गुरुवार, 26 नवंबर 2009
अंग्रेजी से भिड़ी सी दिखती है हिन्दी
यूरोप ने अपना सांस्कृतिक साम्राज्य तो अंग्रेजी के माध्यम से आज तक कायम रखा है। इस वजह से, दूसरी भाषा के विषय में तो मैं दावे नहीं कह सकता पर, हिन्दी इतनी व्यापक और गहरी संस्कृति रखते हुए भी मानो अंग्रेजी का मुंह जोहती रहती है । यह मेरी अल्पमति में सर्वथा दुर्भाग्य पूर्ण है।
इसकी जिम्मेदारी अनुवादकों और अनुवाद-बाज़ारों की है।
अनुवाद का तात्पर्य का दुहराने से है। अनुगमन करने से है।
भारत की संविधान ने किसी कारणवश हिन्दी को राष्ट्रभाषा तो मान लिया किंतु मैंने या आप सबने भी देखा होगा कि यह हमेशा द्वितीय श्रेणी का आदाब पाती रही।
मसलन, संविधान अंग्रेजी में लिखी जाती है और बाद में , इसका अनुवाद करवा जाता है हिन्दी और अन्य भाषा में।
अभी पिछले दो दशकों से एक मुहावरा वैश्वीकरण अथवा उत्तर-आधुनिकता हमारे हिन्दुस्तानियों में जितना मशहूर है शायद यूरोपवासियों में न हो किंतु इसका वास्तविक सन्दर्भ कहाँ है ! अंग्रेजी में। और आपको जानना है तो अंग्रेजी में इसका मौलिक पाठ मिलेगा नहीं तो हिन्दी सुधीश पचौरी द्वारा किया गया अनुवाद, जिसे वे मौलिक होने के दावे साथ परोसते है।
इसका यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि मैं या इस तरह की बात करने वाला अंग्रेजी-विरोधी है। मैं आप सुधि-विद्वानों से पूछता हूँ कि क्या दोस्ती करने का मतलब गुलामी करना ही होता है।
भारत में किसी भी भारतीय भाषा के अख़बार से बहुत अधिक प्रतिष्ठित अंग्रेजी का अख़बार है।
कोई रचनाकार जब अच्छी रचना लेकर प्रकट होता है, आलोचक यह पता लगाने की जुगत में लग जाता है कि इस लेखक ने किस अंग्रेजी लेखक का मजमून मारा है।
फिल्मों तक की स्थिति यही है।
क्या यही नियति है ?
हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि हमारी हिन्दी एक दोयम दर्जे की भाषा है ।
न जाने क्यूँ , मानने का मन नहीं होता।
गुरुवार, 19 नवंबर 2009
मेरा समय : मेरे विचार
बहुत सोचा कि आखिर ऐसा क्यों है ?
तो मैंने पाया कि आज भी समाज पर , उसके रिवाज़ और रवायत पर मर्दों का ही कब्ज़ा है। वे कुछ स्त्रियों से अपने बृहत् मनोरंजन का इंतजाम करवाते है ।
यदि ऐसा है तो सवाल उठता है कि वे पुरूष इस तरह की कुत्सित मानसिकता से ऐसे घिनौने षड़यंत्र क्यों करते हैं ?
