दिल्ली हिन्दी-अकादमी के मद्देनज़र इन दिनों अख़बारबाजी बड़ा ही मज़ेदार रहा। कोई बयान दे रहा है तो कोई इस्तीफा दे रहा है और तो कोई अपने पिछले बयान का सही मतलब बता रहा है।
दूध का धुला कोई नही है, यह तो जगजाहिर है।
फिर भी अशोक चक्रधर को अकादमी का उपाध्यक्ष ( क्योंकि मुख्यमंत्री पदेन अध्यक्ष होता है) बनाया जाना मुझ जैसे बहुत लोगों को अजीब लगा । इसका कारण साफ है । चक्रधर जी कवि नही, हास्यकवि है। साहित्यिक लोग उसे साहित्यकार नही मानते। हाँ! इतना तो तय है कि टीवी पर वैसे ही जोकरों को कवि कहा-माना जाता है।
इस बात से मुझे तब कोफ्त होती है जब कुछ चू..... किस्म के लोग अपने को कविता का श्रोता बताते हुए टीवी कार्यक्रमों का हवाला देते हैं जहाँ कुछ भांड अपने-अपने करतब दिखाकर आए हुए अर्ध-शिक्षित किरानी टाइप लोगों का मनोरंजन करते है। अशोक चक्रधर उन्हीं भांडों का मुखिया है।
तय है कि इस्तीफे का कारण कुछ और होगा । लेकिन अर्चना वर्मा के द्वारा श्री अशोक जी चक्रधर को विदूषक कहा जाना बड़ा ही वाजिब और मौजूं लगा।
यदि दिल्ली हिन्दी अकादमी को " हास्य-कवि सम्मलेन " में तब्दील करने की दूरगामी योजना यदि सरकार की नही है तो सचमुच इन फूहड़ जोकरों से हिन्दी-अकादमियों को अवश्य बचाया जाना चाहिए।
अंत में, अर्चना वर्मा का मैं विशेष धन्यवाद करता हूँ जो उन्होंने सही व्यक्ति के लिए उचित उपनाम सुझाया। हालाकि विदूषक नाटक में कम महत्त्वपूर्ण होता है ऐसा नहीं है , तो उसको नायकत्व नहीं दिया जा सकता।
गुरुवार, 30 जुलाई 2009
मंगलवार, 14 जुलाई 2009
मैं और मेरी पहचान
मेरी पहचान मेरी संस्कृति से होती है ?
या मेरी संस्कृति की पहचान मुझसे होती है ?
ये दो छोटे-छोटे मौलिक प्रश्न मुझे बेहद परेशान करते हैं। मैं जब स्वयं को पहचानने का यत्न करता हूँ तो मुझे कुछ आध्यात्मिक यानि कुछ अन्दर की यात्रा करनी पड़ती है। दूसरे शब्दों में, मुझे अपनी चेतना का मुआयना करना पड़ता है। यहाँ दिक्कत यह आती है कि उसी चेतना से उसी चेतना को देखना पड़ता है। यानि दृश्य और द्रष्टा एक। यह कैसे होगा! कुछ दिक्कत है।
दूसरा विकल्प है कि मैं कहूँ कि मैं अपनी चेतना से संचालित कार्यों का मुआयना अपनी चेतना द्वारा करता हूँ। स्वयं को पाने का स्थान है - अपने चेतन कार्य। आप स्वयं को जानना चाहते हैं तो अपने चेतन कार्य में स्वयं को खोजें। चेतन कार्य यानि वे कार्य जिनमे आपका संकल्प बिना किसी दबाव के शामिल है। अस्तु!
आप या कोई मुझसे पूछे कि मैं कौन हूँ । तो मुझे क्या उत्तर देना चाहिए ?
मैं बहुधा इस प्रश्न के उत्तर में
कभी अपना नाम बताता हूँ
कभी अपना पेशा बताता हूँ
कभी घर का पता तो कभी उस आदमी का नाम जिसने मुझे भेजा होता है,
इस तरह से मेरा काम चल निकलता है, कुछ ऐसे जैसे सामने वाले व्यक्ति को मेरे बारे में पूरी जानकारी मिल गई हो।
अभी -आजकल बायोडाटा का जमाना है । हम ख़ुद को एक या एक से अधिक पृष्ठ का बायो-डाटा के माध्यम से दूसरे को जनाते है ।
किंतु मुझे वे लोग बड़े क्रेजी और होशियार मालूम होते है जो प्यार करते है और एक दूसरे को आंखों - आंखों में ही जान लेते है।
अंत में , मुझे लगता है कि मेरा परिचय अथवा मेरी पहचान दूसरो की जरूरत और मर्जी पर अधिक निर्भर है । हालाँकि हम इसे बदलने की पूरी कोशिश करते है और थोड़े बहुत सफल भी होते हैं।
या मेरी संस्कृति की पहचान मुझसे होती है ?
