कविताओं में कभी कभी कविता दिख जाती है और उस क्षण हम आह्लादित हो
जाते है. कविता दरअसल एक अनुपस्थित संवाद है. आत्मनिष्ठता की अतिशयता में मनुष्य
बह निकलता है. बड़ी कविताएँ आत्मालाप की शैली में ही रची जाती हैं.
राकेश रोहित हमारे समय के कवि हैं किन्तु ये अपनी कविताओं में विराट
प्रसंगों से मुठभेड़ करते मिलते हैं. गहन मानवीयता में विचरते हुए मैं-तुम शैली के
निजी संवाद में कविता करने वाले कवि राकेश रोहित की कविताएँ मिथकीय होने लगती हैं.
वे कविताओं में भावक अपने साथ गहरे उतारते है, एकांत और आत्म-अभिन्न. अच्छा लगता
है :
मैं तुमसे पूछता हूँ
मैं तुमसे मिलने आता हूँ या
हमारे दुख ही आपस में मिलने आते हैं!”
यह उनकी
कविता की विशिष्टता है तथापि यह अनैतिहासिकता की डगर भी है. समय
से संवाद
कविता को ऐतिहासिक बनाता
है. इनकी कविता का शीर्षक यद्यपि “समय से संवाद” है और शायद इसमें समय से
संवाद है भी किन्तु वह ऐतिहासिक समय नहीं, प्रत्युत समय की प्रतिच्छवि है. इनके पास जो भाषा कौशल है, शैली है निस्संदेह समर्थ और सराहनीय है.
मेरी ओर से कवि मित्र राकेश रोहित को
हार्दिक बधाई
और शुभकामनाएँ.
कवि का परिचय:
जन्म
: 19 जून 1971 (जमालपुर).
संपूर्ण शिक्षा
कटिहार (बिहार) में. शिक्षा : स्नातकोत्तर (भौतिकी).
कहानी, कविता एवं आलोचना में रूचि.
पहली कहानी "शहर में कैबरे" 'हंस' पत्रिका
में प्रकाशित.
"हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं"
आलोचनात्मक लेख शिनाख्त पुस्तिका एक के रूप
में प्रकाशित और चर्चित. राष्ट्रीय
स्तर की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग में
विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन.
सक्रियता
: हंस, कथादेश, समावर्तन,
समकालीन भारतीय साहित्य,
आजकल,
नवनीत,
गूँज,
जतन,
समकालीन
परिभाषा, दिनमान टाइम्स, संडे आब्जर्वर, सारिका,
संदर्श,
संवदिया,
मुहिम,
कला, सेतु आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी,
लघुकथा,
आलोचनात्मक
आलेख, पुस्तक समीक्षा, साहित्यिक/सांस्कृतिक
रपट आदि का प्रकाशन. अनुनाद, समालोचन, पहली बार, असुविधा, स्पर्श, उदाहरण आदि ब्लॉग पर कविताएँ
प्रकाशित.
संप्रति
: सरकारी
सेवा.
ईमेल - rkshrohit@gmail.com
आइए पढ़ें
राकेश रोहित की कविताएँ
पृथ्वी, पत्थर, दुख और गीत
(पांच कविताएँ)
(1)
अपने अंदर कितना दुख समेटे
यह धरती घूमती रहती है
उसी पर खिलते हैं फूल
उसी पर उगती है घास
उसी पर लिखी जाती है कविता
धरती मगन है उत्सव में आज!
कितनी
आग समेटे अपने अंदर
धरती घूमती रहती है
जो जान पाते हैं धरती की आग
वे पत्थर बन जाते हैं
फिर उस पर नहीं उगती है घास
फिर उस पर नहीं खिलते हैं फूल
फिर वे किसी उत्सव में शामिल नहीं होते!
धरती घूमती रहती है
जो जान पाते हैं धरती की आग
वे पत्थर बन जाते हैं
फिर उस पर नहीं उगती है घास
फिर उस पर नहीं खिलते हैं फूल
फिर वे किसी उत्सव में शामिल नहीं होते!
कितना
दुख समेटे मैं लिखता रहता हूँ कविता
धरती को जानने की प्रक्रिया यहीं से शुरू होती है!
धरती को जानने की प्रक्रिया यहीं से शुरू होती है!
