शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

मिडिया, फिल्मी-लोग और हम

साफ-साफ कहना तो थोड़ा मुश्किल है कि असलियत क्या है ? फिर भी चारों ओर एक तरह के चारित्रिक स्खलन की गंध तो आ रही है। अब, चूँकि मिडिया से कमोबेश सभी रूबरू हो जाता है इसलिए पहला ठीकरा उसी के सर फोड़ा जाता है। और फिर देखा जाए तो बात बेबुनियाद भी नहीं है।
अब शाहरुख़ खान वाली बात को लीजिए। वह कौन है ? एक नाचने - गाने वाला नचनिया , जो इसके बदले कुछ अधिक पैसा लेता है। कोई एतराज़ ? वह इतना जरूरी कैसे हो जाता है कि उससे राष्ट्रिय अस्मिता जुड़ जाती है ।
सप्लीमेंट में जिसका फोटो छापना उचित है - वह मुख्य पृष्ठ पर छप जाता है ? उसे किसी विदेशी हवाई अड्डे पर पूछ - ताछ हो ही गई तो इसमे कौन सा पहाड़ टूट पड़ा ?
रस्ते पर नाचते गाते बच्चे आपको भिखारी नज़र आते हैं और उसका स्तर आप सामान्य आदमी से नीचे रखते है , लेकिन ये नचनिये आपको राष्ट्रिय- अस्मिता के प्रतिनिधि और पुरोधा नज़र आते हैं , क्यों?
ये न नेता हैं , न चिन्तक और न ही विद्वान् - ये हैं नाचने गाने वाले ऐसे छोटे लोग जिनकी नज़र में पैसा के आलावा कुछ मायने नहीं रखता है। इन्हें राष्ट्र की प्रतिष्ठा या अस्मिता से जोड़ कर न देखा जाय क्योंकि काले-धंधे वाले लोगों से इनकी साठ-गांठ होने की अफवाह भी धड़ल्ले से उडा करती है।
मुझे एतराज़ है - इस तरह के लोगों को राष्ट्र-पुरूष कहे जाने से । किसी को इनके प्रति बहुत अधिक श्रद्धा है तो
इनकी तस्वीरें बाप की फोटो की जगह लगायें ।
मिडिया के लोगो से पूछा जाता है कि भाई ! आप लोग इस तरह के घटिया को इतना क्यों दिखाते हैं ? उन्हें .....
वे जवाब देते हैं- औडिएंस ऐसा ही कुछ देखना चाहती है, हम क्या करें, हमें मुनाफा चाहिए।
लोगों से पूछिये तो कहेंगे कि अरे मत पूछिये अब तो परिवार के साथ टीवी देखना मुश्किल हो गया है , पता नहीं क्या दिखाते रहते है !
खैर! सचाई जानना न तो आसान है , न जरूरी - जरूरी है संस्कृति समीक्षा , कि आखिर इस पतन ( परिवर्तन ) की जड़ कहाँ है ?
कुछ गड़बड़ तो है, जिसे शायद ठीक नहीं किया जा सकता।

2 टिप्‍पणियां:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

रवीन्द्र जी, मुझे लगता है कि जडें तो समाज में ही विद्यमान हैं. क्यों हम किसी भी चैनल पर प्रसारित होने वाले लगभग अश्लील कार्यक्रम का इतना विरोध नहीं कर पाते कि उसका प्रसारण बन्द ही कर दिया जाये? पश्चिम की तर्ज़ पर हमारे यहां सच का सामना जैसे कार्यक्रम बनते हैं और लोग भी उनमें बाखुशी भाग लेते हैं. यदि लोग भाग लेना बन्द कर दें तो क्या कार्यक्रम चल सकेगा?

रवीन्द्र दास ने कहा…

vandna ji,
thoda dusre tarike se bhi dekhne ki jarurat hai k yadi ham dekhna chhod de to kya aise behude prasarano ko TRP milegi? nahi. hame achcha lagta hai padosi ki khidki me jhankna, 'sach ka samna' type series hai hi vahi. isase kam-samajh madhy-varg ke ghar ka vatavaran bigadta hai ya kahe k shuddh hota hai. bhavani bhai ki kavita-
shanti kahin bhi nahin, bada aapadhapi hai.
mujhe to bas hsasan hi papi lagta hai.