दिल्ली हिन्दी-अकादमी के मद्देनज़र इन दिनों अख़बारबाजी बड़ा ही मज़ेदार रहा। कोई बयान दे रहा है तो कोई इस्तीफा दे रहा है और तो कोई अपने पिछले बयान का सही मतलब बता रहा है।
दूध का धुला कोई नही है, यह तो जगजाहिर है।
फिर भी अशोक चक्रधर को अकादमी का उपाध्यक्ष ( क्योंकि मुख्यमंत्री पदेन अध्यक्ष होता है) बनाया जाना मुझ जैसे बहुत लोगों को अजीब लगा । इसका कारण साफ है । चक्रधर जी कवि नही, हास्यकवि है। साहित्यिक लोग उसे साहित्यकार नही मानते। हाँ! इतना तो तय है कि टीवी पर वैसे ही जोकरों को कवि कहा-माना जाता है।
इस बात से मुझे तब कोफ्त होती है जब कुछ चू..... किस्म के लोग अपने को कविता का श्रोता बताते हुए टीवी कार्यक्रमों का हवाला देते हैं जहाँ कुछ भांड अपने-अपने करतब दिखाकर आए हुए अर्ध-शिक्षित किरानी टाइप लोगों का मनोरंजन करते है। अशोक चक्रधर उन्हीं भांडों का मुखिया है।
तय है कि इस्तीफे का कारण कुछ और होगा । लेकिन अर्चना वर्मा के द्वारा श्री अशोक जी चक्रधर को विदूषक कहा जाना बड़ा ही वाजिब और मौजूं लगा।
यदि दिल्ली हिन्दी अकादमी को " हास्य-कवि सम्मलेन " में तब्दील करने की दूरगामी योजना यदि सरकार की नही है तो सचमुच इन फूहड़ जोकरों से हिन्दी-अकादमियों को अवश्य बचाया जाना चाहिए।
अंत में, अर्चना वर्मा का मैं विशेष धन्यवाद करता हूँ जो उन्होंने सही व्यक्ति के लिए उचित उपनाम सुझाया। हालाकि विदूषक नाटक में कम महत्त्वपूर्ण होता है ऐसा नहीं है , तो उसको नायकत्व नहीं दिया जा सकता।
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1 टिप्पणी:
आपसे सहमत हूं।
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