शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

आकृति भाटिया के हत्यारे!

स्कूल ने आकृति भाटिया को मरने दिया।
अब, स्कूल को, प्रशासन को, प्रशासक को आप क्या सज़ा मुक़र्रर करते हैं?
क्या स्कूल में पढने भेजे बच्चे के स्वास्थ्य आदि की जिम्मेदारी (निगरानी ) क्या माँ-बाप रख सकते हैं?
उन स्कूलों को , जिनकी मासिक वसूली करोड़ों की है, वे बच्चों की सुरक्षा, उनके कल्याण बगैरह की कितनी चिंता रहती है?
आपके बच्चे भी इस तरह के स्कूलों में जाते होंगे, विचार कीजिए ।
तय है कि स्कूल के मालिकानों का हाथ लंबा और तगड़ा होगा -
नेता, जज , पुलिस और समाजसेवी-संस्थाएं सभी उनकी जेब में पड़े होंगे !
उनका कुछ नहीं बिगडेगा -
फिर आप और मै इस तरह के लोगों-स्वार्थी और नीच लोगों को निंदा के नमक से गला डालेंगे।
आइए हम सब मिलकर अपील करें-
आकृति के हत्यारों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिले

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

तंत्र: स्त्रीतंत्र बनाम पुरूषतंत्र -2

तो फिर, सबको पता ही होगा कि तंत्र एक साधना है।
साधना का तात्पर्य साधक की सिद्धि में होता है। इस तंत्र- साधना में पुरूष साधक पञ्च मकार से साधना करता है। पञ्च-मकार यानि मन्त्र, मुद्रा , मत्स्य , मांस और मैथुन । पहला चार मकार सामाजिक दृष्टि से आलोचनीय नहीं है अत एव उस पर विचार के लिए तंत्र वादियों को आमंत्रित किया जाय। हमारा आलोचन तो सिर्फ़ मैथुन पर होगा क्योंकि इसमे आधा और आधा विश्व अर्थात पुरी दुनिया समाहित है। दुसरे शब्दों में, स्त्री और पुरूष। पुरूष साधक और स्त्री साधना का उपकरण । समकालीन सन्दर्भ में इसे समझने के लिए आप फैशन की दुनिया को देख सकते है जहाँ दिखती तो है स्त्री लेकिन हिट होता है कोई पुरूष (कोई स्त्री होती भी है तो उसे शक्ति स्वरूप पुरूष का छद्म रूप समझ सकते हैं।)
जारी...............

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

तंत्र: स्त्रीतंत्र बनाम पुरूषतंत्र-1

भारत की सभ्यता और संस्कृति अत्यन्त प्राचीन है। इतनी पुरानी कि इतिहासकार आपस में मतभेद करते रहते हैं। पुरानी चीजों,पुरानी बातों के विषय में तरह तरह की कहानियाँ-किम्बदंतियाँ मशहूर हो जाया करती है। सो भारतीय संस्कृति के बारे में भी बहुत कुछ मशहूर है। इनमे कुछ रोचक हैं, कुछ आकर्षक तो कुछ मन को खट्टा कर देने वाला। जो जिस तरह का पथ बनाना चाहता है- इन धुंधलाए इतिहास के पन्नों से बना लेते है। बेचारा इतिहास है ही इतिहासकारों के इशारों पर नाचने वाला ज़र-खरीद गुलाम।
(बातें जारी हैं )

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

शर्म कैसे आती है

मुझे अभी के अभी बता दो- शर्म कैसे आती है?
शादी करके जैसे दुल्हन ससुराल आती है
या जैसे कोई ट्रांसफर होकर नए दफ्तर में आता है
या जैसे नींद आती है यो जैसे हँसी या रोना आता है !
बताओ न !
बताते क्यों नहीं ?
मुझे भी देखना है कि शर्म कैसे आती है?
क्या वह हवाई जहाज पर उड़ कर आती है!
शर्म देखने कैसी है?
सोनल बुआ की तरह या मिनल भाभी की तरह या प्रियंका मौसी की तरह।
हाँ, वैसी ही होगी शर्म भी
कितनी बातूनी है न सोनल बुआ , पर प्रियंका मौसी अच्छी हैं ।
अच्छा मम्मी ,
शर्म का आना लोगों को क्यों अच्छा नहीं लगता !
मुझे तो कोई कुछ बताता ही नहीं ।
अच्छा मम्मी,
दादाजी और दादीमाँ उसदिन बात कर रहे थे कि अब किसी को शर्म नहीं आती।
क्यों नहीं आती है शर्म , मम्मी!
मैं लेके आऊंगा शर्म को
पर कोई मुझे बताओ तो सही कि शर्म आती कैसे है ?