(2)
पत्थरों
के मन में
किसी पुरातन आग की स्मृतियाँ हैं
पत्थर के सीने से लगकर
पृथ्वी के आंसू से फूटते हैं झरने
पत्थरों को जानकर जाना जा सकता है
पृथ्वी का दुख!
किसी पुरातन आग की स्मृतियाँ हैं
पत्थर के सीने से लगकर
पृथ्वी के आंसू से फूटते हैं झरने
पत्थरों को जानकर जाना जा सकता है
पृथ्वी का दुख!
पत्थरों
को हमने शायद देवता इसलिए कहा
कि उन्होंने जान लिया दुख और अविचल रहे!
कि उन्होंने जान लिया दुख और अविचल रहे!
(3)
पत्थरों
के अंदर छुपी होती है ध्वनि
जैसे पृथ्वी की कराह सिर्फ पत्थर ने सुनी हो!
जैसे पृथ्वी की कराह सिर्फ पत्थर ने सुनी हो!
एक
दिन लाल दहकती पृथ्वी को
शायद देखा पत्थरों ने
और छुपा ले गये अपने अंदर वे आग!
शायद देखा पत्थरों ने
और छुपा ले गये अपने अंदर वे आग!
तब
से पत्थरों को किसी ने चलते नहीं देखा
पहाडों संग जड़े मौन वे
निहारते रहते हैं असहाय पृथ्वी का दुख
और जब टूटती है उनकी खामोशी
साफ दिखती है उनमें छुपी आग!
पहाडों संग जड़े मौन वे
निहारते रहते हैं असहाय पृथ्वी का दुख
और जब टूटती है उनकी खामोशी
साफ दिखती है उनमें छुपी आग!
(4)
पत्थरों
को बहुत कुछ कहना होता है
इसलिए वे नदी से बतियाते रहते हैं
यह जो कलकल ध्वनि सुन
मुग्ध होते हैं कविगण
वह पत्थरों की नदी से बातचीत है!
इसलिए वे नदी से बतियाते रहते हैं
यह जो कलकल ध्वनि सुन
मुग्ध होते हैं कविगण
वह पत्थरों की नदी से बातचीत है!
पहली
बार पत्थरों ने देखा मनुष्य का लिखना
पहली बार पत्थरों पर रचे गए चित्र
एक दिन इसी पत्थर पर बैठ मनुष्य ने
देखा डूबती हुई धरती को
एक दिन इसी पत्थर में छुपे रह गए
मनुष्यों के कई अव्यक्त दुख!
पहली बार पत्थरों पर रचे गए चित्र
एक दिन इसी पत्थर पर बैठ मनुष्य ने
देखा डूबती हुई धरती को
एक दिन इसी पत्थर में छुपे रह गए
मनुष्यों के कई अव्यक्त दुख!
इन
अनगढ पत्थर को समेटे उदास धरती
एक दिन कवि के सपने में आती है
एक दिन हटाये नहीं हटता सीने पर रखा पत्थर
एक दिन कठिन हो जाता है लिखना अपना ही दुख!
एक दिन कवि के सपने में आती है
एक दिन हटाये नहीं हटता सीने पर रखा पत्थर
एक दिन कठिन हो जाता है लिखना अपना ही दुख!
(5)
वह
दहकती धरती से टूटा हुआ
कोई आग का टुकड़ा था
जो अपने दुख और अकेलेपन में पत्थर हो गया
यद्यपि चाहनेवालों ने उस पर कई गीत लिखे
पर हरा नहीं हुआ चांद का मन!
कोई आग का टुकड़ा था
जो अपने दुख और अकेलेपन में पत्थर हो गया
यद्यपि चाहनेवालों ने उस पर कई गीत लिखे
पर हरा नहीं हुआ चांद का मन!
हर
रात मैंने उसे अपने साथ खामोश चलते देखा है
दुलारता रहा एकांत रातों में उसका शीतल स्पर्श
सबसे प्रिय संबोधनों से मैं उसे पुकारता रहा
पर किसी ने पसीजते नहीं देखा उस पत्थर चांद का दिल!
दुलारता रहा एकांत रातों में उसका शीतल स्पर्श
सबसे प्रिय संबोधनों से मैं उसे पुकारता रहा
पर किसी ने पसीजते नहीं देखा उस पत्थर चांद का दिल!
