शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

दुःख: अपना और पराया

दुःख यूँ तो एक लफ्ज है जिसका हम मौके बेमौके इस्तेमाल करते रहते हैं। मसलन, दुःख की बात है कि ..., मुझे इसका दुःख है, दुःख के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि ...., दुःख -सुख तो लगा ही रहता है, वगैरह, वगैरह। हमें पता है कि दुःख शब्द का अर्थ है।
मुझे दाँत में दर्द होता है तो मुझे दुःख होता है। कोई मेरे साथ बदतमीजी से पेश आता है तो दुःख होता है। कोई मुझे अनसुना कर देता है तो दुःख होता है। और इन दुखों को मैं दूसरों से शेयर भी करता हूँ/ करना चाहता हूँ यह जताते हुए कि यह दुःख जेनुइन है।
लेकिन जब मैं दूसरों के दुखों पर विचार करता हूँ तो क्या उसी कोटि के दुखों को दुःख मानने को तैयार होता हूँ? शायद नहीं। दूसरे का दुःख मुझे तगड़ा चाहिए। मसलन, बीमारी हो तो कम से कम कैंसर लेबल का हो, चोरी हुई हो तो कंगाली की हालत की हो, किसी मर्द ने अपनी औरत को सताया हो तो या तो बलात्कार हुआ हो या फिर कम से कम जान पे बन आई हो, या इसी तरह के भयानक स्तर का दूसरों दुःख हमें दुखी होने लायक लगता है।
सवाल है कि दुःख क्या है ? कोई नारा है , या कोई संवेदना है, भाव है, विचार है , मुद्दा है , अनुभव है, क्या है ?
मैं दुखी हूँ।
तो क्या फर्क पड़ता है आपको ? उसी तरह आप दुखी हैं तो मुझ पर क्या असर होना चाहिए ?
दार्शनिक विद्वान्, गुणी मुनि, संत महात्मा कहते है कि सुख-दुःख मन के विकल्प है जो पानी के बुलबुले की तरह क्षण-भंगुर है , आते जाते रहते है इसके लिए बहुत अधिक विचलित नहीं होना चाहिए। लेकिन संसार में, व्यवहार में ऐसा नहीं चलता है। अगर आप विचलित नहीं होंगे तो आप संगदिल, कठोर, बेदर्द , जानवर या स्वार्थी कहे जाएँगे और आप ऐसा नहीं चाहते हैं।
बड़ी उलझन होती है। आपको न होती हो लेकिन मुझे होती है, इस दुःख के सवाल पर। उलझन इसलिए क्योंकि मैं अक्सर पसोपेश में पड़ जाता हूँ जब कोई महाशय 'अ' किसी अन्य महाशय 'ब' का दुःख मुझे सुनाते है। ऐसे में मैं तय नहीं कर पाता हूँ कि मैं किस भाव में प्रतिक्रया करूँ !
कोई बूढ़ा सा निरर्थक हो चुका कोई नेता , अभिनेता , कलाकार, अध्यापक , लेखक, साहित्यकार मर गया , बीमार हो गया तो मुझे कैसी प्रतिक्रिया करनी चाहिए, यही न कि ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे। लेकिन लोग किसी और ही तरह से प्रतिक्रिया करते है , वे दुखी दुखी से दिखना चाहते हैं। मैं ऐसा नहीं कर पाता, सो मैं खुद की भी नजर में गिरने लगता हूँ।
आज-कल के साहित्य कर्म में भी अनभोगे दुखों को प्रमाणिक अनुभूति की तरह व्यक्त करने का बाज़ार गर्म है। मसलन सवर्णों द्वारा दलितों को सताया जाना और मर्दवादी सोच वाले पुरुषों द्वारा स्त्रियों को रौंदा जाना- साहित्यिक बाज़ार में चलने वाले पक्के मुहरे हैं।
खैर, मैं बात तो कर रहा था दुखों की, मैं दरअसल एक फर्क जानना चाहता था अपने दुःख और पराये दुःख का। दरअसल मैं पहचान भी करना चाह रहा था अपना दुःख और पराया दुःख की, लेकिन शायद मसला इतना उलझता जा रहा है कि..... चलिए फिर कभी।

2 टिप्‍पणियां:

Dr. Bhaskar ने कहा…

"दुनियां बड़ी ज़ालिम है
दिल तोड़ के हँसती है"
रेलवे प्लेटफोर्म पर अक्सर ये कहा जाता है कि "आपको हुई असुविधा के लिए खेद है."
इस तरह की खेदाभिव्यक्ति भुक्तभोगी के दुःख को और बढाता ही है.

रवीन्द्र दास ने कहा…

सचमुच. आपकी टिप्पणी बहुत ही मजेदार है. मैंने इतनी दूर तक नहीं देखा था. धन्यवाद.