कोई कुछ कहता नहीं तो इसका मतलब यह नहीं निकलना चाहिए कि कोई कुछ कहना नहीं चाहता। किसी के कुछ
नहीं कहने के बहुत से कारण होते है। यह सोचकर किसी तरह की कोई खुशफहमी नहीं पाल लेना चाहिए कि उसे
मेरा कृत्य पसंद ही है। किसी बड़े कवि ने काव्य व्यवस्था दी है - मौन भी अभिव्यंजना है। लेकिन अभिव्यंजनाओं
का तात्पर्य तो सहृदयों के लिए है, पगुराई भैंसों के लिए नहीं।
हमारे समय की साहित्यिक दुर्दशा यह है कि साहित्य की अभिव्यक्तियाँ अभिधामूलक होती जा रही है। तय है कि
अभिधामूलक होने का कोई प्रयोजन होगा। और वह प्रयोजन है, साहित्य का प्रतिवादी हो जाना। कुछ असाहित्यिक
लोग विमर्श के धुंधलके का बेजा फायदा उठाकर व्यक्तिगत शत्रुता को साहित्यिक जामा देने में लगे हुए है।
प्रभावशाली लोग होते है... साहित्य में प्रवेश पा जाते हैं। अपना बदला गाली गलौच देकर निकाल लेते हैं ..... और
हम किसी अन्य की बेईज्ज़ती और बेबसी पर तालियाँ पीटते हैं। नवागंतुक इसे ही साहित्यिक अभिरुचि का
प्रतिमान मान बैठते हैं। किन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
साहित्य एक सहयोगी प्रयास है। साहित्य की सार्थकता इसी में है कि वह अन्य क्रिया-कलापों के साथ तो सहयोग
बनाए ही , साथ साथ , आपस में भी पारस्परिक संवादिता बनाए रखे।
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