शनिवार, 2 मई 2015

नितीश मिश्रा की कविताएँ



जवानी में स्नेह अगर / चाँद को भी नहीं मिलता / तब उसमें भी शायद इतनी / चाँदनी नहीं होती
नितीश मिश्रा अपनी कविताएँ कहते है. कहते हुए किसी काव्य-प्रचलन के लिए संघर्ष नहीं करते है. घटनाओं को कहते हुए वे कविता कह रहे होते हैं. प्रकृति से इनका स्वभावित जुड़ाव आपका मन बरबस अपनी और खींचता है. देखिए:  धूप आहिस्ते-आहिस्ते / मेरे अंजुमन में बैठती हैं / कुछ मेरे दोस्त की तरह / गौरैया आ जाती हैं / कुछ तिनके लिये / अपने आशियाने में.
इस सादगी और तटस्थता से कविता वही कर सकता है जो काव्य-धूर्तता नहीं जानता और नहीं जानना चाहता है. यह एक बड़ी उपब्धि है. मैं जहाँ तक देख पा रहा हूँ नितीश मिश्रा हमारे समय के उन कुछ कवियों में हैं जो कविता को बेहद आत्मीयता से रचते हैं. ये अपनी कविताओं में हर जगह मौज़ूद है. मैं इन्हें और इनकी कविताओं को अच्छे भविष्य की शुभकामनाएं देता हूँ - रवीन्द्र के दास   



नितीश मिश्रा इंदौर में रहते हैं. पेशे से पत्रकार हैं. मार्च 1, 1982 को इनका जन्म हुआ और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम् ए किया.
संपर्क: 39 जावरा कंपाउंड एमवाय अस्पताल के सामने. इंदौर, मध्यप्रदेश
मोबाईल नं: 088891510291     


मिलते बिछड़ते हुए

एक शाम
हँसती हुई
थामती हैं
बांहों से
सूखे .....
जर्जर .....
मौन से गुन्थित
सूने से पहाड़ को,
और रंगती हैं
अपनी फकत महक से
पहाड़ के सीने को।

पहाड़ थामना चाहता हैं
कुछ देर तक
शाम के बोलते/महकते हुए स्पर्श को
रात छुपती रहती हैं
मेरी नज़रों की रोशनाई में
इतने में
रात बिखर जाती हैं
जैसे बिखर जाती हैं मेरी कोई कविता।
फिर भी कुछ न कुछ चिपकी रहती हैं
कुछ मेरे रोयें की तरह
कुछ हड्डियों की तरह जुड़ी रहती हैं
मुझसे मेरी जिंदगी


धूप आहिस्ते --आहिस्ते
मेरे अंजुमन में बैठती हैं
कुछ मेरे दोस्त की तरह
गौरैया आ जाती हैं,
कुछ तिनके लिये
अपने आशियाने में
धूप के साथ/हवा के साथ
मशगूल हो जाती हैं बताने में
अपने जीये हुए जिंदगानी के बारे में।

मैं नहीं पकड़ पाता नज़रों की नजीर से
उसके एक -एक बूंद जैसे मीठे दर्द को
इतने में मेरी तकदीर विखर जाती हैं
रेतों की झीनी सी खुशबुओं में,
मैं तारों की तरह खुद को
आसमान में कुछ देर के लिए टांग देता हूँ
जिससे मैं देख सकूँ
शकून से अपने सोते हुए घर को
और सुन सकूँ अपनी प्रेयसी की सांसों की धार को,
एक बार कम से कम उसके माथें पर
अपने शब्दों को लिख सकूँ

उसकी यादें ही

अब मेरे तन पर लिबास की तरह झिलमिलाती हैं
हृदय जुगनूओं की तरह टिमटिमाता हैं
टिम ....टिम .....
मैं रोज खोदता हूँ अपनी कब्र,
पर नहीं दफनापता खुद को
गोकि वह भी जुड़ी हुई हैं
और कभी --कभी मेरा प्रतिरूप भी
सपने से उतर कर
जीवन के धरातल पर
आकर खड़ा हो जाता हैं
शायद!वह सुलझा दे
मेरे अनकहे -अनदेखे सच को,