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

बाबा मटुकनाथ की प्रेम-पार्टी

बुजुर्गों ने कहा है - कुकर्मी का नाम या सुकर्मी का नाम।
तो मित्रो,
डॉ मटुकनाथ ने जैसे-तैसे नाम तो अर्जित कर ही लिया है। कैसे?
भई, जब मैं और आप उस व्यक्ति को जानते हैं- चाहे जिन कारणों से- यही तो प्रसिद्धि है। बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ? हुआ, सौ बार हुआ।
नाम हुआ था प्रेम के कारण-यह भी सनद रहे।
किसी ने मुंह पर कालिख पोत दी - श्रीमानजी धीर-गंभीर स्थित-प्रज्ञ की तरह अविचलित रहे थे, याद आया। कुछ लोगों को इसमे सहिष्णुता दिखी होगी तो कुछ लोगों को अहिंसा। पर मुझ जैसे चंद नासमझों को उसकी लाचारी और बेबसी दिखी, बस नज़र-नज़र का फेर है और क्या!
तो सुना कि भाईसाहेब, एक प्रेम-आधारित राजनैतिक पार्टी का गठन किया है पटना में।
डॉ साहिब प्रेम पर बल देना चाहते हैं। दुसरे शब्दों में , प्रेम पर आधारित समाज का निर्माण करना चाहते है। जो भी अपनी बसी बसाई गृहस्थी को उजाड़ कर अपनी बेटी आदि की उम्र की स्त्रियों से प्रेम करना चाहते हों,( क्षमा करें, बात सिर्फ़ पुरुषों को ध्यान में रखकर हो रही है, इसी तरह महिलाऐं भी अपना स्थान निर्धारित कर ले सकती हैं ) यह प्रेम पार्टी उनकी सामाजिक निंदा से रक्षा करते हुए , सुरक्षा की पूरी व्यवस्था करेगी।
तय है कि हम आप में से बहुत सारे लोग इस कुंठा के मारे बेचारे होंगे तो अब देर किस बात की चुपचाप बाबा मटुकनाथ की प्रेम पार्टी को अपना गुप्त समर्थन भेजें।
मैं व्यक्तिगत रूपसे परिवारवादी हूँ - ऐसे किसी कृत्यों की जोरदार शब्दों में भर्त्सना करता हूँ और लानत भेजता हूँ कि ऐसे लोग किसी भी व्यवस्थामूलक समाज के शरीर पर फोड़ा है जो कभी कभी ज्यादा आम या मिठाई खाने से हो जाता है ।
ऐसे लोग टेपचू होते है सिर्फ़ निंदा अपमान से नष्ट नहीं होते है।
और हम लोगों को इनका तमाशा देखने में मजा आता है।
तो आइये , इस टेपचू व्यक्तित्व वाले मटुकनाथ की प्रेम पार्टी का तमाशा देखें कि कितने स्वच्छंदता के पक्षपाती इस महत-उद्देश्य में अपना अमूल्य योगदान देते हैं।

