सोमवार, 31 अगस्त 2009

अनगढ़ कथा कहूँ केहि भांती


हर वास्तविकता को रोचक बना कर प्रस्तुत किया जाय यह सम्भव नहीं है किंतु हमारे प्रिय और जागरूक श्रोता और पाठक बिना रोचकता के कुछ भी सुनने -पढने को तैयार नहीं होते। इन्हें चाहिए कुछ मजेदार , कुछ चटपटा।
मसलन, किसी के दुःख-तकलीफ को चटखरा बना कर रखा जाय तो थोड़ा सा रस मिलता है। कभी हास्य-रस तो कभी करुण-रस।
किसी की जिन्दगी में कुछ बुरा होता है तो हम साहित्यिक लोग अधिक ही उत्साहित दिखाई देते है , जाने क्यों ?
लेकिन मित्रो !
वास्तविकता बड़ी बेडौल और अनगढ़ होती है जो बहुधा रोचक और रस-दार नहीं होती है। आत्मकथात्मक आलेख प्रायः वैसा ही होता है।
नमस्कार

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