ऐसा सिर्फ़ इसलिए , क्योंकि इस तरह की ऐय्याशी में न्यूनतम जोखिम है ।
आज़ादी की आकांक्षा तो शाश्वत स्वप्न है मानव-मात्र का , इसलिए स्त्रियों में भी है और यह स्वाभाविक तथा नैसर्गिक है ।
बड़े और बुद्धिमान सौदागर चीजों का नहीं , सपनों का ही कारोबार करते हैं ।
आपके सपने को पूरा करने का आश्वासन देकर आपका वजूद आपसे ले लेते हैं और स्वप्न को साकार करने के लिए स्वेच्छा से अपने आपको सौंप देते हैं।
यह एक ही ऐसा व्यवसाय है जिसमे सबको सिर्फ़ फायदा ही होता है, नुकसान किसी को नहीं होता ।
बाज़ार को जब यह समझ में आया , वह आपको स्वप्न का लालच देकर आपको बन्दर बना दिया और ख़ुद बना मदारी, वह बजता है डमरू और हम उसके इशारों पर थिरकना समसामयिक होने जैसा जरुरी समझते हैं व
थिरकते हैं।
याद कीजिए फैशन परेड को, जिसमे स्त्री प्रायः और कभी कभी पुरूष भी रोबोट की तरह चलते है, जरुरत और निर्देश के अनुसार घूमते और हाथ हिलाते हैं।
वे सिर्फ़ एक देह की तरह होते हैं, मालूम देता है कि उस शरीर में मन या आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होगी।
लेकिन उस बे-रूह कारनामों को करने वाले हमारे समय में काफी महत्त्वपूर्ण हस्ती हैं।
इस तरह रोबोट की कैट-वाक करना हमारे कई हम-वक्तों का ख्वाब होगा ।
यह मेरा समय है,
मैं अपने समय से शर्मिंदा नहीं हूँ , मैं अपने समय को समझना चाहता हूँ।
यह भी सच है कि स्त्रियों को बेपर्दा कर कुछ मर्द इसका लुत्फ़ लेते हैं । इसमे कुछ आज़ाद-ख्याल खवातीन इन खिलाड़ियों के खेल का शिकार भी होती हैं। फिर भी, आज़ाद होने की जिद बहुत हद तक आज़ादी दिला चुकी है। यह जिद बनी रहे, इंसा-अल्लाह , बरकत होगी जरूर
यह हमारा समय है, जब ज्यादा संघर्ष सांस्कृतिक हो गई है। बस इसीसे सावधान रहने की, जहाँ तक हो सके, जरुरत है।
यही हमारा समय है, और ऐसे ही अजीब मेरे विचार हैं।
सोमवार, 9 नवंबर 2009
माफ़ी-नामा (कविता)
मेरी हालत ठीक नहीं है
मैंने कोई अक्षम्य अपराध कर लिया है तुम्हारे प्रति
मुझे अवश्य मिलना चाहिए दंड
किंतु मत करो मेरा त्याग
मुझे रहने दो अपने इर्द-गिर्द
मैं करता हूँ वादा , पकड़के अपने दोनों कान
कि नहीं होगी मुझसे भूल से भी कोई वैसी चूक
जो तुम्हें नागवार गुजरे
तुम्हें पाकर
हो गया था मैं दम्भी कुछ अधिक
और कर बैठा था प्रयोग अपनी शक्ति
तुम्हारे विरुद्ध
नहीं समझ में आता है इसका कोई निदान
नहीं सूझता है दो कदम चलने का भी रास्ता
बेदम और लाचार
जीने का कर रहा हूँ जी-तोड़ प्रयत्न
इसी उम्मीद से
कि शायद होगा तुम्हारा बड़ा ह्रदय
और मर सको तुम माफ़ मुझे
जाहिर सी है बात
कि मैं खो चुका हूँ
तुमसे बात तक करने का अधिकार
नहीं है मालूम कोई पता-ठिकाना भी
कि लिख भेजूं , दो पांति का माफीनामा ही
तभी तो लिख रहा हूँ कविता
कि कोई सहृदय पहुँचा मेरे आंसू के दाग
कि करे शायद चर्चा मेरी कविताओं के मजमून का
नहीं जाएगा कुछ भी माफ़ी देने में तुम्हारा
लेकिन मिल जाएगा मुझे मेरा जीवन वापस
बस ! नहीं लिखी जा पा रही कविता पूरी
यह अधूरी कविता शायद मेरा माफीनामा है
अगर तुम कर लो कुबूल तो
वैसे मैंने गलती माफ़ी के काबिल नहीं ।