनात्मक रूप से आसान और सुरक्षित है। मनुष्य जब भी अपनी पराजय का आभास पाता है अतीत की भागने लगता है। उसे लगता है कि अतीत में हार नहीं सिर्फ जीत है।


अतीत एक ठहरा हुआ वाकया है इस लिए हम उसका जैसा चाहे वैसा तर्जुमा कर लेते हैं। हम अतीत को अपनी जरूरत और रूचि के अनुरूप गढ़ लेते है । कहा जा सकता है कि अतीत एक लोंदा है गीली मिट्टी का और उसे अपनी मर्जी के रूप में गढ़ लेते हैं और बच्चे की तरह खुश हो उठते हैं। खैर!

लेकिन अपने समय में अपनी मर्जी नहीं चलती ; हालाँकि हम कम कोशिश नहीं करते हैं अपनी मर्जी चलाने की। इसका मतलब यह भी नहीं कि हम और आप बिलकुल ही बेबस और लाचार हैं ! नहीं, यहाँ आवश्यकता होती है खुद में सुघट्यता लाने की और तदनुरूप प्रति-व्यवहार करने की ......

मैं कहूँगा कि समय रहस्य नहीं , समय एक रौशनी है। एक ऐसी रौशनी जिससे बहुधा सामान्य जन की आँखें चुंधिया जाती है ।

मेरा समय और तुम्हारा समय उतना ही पृथक और भिन्न है जितना मेरी दुनिया तुम्हारी दुनिया से अलग है। हम सभी अपनी अपनी दुनियाओं की धुरी होते है ......


सोमवार, 8 मार्च 2010

महिला दिवस की राजनीति

महिला दिवस है, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है तो स्त्री-सशक्तीकरण की बात अवश्य की जानी चाहिए। किन्तु मैं कुछ सवाल करना चाहता हूँ, खुद से, आप से, और खास कर राजनैतिक दल और महिला संगठनों से।
आज अब बात काफी पुरानी सी हो रही है महिला आरक्षण को लेकर। संसद में महिला-आरक्षण हो यह बात भारतीय राजनीति के लिए काफी पुरानी है। तो ऐसी स्थिति में
१) भारत की राजनैतिक पार्टियों ने, जो बढ़-चढ़कर 'महिला-आरक्षण' की राजनीति कर रही हैं , अपनी पार्टी के स्टार पर इस तरह का कौन सा नज़ीर पेश किया है? कितनी महिलाओं को किस उन पार्टियों ने अपने दल में स्थान दिया और कितनी महिलाओं को अपना चुनावी उम्मीदवार बनाया ?
२) कुछ चेहरों को सामने लाकर रख देने भर से क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि भारत में महिलाओं को उचित दर्जा मिल चुका है ?
३) बृन्दा करात, सोनिया गाँधी का इस लिए राजनीति देदीप्यमान नक्षत्र की तरह चमक रहे हैं कि वे महिलाऐं खुद राजनीति में आए है या उनके साथ उनके पति का लेबल भी साथ है ?
और आखिरी सवाल
४) क्या सामान्य भागीदारी का एक मात्र विकल्प आरक्षण ही रह गया है ? किसी लालू प्रसाद या मुलायम सिंह के सिर ठीकरा फोड़ने से बेहतर यह नहीं होता कि संसद में कानून पास करवाने की मज़बूरी को छोड़कर सभी सहमत राजनैतिक पार्टियाँ अपने अपने दलों ऐसी व्यवस्था करवाते कि ऐसा प्रतीत होता कि वे सचमुच महिलाओं का सशक्तीकरण चाहते हैं ?
लेकिन नहीं, कोई ऐसा चाहता नहीं - बस राजनीति की जा रही है, राजनीति। यदि कुछ समाजवादी दल महिला आरक्षण में जाति के आधार पर कुछ हिस्सेदारी सुनिश्चित करना चाहते है तो इसमें बुराई क्या है ? या आरक्षण का लाभ सिर्फ ' छम्मक छल्लो ' किस्म की महिलों को ही मिले ?