बड़ी रहत हुई सुनकर कि कम्युनिज्म किसी की मोनोपोली नहीं है। हर बौद्धिक प्रवर्ग में इन लंबरदारों का कुछ अधिक ही दबदबा रहता है । ये लम्बरदार ही तो तय करते रहे है कि कौन कम्युनिस्ट है , कौन नहीं । दुनिया माने या न माने ये अपने को प्रगतिशीलता का नियामक मानते ही रहे हैं । ऐसा जलवा आपको विश्वविद्यालयों में आसानी से दिख सकता है ।
क्या यह सच है सोमनाथ दा कि सचमुच कम्युनिज्म किसी की बपौती नहीं है ?
अगर ऐसा है तो कई श्रेष्ठ कुलों में उत्पन्न कम्युनिस्ट , जो अपने घरों का काम राष्ट्र का काम कहकर करवाते रहे है , कैसे करवा पाएँगे ? मसलन , जब किसी सीनियर कामरेड की बेटी शादी होती है , बहुत सारे नए भरती हुए कामरेडों को शादी में मेहनत कर के साबित करना पड़ता है कि उनकी पार्टी के प्रति कितनी निष्ठां है !
अगर लम्बरदार उस नए रंगरूट की मेहनत और लगन से प्रभावित हुए तो ठीक , वरना ऐसा इम्तिहान उसे फिर देना पड़ता है।
नए रंगरूट में भी कुछ चालू होते हैं- जो सीधे लम्बरदार के जी को खुश कर देते हैं । तरीका वही आदिम और शाश्वत -सुरा और सुंदरी ।
जो इस कला में माहिर है - उसकी तरक्की का ग्राफ सीधे ऊपर की और जाता है ।
ऐसा इसलिए सम्भव होता रहा है क्योंकि --
लंबरदारी-प्रथा गंभीर रूप से इसपर काबिज़ रहा है
कम्युनिज्म चंद कुलीनता के नकली विरोधी कुलीनों की रखैल बन कर रह रही है
आदरणीय सोमनाथ चटर्जी के बोलवचन से थोडी राहत तो मिली है कि कम्युनिज्म किसी की मोनोपोली नहीं ,
अब शायद,
कोई शरीफ आदमी भी कम्युनिस्ट होने का मन बनाए ।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें