दुनिया का भी अजब ही दस्तूर है! इंसानों का तो उससे भी निराला! याद है हरिवंश राय बच्चन की कविता, ' नीड़ का निर्माण फिर फिर, सृष्टि का आह्वान फिर फिर।' कभी किसी मनचले शायर ने कहा था, " तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही, तू नहीं और सही, वो नहीं और सही।" कहीं तो गाड़ी को किनारा मिलेगा! और नहीं मिलेगा तो क्या हुआ, तेल पानी लेकर अपन चलते रहेंगे, चलते रहेंगे, और क्या ! लेकिन प्यार करके ही रहेंगे या कम से कम प्यार का इज़हार तो पक्का करेंगे।
चौदह फरवरी के रोज़ हमें वह लड़का ज़रूर याद आता है। अब तो वह भले आदमी किसी प्रांतीय सरकार में बड़ा अफसर लग चुका है। वह दुबला पतला सा प्रेमी लड़का!
मित्रो! मेरी समझ में सफलता और विफलता जैसी धारणाओं ने हमारा बेडा गर्क कर रखा है वरना उस अदम्य प्रेम- अभिलाषी का नाम प्रेम की किताब के किसी पन्ने पर ज़रूर होता। खैर! तो वह चौदह फरवरी की सुबह साढ़े आठ बजे गाढ़े भूरे रंग की थ्री पीस सूट, टाई के साथ, पहन कर विश्वविद्यालय परिसर में हाज़िर हो जाता। बिलकुल ज़रूरी काम की मानिंद। फैज़ भी बड़े शायर थे, " वो लोग बड़े खुशकिस्मत थे जो इश्क को काम समझते थे "। भाई, लड़कियां तो नौ बजे या उसके बाद आएँगी न ! तब तक वह परिसर में कुछ इस बेचैनी से चहलकदमी करता कि मानो, ये कई लड़कियों के पिता हैं और बेटे के लिए मरे जा रहे हैं और इनकी पत्नी फिर से प्रसूति-गृह में प्रसव वेदना से तड़प रही हैं और भाई साहब खुद अपनी किस्मत की प्रसव-पीड़ा से तड़प रहे हैं कि कहीं इस बार फिर बेटी न हो जाए ! कमीने! कुछ लोग सोचते हैं कि तड़पने से काम बन जाता है। खैर, आधा घंटा कोई बहुत बड़ा वक्त नहीं होता, सो बीत ही जाता है। अपनी कोट में छुपाये गुलाब के फूल को अब हाथ में रख लेता। और जिस लड़की की तरफ जनाब रुख करते, वह लड़की सचमुच दौड़ कर भागती थी उससे बचने की खातिर। लेकिन जालिम जमाना, उसके इस क्रिया कलाप को बच्चे बूढ़े सभी बड़े चाव से देखते। कुछ दुष्ट इसका हौसला भी बढ़ाते। लेकिन बारह बजते न बजते ये भाई साहब, रेड रोज़ समेत गायब।
बड़ा शहर है हमारा, सो कई विश्वविद्यालय हैं यहाँ, और इनकी पहुँच इनके हौसले की तरह ही लम्बी तगड़ी थी सो अब ये उस परिसर में अपना हाथ आजमाने चल पड़ते थे। वहां के हमारे गुर्गे इस दुर्दम्य प्रेमी हृदय का आँखों देखा हाल सुनाया करते । लेकिन, हा! हन्त! प्रेम के विषय में जितनी गलतफहमियां साहित्यकारों, फिल्मकारों ने फैला रखी है, सारी इस के प्रेम की दारुण विफलता में दिख जाती।
इस बार तो सुना है, अख़बारों में पढ़ा है कि कुछ प्रेमी अपनी 'रखैलों' (girlfriends) को हेलिकोप्टर पर प्रेम प्रदर्शित करते हुए हवा में घुमाएंगे। चलो, डार्लिंग, चलो हम प्रेम का अभिनय करें। इस बीच प्याज कुछ महंगा हो गया था, सो सिर्फ प्याज महंगा लग रहा था पर वास्तविकता तो यह है कि महंगाई ने कमाकर खाने वाले की जान ही सांसत में डाल रखी है। सो, चलो आज महंगाई का रोना नहीं रोयेंगे, आज प्यार प्यार खेलेंगे।
चौदह फरवरी के रोज़ हमें वह लड़का ज़रूर याद आता है। अब तो वह भले आदमी किसी प्रांतीय सरकार में बड़ा अफसर लग चुका है। वह दुबला पतला सा प्रेमी लड़का!