सो टाल देता हूँ कुछ क्षण के लिए
अपनी मृत्यु की खबर को
जो हवा की तरह हिलती --डुलती हैं
मेरे चेहरे पर।

मैं कभी -कभी उसके
बहुत पास जाना चाहता हूँ
जैसे जाती हैं नावें लहरों को छुने
हरेक सुबह मैं
उसके सामने सजदा करता हूँ
उसका दिल मुझे पानी की तरह चमकता हुआ
एक आइना लगता हैं .................
मैं अपना चेहरा देखकर खुश हो जाता हूँ
डूबते हुए सूरज की तरह

उसके चेहरे पर काला तिल चमकता हैं
कुछ तारों की तरह ........
जैसे यही लगता हैं कि
मैंने वर्षों से चूम के बनाया हो।।

वह पहाड़ी नदी की तरह
हिलती --डुलती हुई
जतन से सुबह -शाम
संभालती हैं
शराब  की तरह महकती हुई
अपने तन की खुशबुओं को .....

मैं उससे जब भी मिला
एक गज़ल की तरह
मुझे घंटों गुनगुनाती हैं
और शर्म से फूलों की तरह
खड़ी हो जाती हैं
मेरी सांसों की आयतों में
मैं उसके मूक समपर्ण को
अपने जीवन की एक ताबीज़ समझकर
बांध लेता हूँ कलाईयों में .............
फिर उसकी पीठ पर लिखता हूँ
अँगुलियों से अपने डर को।

वह मेरे हिम्मत की दाज देती हैं
क्योकि उसके शहर में ......
मैं उसे ...उसकी तरह चाहने लगता हूँ
वह कुछ देर तक बैठी रहती हैं
मेरी शाख पर
फिर मौसम की तरह
मेरी नज़रों के सामने ही
बादलों के झुरमुटों में गुम हो जाती हैं
इतने में ही वह कोई खुदा सरीखे हो जाती हैं
सो, मैं बड़े प्यार से पुकारता हूँ
क्योकि वह मेरे जीवन की पतवार हो गयी हैं



चलो कुछ बन जाते हैं

चलो तुम कुदाल बन जाओ
और मैं मिट्टी
तुम खोदो मुझे परत दर परत
और छिपा के रख दो अपना संघर्ष .......
एक समय के बाद
तुम्हारा संघर्ष
अविराम विरोध की आवाज बन जायेगा आकाश के नीचे !
चलो मैं फूल बन जाता हूँ
और तुम रंग .......
ऐसे में हम एक हो जायेंगे
और कभी साख से टूटे तो एक दूसरे का साथ न छूटे
चलो तुम नदी बन जाओ
और मैं नाँव
और चलता रहे सूर्यास्त के बाद भी हमारा कारोबार !
चलो तुम अँधेरा बन जाओं
और मैं उजाला
जिससे मैं उत्तर सकूँ तुम्हारी अस्थियों में .......
चलो तुम सृष्टि बन जाओं
और मैं पहरेदार .......
चलो तुम पर्स बन जाओं  जेब
और बना ले अन्धेरें में अपना -अपना आयतन
या तुम मैदान बन जाओं
 धावक  .......
और मैं अंत तक दौड़ता रहूँ तुम्हारी शिराओं में
या तुम धुप बन जाओं और मैं हवा
जिससे सदी के अंत तक बना रहे हमारा स्पर्श .......
चाहे अयोध्या काबा रहे या न रहे
चलो मैं पतीली बन जाता हूँ  आंच .......




