मंगलवार, 16 मार्च 2010

समय और दुनिया : मेरा और तुम्हारा


मेरा समय; तुम्हारा समय यानि कविता समय !


सबको अपने समय में ही खुशियाँ मनानी है, गम उठाना है। और और बहुत सारे सुकर्म-कुकर्म करने हैं। जैसे, झूठ नहीं बोलने का वादा करके झूठ बोलना है। और फिर पकड़े जाने पर 'हें..हें...हें....' करना है या झूठ बोलने की अपनी कोई मज़बूरी बतानी है या मुकर जाना है या अकड़कर यह कहना है कि झूठ बोल ही दिया तो क्या पाप कर दिया !


चाहे जो करना है , अपने समय में करना है।


अपने समय को समझना अत्यंत दुष्कर कार्य है। लोग बहुधा अतीत में जीते हैं। अतीत में जीना तुलनात्मक रूप से आसान और सुरक्षित है। मनुष्य जब भी अपनी पराजय का आभास पाता है अतीत की भागने लगता है। उसे लगता है कि अतीत में हार नहीं सिर्फ जीत है।


अतीत एक ठहरा हुआ वाकया है इस लिए हम उसका जैसा चाहे वैसा तर्जुमा कर लेते हैं। हम अतीत को अपनी जरूरत और रूचि के अनुरूप गढ़ लेते है । कहा जा सकता है कि अतीत एक लोंदा है गीली मिट्टी का और उसे अपनी मर्जी के रूप में गढ़ लेते हैं और बच्चे की तरह खुश हो उठते हैं। खैर!

लेकिन अपने समय में अपनी मर्जी नहीं चलती ; हालाँकि हम कम कोशिश नहीं करते हैं अपनी मर्जी चलाने की। इसका मतलब यह भी नहीं कि हम और आप बिलकुल ही बेबस और लाचार हैं ! नहीं, यहाँ आवश्यकता होती है खुद में सुघट्यता लाने की और तदनुरूप प्रति-व्यवहार करने की ......

मैं कहूँगा कि समय रहस्य नहीं , समय एक रौशनी है। एक ऐसी रौशनी जिससे बहुधा सामान्य जन की आँखें चुंधिया जाती है ।

मेरा समय और तुम्हारा समय उतना ही पृथक और भिन्न है जितना मेरी दुनिया तुम्हारी दुनिया से अलग है। हम सभी अपनी अपनी दुनियाओं की धुरी होते है ......


4 टिप्‍पणियां:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

सच है, सबका समय अलग-अलग होता है. सुन्दर कथ्य.

रवीन्द्र दास ने कहा…

aapke is hausla aafzaai ke lie shukriya, Vandnaji.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

सत्य बोध कराते शब्द....बहुत सुन्दर!

Unknown ने कहा…

सटीक