शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011
करवाचौथ एक सुपरहिट त्यौहार है
लेकिन सनद रहे, भारत को एक धर्मप्रधान देश होने का ख़िताब प्राप्त है। इस सुपर-डुपर हित करवा चौथ को भी उसी धर्मप्रधानता से जोड़ कर कुछ लोग देखते हैं। तो क्या ऐसा देखा जाना उचित है ? मेरे अनुभव में यह एक फ़िल्मी-प्रभाव लिए फैशन प्रधान व्रत है जिसपर धर्म का मुलम्मा भर है।
वैसे यह स्वर भी , विद्रोही तेवर के साथ, सुनाई पड़ता रहता है कि औरत ही मर्द के लिए व्रत-उपवास क्यों रखे ? मर्दों को भी यह उपवास रखना चाहिए। सो कुछ फिल्मकारों ने ऐसा भी करवाने का ढकोसला अपनी फिल्मों में [ उदहारण के लिए, बागवां] दिखाने का सफल प्रयास किया है।
अगर आप कि आँखें खुली रहती हैं या आप भुक्तभोगी है तो आप शर्तिया जानते होंगे कि करवा चौथ का व्रत रखने वाली स्त्रियाँ चंद घंटे निराहार रहने का कितना बड़ा मुआवजा अपने पति से वसूल करती है। कहने की आवश्यकता शायद नहीं है कि कुरीतियाँ अमीरों के घर से ही जूठन के रूप में बाहर फेंकी जाती है।
और बाज़ार ऐसे मौकों पर अपना हाथ सेंकता है।
अख़बारों और टीवी चैनलों पर इस बाज़ार-नियंत्रित व्रत का मनोरंजक विज्ञापन, कार्यक्रम के रूप में आपको खूब दीखते होंगे। इसका जब भी फुटेज दिखाया जाता होगा तो उसमें महंगे वस्त्र-परिधानों-आभूषणों से लदी कुछ एक स्त्री शरीर भी अनिवार्यतः दिखाए जाते होंगे। इन्हें परिवार की खुशहाली से या दांपत्य के बंधनों को दृढ करने से कोई मतलब नहीं होता। इनका उद्देश्य है अर्धशिक्षित स्त्रियों को फैशनपरस्ती के लिए उकसाना।
पौराणिक कथाओं की सावित्री मृत्यु के देवता से अपने लकड़हारे पति सत्यवान के प्राण वापस लौटा लाती है। वह कामदेव को रिझाने नहीं जा रही होती है जो सोलहो-श्रृंगार कर जाती।
खैर, समझाने वाले मुझे समझा सकते हैं कि इसी बहाने परंपरा की रक्षा होती है तो होने दो। तो मैं कहूँगा , लानत है ऐसी धार्मिक कही जाने वाली परंपरा पर जिसमें अच्छा आभूषण नहीं दिला सकने वाला पति तलाक का शिकार होता है। यह परंपरा दांपत्य में मधुरता नहीं, कटुता और लाचारी लाती होगी। यह बाजारू हो चली परम्पराएं नष्ट क्यों नहीं हो जाती है। लेकिन यह मेरा ख्याल है । इस फैशनपरस्त परम्परा की जिम्मेदारी जब बाज़ार ने उठा ली है तो मेरे लाख चिल्लाने से मिट नहीं सकती।
करवाचौथ की मंगल कामनाएँ - सतियों को नहीं, बाज़ार के कारोबारियों को !
बुधवार, 5 अक्तूबर 2011
साहित्य के विषय में ...
2.) किसी के कुछ नहीं कहने के बहुत से कारण होते है।
3.) यह सोचकर किसी तरह की कोई खुशफहमी नहीं पाल लेना चाहिए कि उसे मेरा कृत्य पसंद ही है।
4.) किसी बड़े कवि ने काव्य व्यवस्था दी है - मौन भी अभिव्यंजना है।
5.) लेकिन अभिव्यंजनाओं का तात्पर्य तो सहृदयों के लिए है, पगुराई भैंसों के लिए नहीं।
6.) हमारे समय की साहित्यिक दुर्दशा यह है कि साहित्य की अभिव्यक्तियाँ अभिधामूलक होती जा रही है।
7.) तय है कि अभिधामूलक होने का कोई प्रयोजन होगा।
8.) और वह प्रयोजन है, साहित्य का प्रतिवादी हो जाना।
9.) कुछ असाहित्यिक लोग विमर्श के धुंधलके का बेजा फायदा उठाकर व्यक्तिगत शत्रुता को साहित्यिक जामा देने में लगे हुए है।
10.) साहित्यिक लोगों को ऐसी प्रवृत्ति की पहचान होनी चाहिए|
11.) मौके का फायदा उठाकर गैर-साहित्यिक प्रभावशाली लोग होते है... साहित्य में प्रवेश पा जाते हैं।
12.) अपना बदला गाली गलौच देकर निकाल लेते हैं ..... और हम किसी अन्य की बेईज्ज़ती और बेबसी पर तालियाँ पीटते हैं।
13.) नवागंतुक इसे ही साहित्यिक अभिरुचि का प्रतिमान मान बैठते हैं।
14.) किन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
15.) साहित्य एक सहयोगी प्रयास है।
16.)साहित्य की सार्थकता इसी में है कि वह अन्य क्रिया-कलापों के साथ तो सहयोग बनाए ही , साथ साथ , आपस में भी पारस्परिक तालमेल और संवादिता बनाए रखे।