मित्रो! मेरी समझ में सफलता और विफलता जैसी धारणाओं ने हमारा बेडा गर्क कर रखा है वरना उस अदम्य प्रेम- अभिलाषी का नाम प्रेम की किताब के किसी पन्ने पर ज़रूर होता। खैर! तो वह चौदह फरवरी की सुबह साढ़े आठ बजे गाढ़े भूरे रंग की थ्री पीस सूट, टाई के साथ, पहन कर विश्वविद्यालय परिसर में हाज़िर हो जाता। बिलकुल ज़रूरी काम की मानिंद। फैज़ भी बड़े शायर थे, " वो लोग बड़े खुशकिस्मत थे जो इश्क को काम समझते थे "। भाई, लड़कियां तो नौ बजे या उसके बाद आएँगी न ! तब तक वह परिसर में कुछ इस बेचैनी से चहलकदमी करता कि मानो, ये कई लड़कियों के पिता हैं और बेटे के लिए मरे जा रहे हैं और इनकी पत्नी फिर से प्रसूति-गृह में प्रसव वेदना से तड़प रही हैं और भाई साहब खुद अपनी किस्मत की प्रसव-पीड़ा से तड़प रहे हैं कि कहीं इस बार फिर बेटी न हो जाए ! कमीने! कुछ लोग सोचते हैं कि तड़पने से काम बन जाता है। खैर, आधा घंटा कोई बहुत बड़ा वक्त नहीं होता, सो बीत ही जाता है। अपनी कोट में छुपाये गुलाब के फूल को अब हाथ में रख लेता। और जिस लड़की की तरफ जनाब रुख करते, वह लड़की सचमुच दौड़ कर भागती थी उससे बचने की खातिर। लेकिन जालिम जमाना, उसके इस क्रिया कलाप को बच्चे बूढ़े सभी बड़े चाव से देखते। कुछ दुष्ट इसका हौसला भी बढ़ाते। लेकिन बारह बजते न बजते ये भाई साहब, रेड रोज़ समेत गायब।
बड़ा शहर है हमारा, सो कई विश्वविद्यालय हैं यहाँ, और इनकी पहुँच इनके हौसले की तरह ही लम्बी तगड़ी थी सो अब ये उस परिसर में अपना हाथ आजमाने चल पड़ते थे। वहां के हमारे गुर्गे इस दुर्दम्य प्रेमी हृदय का आँखों देखा हाल सुनाया करते । लेकिन, हा! हन्त! प्रेम के विषय में जितनी गलतफहमियां साहित्यकारों, फिल्मकारों ने फैला रखी है, सारी इस के प्रेम की दारुण विफलता में दिख जाती।
इस बार तो सुना है, अख़बारों में पढ़ा है कि कुछ प्रेमी अपनी 'रखैलों' (girlfriends) को हेलिकोप्टर पर प्रेम प्रदर्शित करते हुए हवा में घुमाएंगे। चलो, डार्लिंग, चलो हम प्रेम का अभिनय करें। इस बीच प्याज कुछ महंगा हो गया था, सो सिर्फ प्याज महंगा लग रहा था पर वास्तविकता तो यह है कि महंगाई ने कमाकर खाने वाले की जान ही सांसत में डाल रखी है। सो, चलो आज महंगाई का रोना नहीं रोयेंगे, आज प्यार प्यार खेलेंगे।
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