सोमवार, 8 मार्च 2010

महिला दिवस की राजनीति

महिला दिवस है, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है तो स्त्री-सशक्तीकरण की बात अवश्य की जानी चाहिए। किन्तु मैं कुछ सवाल करना चाहता हूँ, खुद से, आप से, और खास कर राजनैतिक दल और महिला संगठनों से।
आज अब बात काफी पुरानी सी हो रही है महिला आरक्षण को लेकर। संसद में महिला-आरक्षण हो यह बात भारतीय राजनीति के लिए काफी पुरानी है। तो ऐसी स्थिति में
१) भारत की राजनैतिक पार्टियों ने, जो बढ़-चढ़कर 'महिला-आरक्षण' की राजनीति कर रही हैं , अपनी पार्टी के स्टार पर इस तरह का कौन सा नज़ीर पेश किया है? कितनी महिलाओं को किस उन पार्टियों ने अपने दल में स्थान दिया और कितनी महिलाओं को अपना चुनावी उम्मीदवार बनाया ?
२) कुछ चेहरों को सामने लाकर रख देने भर से क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि भारत में महिलाओं को उचित दर्जा मिल चुका है ?
३) बृन्दा करात, सोनिया गाँधी का इस लिए राजनीति देदीप्यमान नक्षत्र की तरह चमक रहे हैं कि वे महिलाऐं खुद राजनीति में आए है या उनके साथ उनके पति का लेबल भी साथ है ?
और आखिरी सवाल
४) क्या सामान्य भागीदारी का एक मात्र विकल्प आरक्षण ही रह गया है ? किसी लालू प्रसाद या मुलायम सिंह के सिर ठीकरा फोड़ने से बेहतर यह नहीं होता कि संसद में कानून पास करवाने की मज़बूरी को छोड़कर सभी सहमत राजनैतिक पार्टियाँ अपने अपने दलों ऐसी व्यवस्था करवाते कि ऐसा प्रतीत होता कि वे सचमुच महिलाओं का सशक्तीकरण चाहते हैं ?
लेकिन नहीं, कोई ऐसा चाहता नहीं - बस राजनीति की जा रही है, राजनीति। यदि कुछ समाजवादी दल महिला आरक्षण में जाति के आधार पर कुछ हिस्सेदारी सुनिश्चित करना चाहते है तो इसमें बुराई क्या है ? या आरक्षण का लाभ सिर्फ ' छम्मक छल्लो ' किस्म की महिलों को ही मिले ?

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