शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

संस्कृति और अर्थशास्त्र

वे बहुत नासमझ नहीं हैं
वे अब जग चुके हैं
अब उन्हें और अधिक दबाया नहीं जा सकता
भारतीय समाज पुरुषवादी और ब्राह्मणवादी है
वगैरह वगैरह ...............
आइए, पहले पहचानते है
फिर जानते हैं
फिर उसका निदान खोजते हैं महावैद्य गौतम बुद्ध की तरह
जैसे दुःख है - उसका कारण है - उसका निदान यानि समाधान है -और अंत में समाधान के उपाय ?
सावधान !
बुद्ध पुरूष तो थे
पर क्या वे ब्राह्मणवादी तो नहीं थे
नहीं , नहीं , वे ब्राह्मणवादी कैसे हो सकते है !
डॉ आंबेडकर ने उन्हें अपना आदर्श माना है
बुद्ध तो ब्राह्मणवादी हो ही नहीं सकते ।
तो ब्राह्मणवादी और पुरुषवादी इकट्ठे कौन है ?
मनु और कौन ?
इतना भी नही जानते ?
समस्या इतनी बड़ी है कि लोगों को सिर्फ़ अत्याचार ही दीखता है।
यह अत्याचार को समझने की समझ, इसे अत्याचार कहने का साहस जिस स्रोत से मिला , उसका तो कहीं ज़िक्र ही नहीं ।
यह संस्कृति का अर्थशास्त्र है कि उपकारियों का ध्यान न करो।
बस , रोओ , चीखो, हाय-तौबा मचाओ कि नारी जन्म, दलित के घर जन्म , पुरुषवादी-ब्राह्मणवादी वर्चस्व का षडयंत्र है।
ऐसा नहीं है , भाइयो और बहनों,
वे जो फैशन-चैनल पर कैट -वाक करने वाले भाई लोग है उन्हें बस आपके देह-यष्टि से ही प्रेम है, वे आपसे भी बड़े लिंगवादी है ।
पर हाँ , उनका लिंग-निर्णय थोड़ा सेक्युलर किस्म का होता है।
यह संस्कृति का नया और आकर्षक अर्थशास्त्र है .

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