बुनकरों ने घोषित किया हैं


बुनकरों को पहले ही मालूम हो गया था
आने वाली सदी में
नहीं दिखाई देंगे
कहीं फूल....
कहीं पत्तियां....
कहीं झरने
कहीं हिरन तो कही जंगल ....
बुनकरों को अंदाजा हो गया था
मनुष्य ही करेगा अपनी सभ्यता की हत्या !
इसलिए उन्होंने कपास के धागे में रफू किया था
कोई फूल , कोई झरना कोई पेड़
बुनकरों ने बुना था धागे में हमारे लिए एक विशेषण
हत्यारे का ! हत्यारे का !
आज हमें एहसास न हो 

लेकिन बुनकरों ने पहले ही घोषित का दिया था
हम इस सभ्यता के एक हत्यारे हैं !
आज मैं जब भी अपनी कमीज पर

कोई रफू किया हुआ फूल देखता हूँ
मुझे फूल में बुनकरों की आँख दिखाई देती हैं
जो कहती हैं तुम कमीज नहीं
प्रकृति की हत्या करके उसकी आत्मा पहने हो 
          

दरवाजा


हमें अपने घर का दरवाजा
तो खुला रखना चाहिए
कम से कम
एक नन्हीं चिड़ियाँ आकर
कुछ देर तक
शब्दों में ध्वनि तो भर सके
और दूर के गाँव की
दूब सी पतली सी
किसी प्रेमिका की कहानी को
आँगन में सजा तो सकें।
हमें अपने घर का दरवाजा तो
खुला रखना चाहिए
जिससे एक बच्चा आकर
अपनी माँ का पता तो पूछ सकें
हमें अपने घर का दरवाजा तो
खुला रखना चाहिए
जिससे बेरोक -आ सकें
कुछ फूल/पत्तियां
कुछ धूल/आंधियाँ
कुछ मिट्टियाँ आकर
जोड़ सकें
भाईचारे की दीवार


मैं आज सुन्दर इसलिए हूँ

अब मैं सपना बहुत खूबसूरत देखता हूँ ....
जंगलों में भी एक नया रास्ता बना लेता हूँ
अजनबी शहरों में भी
अपना कोई न कोई परिचय निकाल  लेता हूँ....
हामिद और मकालू में भी
अपना चेहरा ढूंड लेता हूँ
मंदिर / मस्जिद से अलग होकर
अपना एक मकान  बना लेता हूँ
क्योकि मेरी माँ बुढडी हो गई हैं ।
मैं अब गहरे पानी में तैर लेता हूँ
क्योकि माँ के चेहरे पर अब पसीने नहीं आते
अब मैं हँसना भी सीख लिया हूँ
अब मुझे कोई बीमारी भी नहीं होती
क्योंकि माँ के शरीर में
जगह -जगह जख्मों ने सुरक्षित स्थान बना लिया हैं
मेरी माँ उम्र के अंतिम सीढ़ियों पर खड़ी हैं
और मैं सुन्दर हो गया हूँ ……

एक दिन शहर के बीचो बीच
मुझे एक डॉक्टर ने रोक लिया
और धिक्कारते हुए मुझसे कहता हैं
तुम होशियार और सुन्दर इसलिए बने हो
क्योंकि कहीं बहुत दूर खटिये पर तुम्हारी माँ खांस रही हैं


देवदारु की कहानी 


संयोगवश या 

संघर्ष करते हुए 

देवदारू का पेड़ 

पहाड़ से या अपनी 

बिरादरी से अलग होकर 

मैदान में ......

एक अछूत की तरह 

खड़ा भर था,



बिरादरी से या जाति से 

अलग होना 

मनुष्यों के लिए 

किसी कोढ़ से कम नहीं था।

जब भी कोई कारवां गुजरता 

देवदारु के लिए 

किसी गाली से कम नहीं था 

गाँव में यह खबर 

कुत्ते की आवाज की तरह फ़ैल गयी 

एक अपशगुन पेड़ 

गाँव में जवान हो रहा हैं ..........



