मंगलवार, 5 जनवरी 2010

राम-पियारी हजार मांगती है....!

हर सप्ताह राम पियारी हजार मांगती है !
परेशान-परेशान हो जाता हूँ यार। पर समझा भी कैसे सकता हूँ! न कान है न जुबान।
लगता है, आप भी धोखा खा गए, जैसे मैं खा गया था धोखा।

बात यह है कि मेरा एक दोस्त है जीतू , हाँ, जितेंदर सिंह। उसके पास है एक मरुति८०० , बीस साल की बुढ़िया गाड़ी - जो उसे बहुत प्रिय है। या यों कहें कि मित्र उसे प्रेम करने पर मजबूर है। .......... अरे! हाँ, आप बहुत ठीक समझे। बात की हर तह को खोलना जरुरी थोड़े ही होता है।
जवानी का जोश था , मारुति का टशन था , कहीं से पैसे का जुगाड़ भी हो चला था , सो जीतू ने मारुति खरीद डाली थी।
लेकिन किसी ने कहा है और शायद ठीक ही कहा है , " सब दिन होत न एक समाना"। सो भाई साहेब जीतू जी के भी हाथ तंग रहने लगे। हाथ तंग न हुए बल्कि परिवार बढ़ने से खर्चे बढ़ गए। पत्नी बच्चों में उलझ गई, बच्चे अपनी दुनियाओं में और जीतू के पास प्रेम करने को फिर से बच गई सिर्फ राम पियारी।
लेकिन इन दिनों उसकी खिच-खिच ज्यादा ही बढ़ गई है ।
जीतू एक दिन एकांत पाकर बता रहे थे , यार! हर बात की हद होती है। कई बार जी में आता है बेच दूँ साली को , पर दुसरे पल सोचता हूँ कौन लेगा इसे ? बड़ी ही वफ़ादारी से निभाया है जालिम ने पूरी जिन्दगी और अब मैं हाथ छुड़ा लूँ तो ये गई वाजिब न होगा। एक बार को बीबी ने इंकार किया होगा पर इसने नहीं। सच बताऊँ तो मेरी राम-पियारी मेरे दिल में बसी है। इसे बेचना तो इसको धोखा देना होगा न , एक किस्म की दगाबाजी .........! उम्र हो जाने के बाद इन्सान भी तो बीमार हो जाता है, नहीं!
तो भी हर सप्ताह के हजार मांगने के कारण जीतू थोड़े नाराज अवश्य हैं , सो देखा चाहिए कब तक उनका धैर्य नहीं चुकता है?
वैसे मैं जितेंदर सिंह की इस वफ़ादारी की दलील से बहुत प्रभावित हुआ। फिर भी मैं यह निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ कि मैं वफ़ादारी की तारीफ करूँ या इसे निहायत बेवकूफी समझूँ!
एक सवाल और मेरे जेहन में आता है कि लोग किसी मज़बूरी या विकल्प हीनता की स्थिति में एक दूसरे का साथ निभाते हैं या इसमें उनकी मर्जी भी शामिल होती है ?
मैं आपसे पूछता हूँ - आपकी राय क्या है इस विषय में ?

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