ये दो छोटे-छोटे मौलिक प्रश्न मुझे बेहद परेशान करते हैं। मैं जब स्वयं को पहचानने का यत्न करता हूँ तो मुझे कुछ आध्यात्मिक यानि कुछ अन्दर की यात्रा करनी पड़ती है। दूसरे शब्दों में, मुझे अपनी चेतना का मुआयना करना पड़ता है। यहाँ दिक्कत यह आती है कि उसी चेतना से उसी चेतना को देखना पड़ता है। यानि दृश्य और द्रष्टा एक। यह कैसे होगा! कुछ दिक्कत है।
दूसरा विकल्प है कि मैं कहूँ कि मैं अपनी चेतना से संचालित कार्यों का मुआयना अपनी चेतना द्वारा करता हूँ। स्वयं को पाने का स्थान है - अपने चेतन कार्य। आप स्वयं को जानना चाहते हैं तो अपने चेतन कार्य में स्वयं को खोजें। चेतन कार्य यानि वे कार्य जिनमे आपका संकल्प बिना किसी दबाव के शामिल है। अस्तु!
आप या कोई मुझसे पूछे कि मैं कौन हूँ । तो मुझे क्या उत्तर देना चाहिए ?
मैं बहुधा इस प्रश्न के उत्तर में
कभी अपना नाम बताता हूँ
कभी अपना पेशा बताता हूँ
कभी घर का पता तो कभी उस आदमी का नाम जिसने मुझे भेजा होता है,
इस तरह से मेरा काम चल निकलता है, कुछ ऐसे जैसे सामने वाले व्यक्ति को मेरे बारे में पूरी जानकारी मिल गई हो।
अभी -आजकल बायोडाटा का जमाना है । हम ख़ुद को एक या एक से अधिक पृष्ठ का बायो-डाटा के माध्यम से दूसरे को जनाते है ।
किंतु मुझे वे लोग बड़े क्रेजी और होशियार मालूम होते है जो प्यार करते है और एक दूसरे को आंखों - आंखों में ही जान लेते है।
अंत में , मुझे लगता है कि मेरा परिचय अथवा मेरी पहचान दूसरो की जरूरत और मर्जी पर अधिक निर्भर है । हालाँकि हम इसे बदलने की पूरी कोशिश करते है और थोड़े बहुत सफल भी होते हैं।
बुधवार, 1 जुलाई 2009
कालिदास का सौंदर्य-सम्बन्धी ऊहापोह
कालिदास के विश्व-प्रसिद्ध नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम के दूसरे अंक में नायक दुष्यंत अपने मित्र को अपने ह्रदय-सम्राज्ञी शकुन्तला के सौन्दर्य के विषय में कुछ बता रहा है। यह नाटकीय स्थिति है। वास्तविक स्थिति कुछ और है और वह है कि स्वयं कालिदास सौन्दर्य-चिंतन कर रहे हैं। उनके मन में प्रश्न है कि सबसे सुंदर कौन है ? और वह सबसे सुंदर कहे जाने का अधिकारी कैसे है? इन्हीं प्रश्नों से जूझता हुआ यह श्लोक है। इसमें शायद इस उलझन को सुलझाने का प्रयास भी है। श्लोक कुछ इस तरह है :
चित्रे निवेश्य परिकल्पितसत्त्वयोगा ,
रूपोच्चयेन मनसा विधिना कृता नु ।
स्त्री -रत्न- सृष्टिरपरा भाति मे सा
धातुर्विभुत्वं अनुचिन्त्य वपुश्च तस्याः ।। प्रति
इसका भाव कुछ इस तरह है :
