हिंदी के दलित लेखक और चिंतकों में डॉ धर्मवीर ही ऐसे हैं जिन्हें निस्संदेह दलित लेखक माना जा सकता है। शेष लेखक इनके फुटनोट होने लायक भी नहीं हैं क्योंकि इनको छोड़कर किसी और के पास चिंतन की स्वतन्त्र तर्क-सरणी नहीं है।
दलित-विमर्श का वास्तविक प्रतिपक्ष यद्यपि परंपरा और परम्परावाद है तथापि इनका बौद्धिक प्रतिपक्ष कथित प्रगतिशीलता है। गैर दलित प्रगतिशीलों ने दलित-विमर्श का भी झंडा हडपने की बड़ी और लम्बी कोशिश की और क्योंकि बौद्धिकता का लगाम उन्हीं गैर दलित प्रगतिशीलों के हाथ में था इसलिए स्वीकृति की कुटिल राजनीति के जरिए कम और नाजुक बुद्धि वाले दलित लेखकों को अनावश्यक महत्त्व देकर दलित विमर्श की मुख्य धारा को कमजोर करने की अद्भुत कोशिश की।
डॉ धर्मवीर इस कुटिलता से प्रारंभिक दिनों से वाकिफ और होशियार रहे।उनकी ऐसी सावधानी को देखकर, गैर दलित बुद्धिजीवियों ने कुछ पालतू दलित प्रगतिशीलों से उनपर शारीरिक आघात का भी प्रयास करवाया था, यह भी सनद रहे।
अब, चूँकि साहित्य भी एक व्यवसाय है और हर व्यवसाय की मानिंद इसमें भी स्वीकार - तिरस्कार का खेल चलता है , जिसकी ओट लेकर दलित-विमर्श के शत्रु मित्र-रूप से शामिल होकर इसकी जड़ को ही दूषित करने का षड्यंत्र कर रहे हैं। इस षड्यंत्र से विमर्शकारों को तो होशियार रहना ही चाहिए। किन्तु यह बात भी तय है कि अकेले डॉ धर्मवीर इन झंझावातों के निपटान में सक्षम होंगे।
ध्यान रखने की जरुरत है कि दलित-विमर्श हो या स्त्री विमर्श , यह सिर्फ कोरी भावुकता से बनी नहीं रह सकती है। इसके प्रतिपक्ष सिर्फ ब्राह्मणवाद अथवा मनुस्मृति नहीं है। जड़ें गहरी है। जब तक सामानांतर विश्व-दृष्टि का प्रस्ताव नहीं होगा तबतक इसका कोई दूरगामी परिणाम नहीं होगा।
डॉ धर्मवीर के लेखन और चिंतन में एक नई विश्व-दृष्टि की सम्भावना और प्रस्तावना देखी जा सकती है।
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