गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

टूटी हुई डोर

टूटी हुई डोर !
किसी कारण से - चाहे अधिक खींचने से, या कमजोर होने से या घिस जाने की वजह से टूट गई डोरी, जगत लगाकर जोड़ ली जाती है।
गांठ भले ही पड़ जाती हो पर वह जुड़ जाती है।
टूटी हुई डोरी से गांठ लगी डोरी मुझे अधिक बेहतर मालूम देती है।
यह संसार है , जोड़-तोड़ लगा रहता है।
हम खुद भी जोड़ - तोड़ में लगे रहते है।
जोड़-तोड़ से अच्छा याद आया कि बिना विघटन के यानि तोड़-फोड़ के नव-निर्माण तो संभव ही नहीं है।
नीड़ का निर्माण फिर-फिर
सृष्टि का आह्वान फिर-फिर !
टूट गया या तोडा गया ; इसके पीछे मंशा क्या रही - यह महत्त्व की बात है।
हर विघटन के बाद सृजन होता ही हो , ऐसा अनिवार्य नहीं।
वैसे ध्यान से देखा जाय तो विघटन और सृजन दो अनिवार्य रूप से पृथक और स्वायत्त परिघटना है।
जो टूट गया सो टूट गया.....

1 टिप्पणी:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

गम्भीर, दार्शनिक चिन्तन, कविता के माध्यम से. सुन्दर है.