एक
दिन मनुष्य ने चांद पर जाकर देखा
धरती भी चांद की तरह ही पत्थर है
फर्क बस इतना है
कि इस पर दुख है
और वह हरा है!
धरती भी चांद की तरह ही पत्थर है
फर्क बस इतना है
कि इस पर दुख है
और वह हरा है!
घास
हरी नहीं है
घास
हरी नहीं है
उसने कहा।
अगली बार उसने जोर दे कर कहा
घास हरी नहीं है
वस्तुतः यह पीली हो चुकी है।
उसने कहा।
अगली बार उसने जोर दे कर कहा
घास हरी नहीं है
वस्तुतः यह पीली हो चुकी है।
यह
सिर्फ पर्यावरण का मसला नहीं है
यह हमारे सौन्दर्य बोध से भी जुड़ा है
कि हरी होनी चाहिए घास,
उसने फिर कहा
फिर- फिर कहा!
यह हमारे सौन्दर्य बोध से भी जुड़ा है
कि हरी होनी चाहिए घास,
उसने फिर कहा
फिर- फिर कहा!
मैंने
एक दिन उसे समझाना चाहा
हाँ पीली पड़ गयी है घास
और पीले पड़ गये हैं फूल भी
इतनी गर्म है हवा
कि कुम्हला गये हैं पत्ते
यह बहुत कठिन दिन है
उनके लिए जो छांव में नहीं हैं।
हाँ पीली पड़ गयी है घास
और पीले पड़ गये हैं फूल भी
इतनी गर्म है हवा
कि कुम्हला गये हैं पत्ते
यह बहुत कठिन दिन है
उनके लिए जो छांव में नहीं हैं।
हाँ, उसने संयत स्वर में कहा इस बार-
और यह भी देखिए कि घास भी हरी नहीं है!
और यह भी देखिए कि घास भी हरी नहीं है!
हे
भाई!
मैंने उसका कंधा पकड़ झकझोरा
यह घास हर बार
आपकी दाढ़ी से तिनके की तरह क्यों अटक जाता है?
बस घास है कि आप हैं
हाँ हरी नहीं है घास
पर यह भी तो देखिए कि खतरे में है हरापन
कि तितलियों के घर उजड़ रहे हैं
कि ओस के अटकने की कोई ओट नहीं बची!
आप हर बार एक ही बात क्यों कहते हैं
कि घास हरी नहीं है?
मैंने उसका कंधा पकड़ झकझोरा
यह घास हर बार
आपकी दाढ़ी से तिनके की तरह क्यों अटक जाता है?
बस घास है कि आप हैं
हाँ हरी नहीं है घास
पर यह भी तो देखिए कि खतरे में है हरापन
कि तितलियों के घर उजड़ रहे हैं
कि ओस के अटकने की कोई ओट नहीं बची!
आप हर बार एक ही बात क्यों कहते हैं
कि घास हरी नहीं है?
इस
बार मेरी चौंकने की बारी थी
वह फुसफुसा रहा था
जैसे भय से भरा था,
मैं कहता हूँ कि घास हरी नहीं है
क्योंकि मैं कहना चाहता हूँ
कि पानी नहीं रहा!
पर आपको क्या लगता है
मैं जिस स्वर से घास के बारे में कह सकता हूँ
क्या उसी स्वर में सवाल कर सकता हूँ
कि पानी नहीं रहा?
कि क्यों पानी नहीं रहा?
वह फुसफुसा रहा था
जैसे भय से भरा था,
मैं कहता हूँ कि घास हरी नहीं है
क्योंकि मैं कहना चाहता हूँ
कि पानी नहीं रहा!
पर आपको क्या लगता है
मैं जिस स्वर से घास के बारे में कह सकता हूँ
क्या उसी स्वर में सवाल कर सकता हूँ
कि पानी नहीं रहा?
कि क्यों पानी नहीं रहा?
आपको
क्या लगता है?
क्यों यह घास हरी नहीं है?"
क्यों यह घास हरी नहीं है?"
सुनो तुम
तय है कि कविताएँ
लिखी जायेंगी पर नहीं लिखा जा सकेगा मन मेरा!
मन मेरा जो सहता है
रह जायेगा अजाना
उस मन से जो कहता है।
कहीं चुप मुंह चुराये
मेरे अंदर ही मेरा दुख
एक दिन रो पड़ेगा
जब बहुत उदास होगी हवा
और पास नहीं होगी कविताएँ!