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

हमारी राजनीति में हम कितने

मध्य-युग सराहनीय नहीं रहा क्योंकि वहां , उस समय ईश्वरवाद का बोलबाला था। ईश्वर इसलिए इतने महत्त्वपूर्ण हो चले थे क्योंकि सत्ता-सरकारें जनता से दूर और विमुख हो चली थीं। जनता की तो आदत है - अवचेतन में बैठी हुई जड़ता है कि बिना राजा के तो जी ही नहीं सकती । और जो राजा लोग थे उन्हें यह बात ही भुला गई थी कि जनता के प्रति उनकी कुछ जिम्मेदारी भी है । सो, जैसे-तैसे जनता ने अपना राजा ( अप्रत्यक्ष-राजा) भगवान को मान लिया। यह किसी को नहीं पता कि भगवान ने इन जनता को अपनी प्रजा मानी या नहीं। लेकिन जनता की आदत आज भी वही है। देखते होंगे, जब भाईसाहब या बहनजी के हाथ से बात निकलने लगती है तो तुरंत ईश्वरीय-न्याय की गुहार लगते हैं। पर, भला ऐसा क्यों?
बड़े-बड़े लोग आकर, या टीवी से या अख़बारों से हमें सिखा-बता रहे है कि आपका वोट कीमती है - इसका प्रयोग अवश्य करें। लेकिन इस बहुमूल्य वोट का इस्तेमाल हम किसके लिए करें?
इंदिरा गाँधी के दो पुत्र- श्री राहुल गाँधी और श्री वरुण गाँधी।
ये दोनों क्यों हमारे नेता हैं?
क्योंकि ये नेहरू-इंदिरा-संजय-राजीव के परिवार के हैं!
मैं चाहे जितना बकबक करूँ, इन्हें नेता तो मानना ही होगा ।
हम भारत के लोग शासन चालने में सचमुच सक्षम नहीं है।
उत्सव की तरह मैं भी किसी दुराचारी को दे आऊंगा अपना कीमती वोट ।
लेकिन इस सवाल से न अब आजाद हूँ ,न शायद तब ही छूट पाऊंगा कि राजनीति में मेरी कितनी भागीदारी है?
आज भी तो जनता ऊपर मेंह उठाये ईश्वरीय-न्याय का ही रास्ता देख रही है।
हे महान रोम के महान स्वतंत्र नागरिको!
आपको अपने वोट का कुछ अर्थ समझ में आता है?
फिर भी आपका निरर्थक वोट एक सार्थक सरकार बनने के अनिवार्य है।
यह बता पाना तो थोड़ा मुश्किल है कि हमारी राजनीति में हम कितने हैं , हम में तो राजनीति कूट-कूट कर भरी हुई है । हम राजनीति के उपादान है यानि कच्चा माल ।
अब तो आई बात समझ में -
आप शत-प्रतिशत राजनीति में ही हैं । बधाई! ! !

बुधवार, 1 अप्रैल 2009

हमारी सांस्कृतिक इच्छा

घीसू और माधो कफ़न के लिए इकट्ठे किए गए पैसों का कफ़न नहीं खरीदते हैं- बल्कि पूरी खाते हैं , दारू पीते हैं। हमारे ख्याल से उन्हें 'भूखे-बिलबिलाते' रहकर कफ़न खरीदना चाहिए था। किंतु उन दोनों भूखों ने ऐसा नहीं किया। क्यों नहीं किया ?
इसका सबसे सुविधाजनक जबाव है कि वे 'चरित्र-भ्रष्ट' हैं। उसे चरित्र-भ्रष्ट मानकर हम सुख पाते हैं। हमें अपनी मर्जी, अपनी संस्कृति(?), अपनी परम्पराएं, अपनी समझ, अपनी ज़रूरत - सबसे अधिक उचित और प्रिय लगती हैं।
'गोदान ' में होरी तिल-तिल कर मरता है - हमने उसकी मौत को सार्थक माना। हमने सहानुभूति जताई कि मरजाद के लिए अपना सबकुछ कुर्बान कर गया।
घीसू-माधो को भूखे रहकर 'नए वस्त्र रूपी कफ़न में लपेट कर ' अपनी पत्नी/बहु का अन्तिम संस्कार करना चाहिए। पेट में भूख से आग लगी है , किसी तरह से उसके पास पैसे आ गए उसने खा लिया।
सनद रहे, भूख इच्छा नहीं , अनिवार्य ज़रूरत है जबकि कफ़न मात्र एक सांस्कृतिक इच्छा