शनिवार, 9 मई 2009

माधो प्रसाद के ससुर की कार

वैसे तो माधोप्रसाद दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी कोलेज के प्रोफेसर हैं । अच्छी खासी तनख्वाह है , प्रेम विवाह किया है सो वाइफ भी कमाऊ है । लेकिन उनके प्रेम विवाह का समाजशास्त्र तनिक अनोखा है।

जब प्रेम करने की प्रक्रिया में थे तो उन्होंने ढंग से पता किया -ससुरों के बारे में तो साफ हुआ कि ससुरे की बस को बेटियाँ ही बेटियाँ हैं लेकिन ससुरे ने ठीक ठाक दौलत इकट्ठी कार रखी है -मन ही मन मुस्कुराकर माधोप्रसाद ने प्रेम को परवान चढाया ।

ससुर पर दबाव बनाने के लिए पत्नी को उल्लू बना कर शादी के बाद भगाया ।

भाग्य का जुदा खेल -

बिना किसी उठा पटक के सब मामला शांत हो गया ।

छः -सात साल पुरानी मारुती-८०० पड़ी हुई थी ससुरजी के पास बिना काम की , सो उन्होंने माधोप्रसाद पर कृपा करते हुए गिफ्ट किया ।

लेकिन माधोप्रसाद ठहरे कम्युनिस्ट सो दोस्तों से बताया कि ससुर से ख़रीदा है। खैर , इस बात के तो कई साल हो चले यानि ४-५ साल ।
ससुर ने पिछले साल खरीदी थी आई टेन।
माधोप्रसाद की नींद साल भर उडी रही, मन बेचैन रहा कुछ जुगत सूझ ही नही रहा था कि किसतरह इस नए कार को हड़पे । वह बेचारी कार भी ससुरे के यहाँ इंटों पे खड़ी रहती, जालिम रिटायर्ड आदमी जाए तो कहाँ जाए ?
माधोप्रसाद को दिन को चैन, न रात को नींद ।
उसने अपनी उस मुर्ख पत्नी को और अधिक मुर्ख बनाने का षड़यंत्र किया। जाकर उसने अपने बाप से कहा कि कार इन्हे दे दो आप तो कहीं आते जाते हो नहीं
पिता ने बेटी की बेवकूफी को समझते हुए कहा कि बेटे, ये कार तो कल ही चोपडा को बेच डाला - अब तो बस एक रास्ता है कि माधोजी पैसे का इनजाम करें तो चोपडा को कार न देकर तुम लोगों को ही दे दूँ । पैसा और कार दोनों घर में ही रह जाएगा ।
अच्छे दिखने की मज़बूरी में माधोप्रसाद को ससुर की कार का वाजिव से अधिक दम देना पड़ा किश्तों में।
शुरू में माधो ने सोचा कि थोड़ा सा पैसा देता हूँ और बाद में देने के नाम पर कार हड़पता हूँ। लेकिन ससुरा तो ससुरा ही निकला, कहा- माधोजी आपमें और मुझमे कोई फर्क तो है नहीं , दिक्कत तो चोपडा है , उसे कैसे समझाऊंगा ।
कमीना माधोप्रसाद खेल तो सब समझता था ,पर बेचारा करे तो क्या करे!
बाज़ार-भाव से ज्यादा पैसा भी देना पड़ा ।
आसपास यही बात फैली कि माधोप्रसाद झूठ बोल रहा है - ससुर कभी पैसा लेगा।
वैसे माधोप्रसाद प्रोफेसर है और कम्युनिस्ट भी है , दहेज़ के सख्त खिलाफ हैं।

15 टिप्‍पणियां:

चश्म-ए-बद्दूर ने कहा…

दास जी, तथाकथित कम्यूनिस्टों की बखिया उधेड़ने में आपका जवाब नहीं। आपके आस पास तो बहुत से कम्यूनिस्ट हैं। उनसे जुड़े पूराने अनुभव भी हैं। बस खोल दीजिए खाता।
इस रचना पर साधुवाद....

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

नहले पे दहला....खूब कही..

रवीन्द्र दास ने कहा…

dhanyvad, Aprajita!khata to khula samajhiye. tumhari tippani hi ek statement hai. shukrya.

रवीन्द्र दास ने कहा…

Vandnaji, dhanyvad. sansar hai, tarah tarah ke log, tarah tarah ki baten. aapko bhaa gaya yah prasang mujhe khushi hai.

Urmi ने कहा…

dhanyavad aapki tippani ke liye.
bahut khoob likha hai aapne. kuchh alag sa zara hatke.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

वाह क्या बात है............कमुनिस्तों से खासा प्यार है आपका ............अच्छा व्यंग है

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

वाहवा....ये भी खूब रही...

विभाव ने कहा…

माधो जैसे लोगों को कम्युनिस्ट कहकर ही कम्युनिस्टों को बदनाम किया जाता है। कम्युनिस्ट होने का अर्थ माधो होना नहीं है। माधो इस पहचान का छद्म इस्तेमाल करता है। इसके लिए माधो एवं आज का समय जिम्मेदार है जो स्वार्थ के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं। कम्युनिस्ट की पहचान इनसे परे विशिष्ट है। कृपया इन्हें बदनाम न करें।
आपकी यह व्यंग्य कृति अद्भुत....
मुबारक हो

रवीन्द्र दास ने कहा…

कम्युनिस्ट होने का अर्थ माधो होना नहीं है। माधो इस पहचान का छद्म इस्तेमाल करता है। इसके लिए माधो एवं आज का समय जिम्मेदार है जो स्वार्थ के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं।
Bhaskar, shayad thik kah rahe hai. dhanyvad.

रवीन्द्र दास ने कहा…

Urmi/ babli,
dhanyvad.

रवीन्द्र दास ने कहा…

digambar ji, main sabse hi pyar karta hun, aap bhi kuchh karen, ham aapka bhi samman karenge.

satish kundan ने कहा…

मजेदार रचना पढ़कर मन प्रशन्न हो गया...

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

आपबीती बडी अच्छी लिखी है आपने.......हा!हा!हा!वाह...

रवीन्द्र दास ने कहा…

shriman Prasann ji!
badi gahari nazar hai aapki. lagta hai tir nishane par laga hai.
mujhe khushi hai k kisi ko aaina to mila. ek bhi madhoprasad sharminda to hua. shukriya.

admin ने कहा…

Bhai Ravindra ji

Aapkee kahanee adhooree hai. Ise poora kar kahani ko poori kahani banayen. Ise laghukatha na rahne den.