आज के विश्व में भारत की कोई बड़ी ऊँची साख नहीं है। अगर ऐसा होता तो दुसरे देशों में जाकर लोग ग्रीन कार्ड के चक्कर में न पड़ते। कोई न कोई तो कमी होगी ही तभी तो भाई लोग पहले तो फोरेन जाने के लिए जी तोड़ कोशिश करते है बाद में वहां से इंडिया को मिस करते है। हाय रे दैव!
आज के समय की एक और खासियत है और वह है कला का व्यवसायीकरण।
लोगबाग कला का व्यापर कर रहे हैं लेकिन उम्मीद कटे हैं कि उन्हें सम्मान भी मिले !
ये कैसे होगा ?
अख़बारों में छपता है कि अमुक नचनिया का रेट अब एक करोड़ हो गया और उस नाचनेवाले का सम्मान बढ़ जाता है। क्यों?
इसका जवाब किसी के पास न होगा क्योंकि खैरख्वाही लेने वालो का व्याकरण कुछ अलग होता है।
न जाने , मैं भी क्या बकबक करने लगा ?
बात थी खाने की और मै देखने चला गया नाच और तमाशा।
तो मैं बात कर रहा था खाना बनाना भारत में एक कला है ।
हो सकता है कि आप ने कभी भारत का गाँव देखा हो।
वहां हर कम कराती हुई स्त्रियाँ गाना गाती है -धन कूटती हुई , गेहूं पिसती हुई, ............... कर रही होती है मेहनत और मना रही होती है उत्सव ।
विद्वान् लोग और प्रोफेशनल लोग कह सकते है- उत्सवधर्मिता पिछडापन और गरीबी की निशानी है ।
माफ़ कीजिए ,
खाना बनाना सचमुच एक कला है । कैसे? यह भी मैं जरुर बताऊंगा लेकिन कभी और ।
आज और अभी के लिए मुझे माफ़ किया इसके लिए धन्यवाद।
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5 टिप्पणियां:
अरे रवीन्द्र जी, अपनी कहानी पूरी तो कीजिये, बीच में ही कहाँ चल दिए! पढ़कर अच्हा लग रहा था, यह नहीं पता था की अधूरी है! खत्म कीजिये तब माफ़ करेंगे!
... प्रभावशाली अभिव्यक्ति ।
अनूठी लेखन शैली, कुछ बाउंसर भी चली गयी। तीन बार पढ़ना पड़ा और अब भी लग रहा है कि आपको पूरी तरह नहीं समझ पाया। खैर अगली पोस्ट से शायद कुछ माजरा साफ हो।
आपकी रचनाएं तो प्रभावशाली हैं ही, आपके टिप्पणीकार की टिप्पणियां भी ज्यादा प्रभावशाली होती हैं। खैर ... मैं तो इन्हें टिप्पणी कहने से भी बचना चाहता हूं।
आप का ब्लाग बहुत अच्छा लगा।
हर सप्ताह रविवार को तीनों ब्लागों पर नई रचनाएं डाल रहा हूँ। हरेक पर आप के टिप्प्णी का इन्तज़ार है.....
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मुझे यकीन है आप के आने का...और यदि एक बार आप का आगमन हुआ फ़िर..आप तीनों ब्लागों पर बार -बार आयेंगे/आयेंगी..........मुझे यकीन है....
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