आपने कुछ नहीं कहा !
शायद आप कुछ नहीं कहना चाहते होंगे , या किसी अधिक जरुरी काम में फस गए होंगे ।
अब तो फुर्सत हो गई होगी , आइए, कुछ कठिन मुद्दों पर बात करें ।
" सत्य [आदर्श] और तथ्य [वास्तविकता] के द्वंद्व से साहित्य प्रभृत वैचारिक कलाओं का प्रादुर्भाव होता है। मेरा व्यक्ति-मन जब वास्तविकता से असंतुष्ट होता है , इसलिए असहमत होता है -फलतः इसकी प्रतिक्रिया में मेरा व्यक्ति-मन अनंत सिसृक्षाओं से भर जाता है। इस कोटि की प्रतिक्रिया , सहज प्रतिक्रिया न होकर विशिष्ट होती है।
यही सर्जना-विशिष्ट-प्रतिक्रिया 'कला' होती है। "
इससे असहमत होना मैं युक्ति-संगत नहीं मानता कि कला प्रतिक्रिया है , तथापि प्रतिक्रियाओं की एकाधिक सरनियां मानी जा सकती हैं - सहज और नियोजित । नियोजित प्रतिक्रिया भी स्पष्ट रूप से दो विरोधी श्रेणियों की होती हैं- सर्जनात्मक और विध्वंसात्मक ।
विध्वंसात्मक नियोजित प्रतिक्रिया ही आतंकवाद सरीखे मानव-विरोधी क्रिया-कलापों की जड़ है । इन प्रतिक्रियाओं की उद्भावना अहंकारी व्यक्तियों के दिशा-निर्देश में हुआ करता होगा । अंहकार के साथ सर्जना की यात्रा नहीं की जा सकती है ।
सर्जनात्मक प्रतिक्रिया , जो यदि बची रह जाती है तो साहित्य हो जाती है , का पहला बिन्दु है अंहकार का विसर्जन।
प्रसंगवश, मैं कुछ निवेदन करना चाहता हूँ -
अभी हमारी हिन्दी-दुनिया में कुछ नई पौध , षोडशी-जैसी आत्म-मुग्ध , पनपी हैं , अत्यधिक आकर्षक उन पौधों का नाम है-
स्त्रीवाद और दलितवाद ।
इन पौधों की भी विशेषता यही है के ये भी अंहकार की भाव-भूमि पर ही उगी हैं । जरा गौर से देखिये , इनके पास कहने को बहुत कुछ हैं , ढेर सारी शिकायतें हैं इनकी अपने प्रतिपक्ष से। किंतु , अंहकारमूलक प्रतिक्रियाओं की विशेषता यह होती है के इनके पास कोई विश्व-दृष्टि नहीं होती। इन प्रतिक्रियाकारियों को अपने प्रतिपक्ष को ग़लत बताने में, उसपर दोषारोपण करने में इन्हें ब्रह्मानंद की अनुभूति होती है।
संतों की कही हुई बात है -
अंहकार के वर्चस्व के कारन ही स्व-पर का भेद बढ़ता है।
रविवार, 10 अगस्त 2008
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