सुनो जब मैं देखता हूँ तुम्हारी आँखें
ऐसा क्यों लगता है
कि मैं झांक रहा हूँ
अपनी ही आत्मा की अतल गहराइयों में?
ऐसे ही एक दिन
जब मैं छू रहा था तुम्हारी हथेलियाँ
मुझे लगा मैं छू रहा हूँ
अपना ही अनछुआ दुख
जो स्पर्श से पिघल रहा था धीरे-धीरे
और हमारे सामने ही
हमारी हथेलियों में छलछला रहा था।
सुनो, तुम्हारी मुस्कराहटों के पार
मैं तुमसे पूछता हूँ
मैं तुमसे मिलने आता हूँ या
हमारे दुख ही आपस में मिलने आते हैं!
समय के बारे में एक कविता
किसी समय को जानने के
कई तरीके हैंउनमें से एक यह है कि आप जानें
कि कौन सो रहा है
और जाग कौन रहा है?
माँ जानती है जब सो रहा है बच्चा
तो चुपके से चूल्हे पर अदहन चढ़ा देने का
और बासी रोटी
नमक प्याज के साथ गिल लेने का समय है।
बाहर आवारा घूम रहा लड़का
जो फिर- फिर हार जाता है कर नौकरी का जुगाड़
जानता कब पिता के सोने का वक्त है
और कब माँ के जागने का
कि कब उसे प्रवेश करना है पिछले दरवाजे से
अपने ही घर में अनधिकृत
और चुपके से पूछना है
माँ कुछ खाने को है?
इस समय वह कभी माँ का चेहरा नहीं देखता
इस समय माँ कभी उसका चेहरा नहीं देखती
और चाह कर भी बता नहीं पाती
कि जाग रहे हैं पिता अब भी
कि यह पानी का गिलास उन्हीं के लिए है।
पिता को भी पता होता है
कि अब सो गया होगा उनका बेटा
खाकर माँ के हिस्से का भी खाना
जब उठ कर पीते हैं गिलास भर पानी
कहना नहीं भूलते
सो गई क्या?
सोचते हैं कल फिर साहब को कह कर देखें
कुछ तो जुगाड़ लगा दें इस नालायक का!
वैसे पिता को पता है
लाख जतन करे
साहब को ठीक खबर हो जाती है उनके आने की
चाहे जो भी समय हो
दरबान यही कहता है साहब सो रहे हैं
बहुत दिनों से उनकी इच्छा हो रही है
कि एक दिन दरबान को गले लगाकर बोलें
क्या भाई इस ठेठ दुपहरिया
जब जाग रहे हैं चिरई चुनमुन
और खदक रहा चूल्हे पर अदहन
जब सूरज माथे पर चमक रहा है
तेरे साहब सो रहे हैं?
ऐसे समय जब भरी- दोपहरी सो जाते हैं लोग
लाखों लोग जाग कर इंतजार करते हैं
कि एक दिन सोये हुए लोग
उनके पक्ष में उनके भाग्य का फैसला लिखेंगे
और तब तक वे चिड़ियो को अपने सपनों की कथा कहें!
बच्चे को ठीक पता होता है
कि कब तक सोती रहेगी राजकुमारी
और कब होगा कहानी में राक्षसों का प्रवेश
हर बार नये उत्साह से वे
पुराने राजकुमारों के आगमन पर उल्लसित होते हैं
और हर बार नानी जान जाती है
कि कब बच्चे को नींद आ गयी है!
और एक दिन बच्चे की आँखों का सपना
नानी की आँख में आ जाता है
तब नानी गाने लगती है कोई अनसुना गीत
और कच्ची नींद से जाग कर माँ देखती रहती है
आँख भर नानी की आँख।
इस समय जानना कठिन होता है
कि माँ जाग रही है
या माँ के भीतर कोई छूट गया समय जाग रहा है?
तो दोस्तों,
यह समय जो सोने और जागने वालों से जाना जाता है
इसमें कुछ अद्भुत बातें होती हैं
जैसे सोने वालों के पास नींद नहीं होती
और जागने वालों के पास सपना होता है!
किसी समय को जानने के कई तरीके हैं
उनमें से एक यह है कि आप जानें
कि किसके पास सपने हैं
और सपने चुरा कौन रहा है?