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने शकुन्तला की सृष्टि करने से पहले पूरे मनोयोग से रूप का खजाना लेकर पहले तो उसका चित्र बनाया होगा। चित्र में भूल सुधार की गुंजायश होती है। खैर, दुष्यंत के मुख से कालिदास कहते है कि चित्र की सभी असम्पूर्णता को दूर कर फिर उसमे प्राण-प्रतिष्ठा की गई सुंदर सुंदर। स्त्री-रत्न के रूप में वह मुझको अद्वितीय प्रतीत हो रही है। विधाता ने अपनी सारी विभूति का प्रयोग करके उसके सुंदर शरीर की रचना की। नायक दुष्यंत कह रहे हैं कि शकुन्तला चित्र-लिखित की भांति सुंदर है। अर्थात सौन्दर्य का पैमाना चित्र है। चित्र स्वयं विधाता की रचना से भी श्रेष्ठ होता है।कवि कालिदास शकुन्तला को सबसे सुंदर स्त्रीरत्न के रूप में प्रस्तावित कर रहे हैं और शायद उन्हें सबसे सुंदर कह देने से संतोष नहीं हो रहा । स्थिति आसान नहीं है। इसलिए उन्होंने चित्र दृष्टान्त से बात कर रहे हैं।खैर , ये तो कालिदास का ऊहापोह रहा , आइए थोड़ा सा हम विचार करें।मैं आपसबसे एक सवाल करता हूँ।चित्र ( अनुकरण ) बेहतर होता है अथवा चित्र की वस्तु यानि जिसका चित्र बनाया गया ?सवाल बड़ा गंभीर है ।यदि आप लोगों को यह मसला विचार करने लायक लगे तो विमर्श जारी रहेगा (जिसकी उम्मीद बहुत कम है, लोग ब्लॉग पर सस्ती और हलकी बातें पसंद करते हैं , ऐसी पकाऊ और गहरी बातें नहीं, इसलिए ) इसकी सम्भावना कम है। तथापि मेरा निवेदन है कि आप विचार करें और मुझे भी अवगत कराएं।
चित्रे निवेश्य परिकल्पितसत्त्वयोगा ,
रूपोच्चयेन मनसा विधिना कृता नु ।
स्त्री -रत्न- सृष्टिरपरा भाति मे सा
धातुर्विभुत्वं अनुचिन्त्य वपुश्च तस्याः ।। प्रति
इसका भाव कुछ इस तरह है :
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने शकुन्तला की सृष्टि करने से पहले पूरे मनोयोग से रूप का खजाना लेकर पहले तो उसका चित्र बनाया होगा। चित्र में भूल सुधार की गुंजायश होती है। खैर, दुष्यंत के मुख से कालिदास कहते है कि चित्र की सभी असम्पूर्णता को दूर कर फिर उसमे प्राण-प्रतिष्ठा की गई सुंदर सुंदर। स्त्री-रत्न के रूप में वह मुझको अद्वितीय प्रतीत हो रही है। विधाता ने अपनी सारी विभूति का प्रयोग करके उसके सुंदर शरीर की रचना की। नायक दुष्यंत कह रहे हैं कि शकुन्तला चित्र-लिखित की भांति सुंदर है। अर्थात सौन्दर्य का पैमाना चित्र है। चित्र स्वयं विधाता की रचना से भी श्रेष्ठ होता है।कवि कालिदास शकुन्तला को सबसे सुंदर स्त्रीरत्न के रूप में प्रस्तावित कर रहे हैं और शायद उन्हें सबसे सुंदर कह देने से संतोष नहीं हो रहा । स्थिति आसान नहीं है। इसलिए उन्होंने चित्र दृष्टान्त से बात कर रहे हैं।खैर , ये तो कालिदास का ऊहापोह रहा , आइए थोड़ा सा हम विचार करें।मैं आपसबसे एक सवाल करता हूँ।चित्र ( अनुकरण ) बेहतर होता है अथवा चित्र की वस्तु यानि जिसका चित्र बनाया गया ?सवाल बड़ा गंभीर है ।यदि आप लोगों को यह मसला विचार करने लायक लगे तो विमर्श जारी रहेगा (जिसकी उम्मीद बहुत कम है, लोग ब्लॉग पर सस्ती और हलकी बातें पसंद करते हैं , ऐसी पकाऊ और गहरी बातें नहीं, इसलिए ) इसकी सम्भावना कम है। तथापि मेरा निवेदन है कि आप विचार करें और मुझे भी अवगत कराएं।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)