जवानी में स्नेह अगर 

चाँद को भी नहीं मिलता 

तब उसमे भी शायद इतनी 

चाँदनी नहीं होती 

लेकिन देवदारु का संघर्ष 

किसी भी हीरे से कम नहीं था,

देवदारु:समूह से उपेक्षित होकर 

इस कदर मौन हो गया कि 

अपने सौन्दर्य को ही भूल गया,

प्रत्येक साधना की,

हर संघर्ष की 

अपनी एक सीमा होती हैं 

क्योकि धरती भी कहीं न कहीं 

सीमित ही होती हैं



गाँव में ही एक लड़की थी 

जो वर्षों से कुछ खोजते हुए 

अपने आप से उब चुकी थी 

या थक चुकी थी 

और इस कदर थक चुकी थी कि 

लड़की होने के अपराध को भी भूल चुकी थी,



एक रात जब सब जाग रहे थे 

और सभी सो भी रहे थे 

लड़की को समय मिल गया कि 

वह देवदारु को देख सकें 

ज्योहीं उसकी नजर की किरण 

पेड़ पर गिरती हैं 

देवदारु जाग जाता हैं 

और बहने लगता हैं 

लड़की के अन्दर स्वरों के 

कई सारे दीये जलने लगते हैं,



लड़की को लगता हैं कि 

यही उसकी खोयी हुई 

अभिव्यक्ति हैं 

या कोई पायी हुई पानी की धार हैं 

देवदारु भी भोर तक 

यही सोच रहा था 

क्या जब आँखों में कोई चेहरा 

अपना होता हैं?

तभी जीवन की मुक्ति 

यात्रा शुरू होती हैं .............



सुबह की पहली किरण 

ज्योही धरती के जिस्म से टकराती हैं,

मैदान की उर्वर मिटटी में 

प्रेम का बीज आँख खोलता हैं,

जब प्रेम के लिए कोई जागता हैं 

तब सबसे पहले वह 

अपने हिस्से का समय चुराता हैं 

दोनों जब समय दान करके रिक्त हो जाते हैं 



देवदारु:लड़की से एक दिन 

महादान माँगता हैं 

और लड़की शीत सी 

उसकी जड़ों में ठहर जाती हैं 

लड़की सुबह -सुबह एक दीया जलाकर 

पेड़ के नीचे बैठ जाती हैं 

देवदारु लड़की को अपनी 

छाया से रंगकर 

उसके स्वर में एक राग भरता हैं 

और ऐसे ही वे मुक्ति का 

इंद्रधनुष खीचतें हैं ................



एक दिन लड़की देवदारु की जड़ों में 

समाधिस्थ होकर कहने लगी 

मैं रोज - रोज नहीं आऊँगी मिलने 

अब"तुम मुझे एक वृत्त में रखों"

ज्योही जीवन में प्रश्न उपस्थित होता हैं 

अस्तित्व को हमेशा अर्थ मिलता हैं 

क्योकि प्रश्न सजीव होते हैं ............



देवदारु:एक बार आकाश को देखता हैं 

और एक बार हिमशिखर को 

लड़की को जड़ों से उठाकर 

प्राणों के समीप खींचता हैं 

और शम्भू से कहता हैं कि 

केवल तुम ही नहीं अर्धनारीश्वर नहीं हों 

इतने में गाँव में 

धूप की तरह 
यह ख़बर फैल गई कि

देवदारु का पेड़ गिर गया 

और लड़की दब कर मर गयी 

गाँव पूरा खुश हुआ 

और कहने लगे लोग 

चलो! बला तो टली 



पर लड़की और देवदारु बहुत खुश हैं 

क्योकि अपनी प्यार की आत्मकथा को 

बस वे ही जानते हैं




1 टिप्पणी:

सुन्दर सृजक ने कहा…

कविता पढ़ी,बेहतरीन है,आप के श्रीमुख से इस कवि की कविताओं के बारे में सुना तो इस कवि की और कविताएं पढ़ने की उत्सुकता बढ़ गई | इस तरह अचर्चित कवियों को सामने लाने का काम बहुत सराहनीय है| उम्मीद करता हूँ कि आपकी पत्रिका ' कविता प्रसंग' हिन्दी कविता और कवियों के लिए एक सार्थक उपक्रम होगी |