असंभव समय में कविता
हर
दिन वर्णमाला का एक अक्षर मैं भूल जाता हूँ
हर दिन टूट जाती है अंतर की एक लय
हर दिन सूख जाता है एक हरा पत्ता
हर दिन मैं तुमको खो देता हूँ जरा- जरा!
हर दिन टूट जाती है अंतर की एक लय
हर दिन सूख जाता है एक हरा पत्ता
हर दिन मैं तुमको खो देता हूँ जरा- जरा!
ऐसे
असंभव समय में लिखता हूँ मैं कविता
जैसे इस सृष्टि में मैं जीवन को धारण करता हूँ
जैसे वीरान आकाशगंगा से एक गूँज उठती है
और गुनगुनाती है एक गीत अकेली धरा!!
जैसे इस सृष्टि में मैं जीवन को धारण करता हूँ
जैसे वीरान आकाशगंगा से एक गूँज उठती है
और गुनगुनाती है एक गीत अकेली धरा!!
बहुत थोड़े शब्द हैं
बहुत
थोड़े शब्द हैं,
कहता
रहा कवि केवल
और
सोचिए तो इससे निराश नहीं थे बच्चे!
खो
रहे हैं अर्थ, शब्द सारे
कि
प्यार का मतलब बीमार लड़कियां हैं
और
घर, दो-चार खिड़कियां
धूप, रोशनी का निशान है
फूल, क्षण का रुमान!
और
जो शब्दों को लेकर हमारे सामने खड़ा है
जिसकी
मूंछों के नीचे मुस्कराहट है
और
आँखों में शरारत
समय, उसके लिए केवल हाथ में बंधी घड़ी है।
घिस
डाले कुछ शब्द उन्होंने,
गढता
रहा कवि केवल!
ऐसे
में एक कवि है कितना लाचार
कि
लिखे दुःख के लिए घृणा, और उम्मीद को चमत्कार!
क्या
हो अगर घिसटती रहे कविता कुछ तुकों तक
कोई
नहीं सहेजता शब्द।
बच्चों
के हाथ में पतंगें हैं, तो वे चुप हैं
लड़कियों
के घरौंदे हैं तो उनमें खामोश पुतलियां हैं
माँ के पास कुछ गीत हैं तो नहीं है उनके
सुयोग
बहनों
के कुछ पत्र, तो नहीं हैं उनके पते
कुछ
आशीष तो नहीं है साहस
कहां
हैं मेरे असील शब्द?
क्या
होगा कविता का ?
बना
दो इस पन्ने की नाव
तो
कहीं नहीं जाएगी
उड़ा
दो बना कनकौवे
तो रास्ता भूल जायेगी।
केवल
हमीं हैं जो कवि हैं
किए
बैठे हैं भरोसा इन पर
एक
भोली आस्था एक खत्म होते तमाशे पर!
लिखते
हैं खुद को पत्र
खुद
को ही करते हैं याद
जैसे
यह खुद को ही प्यार करना है.
एक
मनोरोगी की तरह टिका देते हैं
धरती, शब्दों की रीढ़ पर
जबकि
टिकाओ तो टिकती नहीं है
उंगली
भी अपनी।
बहुत
सारा उन्माद है
बहुत
सारी प्रार्थना है
और
भूलते शब्द हैं।
हमीं
ने रचा था कहो तो कैसी
अजनबीयत भर जाती है अपने अंदर
हमीं
ने की थी प्रार्थना कभी
धरती
को बचाने की
सोचो
तो दंभ लगता है।
हमीं
ने दिया भाषा को संस्कार
इस
पर तो नहीं करेगा कोई विश्वास।
लोग
क्षुब्ध होंगे
हँस
देंगे जानकार
कि
बचा तो नहीं पाते कविता
सजा
तो नहीं पाते उम्मीद
धरती
को कहते हैं, जैसे
हाथ
में सूखती नारंगी है
और
जानते तक नहीं
व्यास
किलोमीटर तक में सही।
टुकड़ों
में बंट गया है जीवन
शब्द
चूसी हुई ईख की तरह
खुले
मैदान में बिखरे हैं
इनमें
था रस, कहे कवि
तो
इतना बड़ा अपराध!
बहुत
थोड़े शब्द हैं,
कहता
रहा कवि केवल
घिस
डाले कुछ शब्द
उन्होंने, गढता रहा कवि केवल।